हमारे समय के महत्वपूर्ण वरिष्ठ हिंदी कवि अष्टभुजा शुक्ल
ख़ुरदरे बने रहने की कोशिश करना जवान होते बेटों: अष्टभुजा शुक्ल
अष्टभुजा शुक्ल हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण हिंदी कवि हैं, जो अपने व्यवहार और कविताओं में एक समान दिखते हैं। उनकी दृष्टि में 'कविता राजनीति का भी प्रतिपक्ष निर्मित करती है। साहित्य की राजनीति साहित्य को परिमित और कभी-कभी दिग्भ्रमित भी करती है क्योंकि साहित्य मनुष्य का अंतस्तल है, जबकि राजनीति व्यवस्थागत संरचना। राजनीति के स्वप्न और साहित्य के स्वप्न परस्पर विलोम हैं क्योंकि राजनीति हमेशा सत्तामुखी और व्यवस्था की पोषक होती है जबकि साहित्य आजादखयाल और मुक्तिकामी। राजनीति जीवन पर अंकुश लगाती है जबकि जीवन स्वच्छंद होना चाहता है। आज कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती छिन्नमूलता की है...
शुरुआती पढ़ाई-लिखाई बगल के गाँव की प्राइमरी पाठशाला से ही जारी हुई और अंततः सब कुछ गांव तक ही सिमटकर रह गया। कविता के प्रति स्वाभाविक लगाव रहा। अंताक्षरियों के विजेता। घर में रामचरितमानस के अलावे संस्कृत के ग्रंथ। संयोगवश अग्रज श्री बुद्धि सागर शुक्ल भी संस्कृत के ही अध्येता बने, जिनके अगाध स्नेह की बदौलत ही कुछ हो पाया।
वरिष्ठ कवि अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं कि जीवन में गहराई तक जाकर उसकी परतों को उधेड़ने की जिज्ञासा कमतर हुई है। फिर भी नवागत लेखन में स्त्री लेखन और आदिवासी लेखन से नया भरोसा पैदा हुआ है, जबकि किसान जीवन की दृष्टि से हिन्दी कविता लगभग रिक्त है। अपने जिंदगीनामा पर प्रकाश डालते हुए अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के पिछड़े जिले बस्ती के बहुत पिछड़े गांव में मेरा जन्म हुआ। परिवार की पृष्ठभूमि भी एकदम सामान्य रही। थोड़ी सी खेती और पुरोहिताई की बदौलत बड़े से परिवार का जीवन जैसे तैसे चलता रहा।
संयुक्त परिवार की ढेरों जरूरतें और सीपी बराबर आय। दिन भर मागो तो दीया भर, रात भर मागो तो दीया भर। दो-एक दुनियादार परिवारों को छोड़कर सारे गांव की माली हालत एक जैसी। लघु सीमान्त किसान की पीड़ा और समस्याएं लोगों की समझ में जल्दी नहीं आतीं। बाबा तो हलजुते किसान ही थे। बाद में बड़े पिताजी की संस्कृत की पढ़ाई-लिखाई से घर में संस्कृत भाषा के जरिये पुरोहिती से भी सहारा मिला लेकिन बप्पा हल की मूठ छोड़कर वह सब साथ-साथ और उतनी ही हाड़तोड़ मेहनत करने के लिए मजबूर थे, जितने कि हलवाहे कबिलास महरा। बस्ती इतना पिछड़ा जिला रहा है कि यहां से कोई भी बड़ा शहर-नगर दो-ढाई सौ किलो मीटर से कम दूरी पर नहीं है।
शुरुआती पढ़ाई-लिखाई बगल के गाँव की प्राइमरी पाठशाला से ही जारी हुई और अंततः सब कुछ गांव तक ही सिमटकर रह गया। कविता के प्रति स्वाभाविक लगाव रहा। अंताक्षरियों के विजेता। घर में रामचरितमानस के अलावे संस्कृत के ग्रंथ। संयोगवश अग्रज श्री बुद्धि सागर शुक्ल भी संस्कृत के ही अध्येता बने, जिनके अगाध स्नेह की बदौलत ही कुछ हो पाया। जीवन में न कोई अच्छा संस्थान मिला, न कोई गुरु, न बहुत अच्छे लोग, जिनके जरिये जीवन का कायापलट हो जाता है। रोटी या भात के साथ नमक और सरसों के तेल की बहुतेरी यादें हैं। इसके अलावे जो जेहन में बसे हैं, वे हैं पशुधन. यानी बैल, भैंस, गाय, बछड़े, गोरस, घी, दूध, दही, मट्ठा, गन्ना, कोल्हू, आलू, मटर। बप्पा गांव और आसपास की रामचरितमानस मंडली के ढोलकिया रहे, सो रामचरितमानस की सोहबत भी बचपन से ही मिली।
बचपन ऐसा रहा जिसमें खिलौना नामक चीज नहीं लेकिन खेल अनगिनत थे। लोरियों और लोकोक्तियों की भरमार थी। किशोरवय में जीवन की असंख्य लहरें लेकिन निर्दिश। इसका यह परिणाम रहा कि पूर्व माध्यमिक स्तर की पढ़ाई के दौरान दो रूपसी लड़कियां कक्षा की छात्राएं थीं, जिन्हें छिपकर आधी नजर से देखने मात्र से पसीना छूट जाता लेकिन उनका शब्दांकन पढ़ाई की कॉपी के पिछले पन्नों पर भरा जाता। कह सकता हूँ कि रूप सौन्दर्य और भाव चित्रण की पूरी कापी भर गयी थी। छन्दोमय, लेकिन जिसका कोई फिंगर प्रिंट भी किसी के पास नहीं मिलेगा। बाद में पांच छ: साल के भतीजे को लेकर भी एक लंबी कापी भर गयी थी। जिस घर में देवी मां हैं, उस घर में मेरा जूता जैसी पंक्तियां रही होंगी। ध्यातव्य है कि युवाकाल में शादी के पहले इन पांवों को जूता नसीब नहीं हुआ। बचपन में रामलीलाओं और नौटंकियों का प्रभाव भी बहुत गहरा रहा है। कई-कई कोस तक नौटंकी देखने का रतजगा और भोर में घर पहुंचने की लानत-मलामत सब खाते में दर्ज है।
वरिष्ठ कवि अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं कि किसी खास बौद्धिक समूह को ध्यान में रखकर यदि जानबूझकर कविता की भाषा और विन्यास जटिल किये जाते हैं तो इस दृष्टि से 'कामायनी' की भाषा सिर्फ पढ़े- लिखे लोगों की भाषा है जबकि मुक्तिबोध की भाषा 'बहुत' पढ़े-लिखे लोगों की भाषा है। काव्य भाषा का निर्माण किताबी शब्दकोश से नहीं होता। कविता की भाषा लोक व्यवहार की जनभाषा होती है, जिसमें उस जीवन की सुगंध, दुर्गंध, वक्रता और सरलता सभी शामिल होते हैं। अर्थग्रहण की मशक्कत हर जगह करनी पड़ती है। कभी-कभी सरल भाषा के अर्थ बड़े गूढ होते हैं, जिसे दिन-रात शब्दकोश पलटने वाले भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते। इस दृष्टि से भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य भाषा विरल है।
यह अवश्य है कि इधर पाठकीय प्रवृत्ति का क्षरण हो रहा है और लोग चाहते हैं कि कुआं ही प्यासे तक चला आता तो कितना अच्छा होता! अनध्याय भी काव्य परंपरा को ठीक-ठीक न समझ पाने का एक बड़ा कारण है किन्तु कविता बहुव्यापी विधा है। अतः उसकी संम्प्रेषणीयता काफी मायने रखती है। कविता कंठस्थ भले न हो लेकिन उसका मनस्थ होना काफी मायने रखता है। और कविता का सच्चा पाठक श्रोता होने के लिए एक खास किस्म की मानसिकता की जरूरत होती है। मैं उस कविता को ऊंची कविता मानता हूं, जो लिपिबद्ध होते हुए भी कालान्तर में वाचिक बन जाए या कोई वाचिक कविता पीढ़ियों से मुखामुख होते कालान्तर में हमें लिपिबद्ध करने के लिए आमंत्रित करने लगे।
वह कहते हैं कि मैं इन दिनो परंपरा से टकराहट के रूप में अयोध्या पर केन्द्रित कोई लंबी कविता लिखने को सोच रहा हूँ। हालांकि छह दिसंबर के बाद इस पर पर्याप्त लिखा गया है। फिर एक उपन्यास लिखने का भी मन है। यद्यपि कथात्मक विधा में मेरी कोई पैठ नहीं। आज कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती छिन्नमूलता की है। जीवन में गहराई तक जाकर उसकी परतों को उधेड़ने की जिज्ञासा कमतर हुई है। फिर भी नवागत लेखन में स्त्री लेखन और आदिवासी लेखन से नया भरोसा पैदा हुआ है, जबकि किसान जीवन की दृष्टि से हिन्दी कविता लगभग रिक्त है। एक कवि या साहित्यकार के रूप में किसी लेखक का सबसे बड़ा सपना यही हो सकता है कि लोग उसके द्वारा उकेरे गये शब्दों पर आंख मूंदकर यकीन कर सकें और वह अधिकाधिक पाठकों को आत्मीय ढंग से संबोधित हो सके।
इस बीच फिर से भवभूति का 'उत्तररामचरितम्' देख रहा हूँ। उसकी संक्षिप्त काव्य नाटिका रूपान्तरित करने का विचार है। भवभूति ऐसे साहसिक नाटककार हैं, जिन्होंने पहली बार श्रृंगार रस को अपदस्थ करके करुण को एकमात्र रस घोषित किया। यह परंपरा में बड़ा हस्तक्षेप है। नये में दिनेश कुमार शुक्ल के कविता संग्रह और मंगलेश डबराल का 'नए युग में शत्रु' पढ़ रहा हूँ। एक अलग पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ युवा उपन्यासकार जयश्री राय का उपन्यास 'दर्दजा' अभी अभी पढ़ा है। उसमें स्त्री जीवन की बहुत मर्मस्पर्शी वेदना दर्ज है। कहीं से मिल गया तो चित्रा मुद्गल का नया उपन्यास पोस्ट बाक्स नं 203 नाला सोपारा पढ़ने की इच्छा है। एकदम नवागत आलोचकों में आशीष मिश्र की जिज्ञासाएं उत्सुकता पैदा करती हैं। कविता में राजनीतिक विचारधारा के प्रश्न पर वह कहते हैं कि राजनीतिक विचारधारा घुसेड़ने या आरोपित करने से कविता या तो घोषणापत्र बनने को अभिशप्त हो जाती है या उपदेशपरक होने को बाध्य कर दी जाती है। राजनीतिक विचारधारा भी कोई एकल प्रत्यय नहीं है क्योंकि राजनीति के कई कई ध्रुव होते हैं। राजनीतिक विचारधाराओं से कदमताल करतीं कविताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं।
प्रेमचंद जी के अनुसार अगर साहित्य राजनीति के आगे चलने-जलने वाली मशाल है तो कविता राजनीति की पिछलग्गू नहीं हो सकती। एक कवि की जीवन दृष्टि देश-कालप्रसूत होती है और वह जीवन की आकांक्षाओं और समस्याओं के लिहाज से बदलती रहती है किन्तु राजनीतिक विचारधारा - चाहे वह कोई भी हो - यदि देशकाल के सापेक्ष खुद को टस से मस नहीं करना चाहती तो वह हमें यथास्थितवाद की ओर ही धकेलना चाहती है। अतः कविता राजनीति का भी प्रतिपक्ष निर्मित करती है। साहित्य की राजनीति भी साहित्य को परिमित और कभी-कभी दिग्भ्रमित भी करती है क्योंकि साहित्य मनुष्य का अंतस्तल है जबकि राजनीति व्यवस्थागत संरचना।
राजनीति के स्वप्न और साहित्य के स्वप्न परस्पर विलोम हैं क्योंकि राजनीति हमेशा सत्तामुखी और व्यवस्था की पोषक होती है जबकि साहित्य आजादखयाल और मुक्तिकामी। राजनीति जीवन पर अंकुश लगाती है जबकि जीवन स्वच्छंद होना चाहता है। राजनीति के सामने सिर्फ मनुष्य होता है जबकि साहित्य के सामने चराचर विश्व। बंदरों के आपस में बैठकर प्रेमपूर्वक जूं निकालने में जो दृष्टि काम करती है, वह साहित्य की भी एक दृष्टि हो सकती है पर जरूरी नहीं कि वह राजनीति के लिए भी कोई दृष्टि हो! जहां तक पुरस्कारों की राजनीति का सवाल है तो साहित्य के पुरस्कारों में हार-जीत की प्रतिस्पर्धा नहीं होती लेकिन पहले के साहित्यिक प्रयोजन में - यशसेर्थकृते भी एक प्रयोजन माना गया है, जो अब एकमात्र प्रयोजन तक सिमटता जा रहा है।
बहुत सा पढ़ा-लिखा वर्ग अब ऐसा है, जिसके पास प्रचुर भौतिक संसाधन हैं और वह यश की महत्वाकांक्षा से पीड़ित है। उसे लगता है कि साहित्य में अमर हो जाने के मौके कुछ ज्यादा हैं। अतः प्रतीकात्मक धनराशि वाले पुरस्कार भी यशाकांक्षा पूरी कर देते हैं। इससे त्वया-मया वाले संबंध खूब पनपते हैं। यहां तक कि सांत्वना पुरस्कारों का भी प्रचलन हौसलाआफजाई के लिए शुरू किया गया। मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि आज के जमाने में किसी भी पुरस्कार की राशि यदि 11000 से कम है तो यह साहित्य की अवहेलना है। रही बात प्रतिष्ठित पुरस्कारों की तो एक ही समय में अलग-अलग ढंग से लेखक स्तरीय लेखन करते हैं। ऐसे में किसी एक का चयन सर्वथा मुश्किल होता है। ऐसे पुरस्कारों में कभी लेखक का व्यक्तित्व और छवि तो कभी उसके साहित्यिक संबंध जैसे कारक भी निर्णायक भूमिका अदा करते हैं और सर्वश्रेष्ठता का मानक भी अभिरुचियों पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से कोई भी निर्णय सर्वमान्य नहीं हो सकता। अष्टभुजा शुक्ल की एक चर्चित कविता -
जवान होते बेटों !
इतना झुकना
इतना कि समतल भी ख़ुद को तुमसे ऊँचा समझे
कि चींटी भी तुम्हारे पेट के नीचे से निकल जाए
लेकिन झुकने का कटोरा लेकर मत खड़े होना घाटी में
कि ऊपर से बरसने के लिए कृपा हँसती रहे
इस उमर में इच्छाएँ कंचे की गोलियाँ होती हैं
कोई कंचा फूट जाए तो विलाप मत करना
और कोई आगे निकल जाए तो
तालियाँ बजाते हुए चहकना कि फूल झरने लगें
किसी को भीख न दे पाना तो कोई बात नहीं
लेकिन किसी की तुमड़ी मत फोड़ना
किसी परेशानी में पड़े हुए की तरह मत दिखाई देना
किसी परेशानी से निकल कर आते हुए की तरह दिखना
कोई लड़की तुमसे प्रेम करने को तैयार न हो
तो कोई लड़की तुमसे प्रेम कर सके
इसके लायक ख़ुद को तैयार करना
जवान होते बेटो !
इस उमर में संभव हो तो
घंटे दो घंटे मोबाइल का स्विच ऑफ रखने का संयम बरतना
और इतनी चिकनी होती जा रही दुनिया में
कुछ ख़ुरदुरे बने रहने की कोशिश करना
जवान होते बेटो !
जवानी में न बूढ़ा बन जाना शोभा देता है
न शिशु बन जाना
यद्यपि बेटो
यह उपदेश देने का ही मौसम है
और तुम्हारा फर्ज है कोई भी उपदेश न मानना।
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