भारत की पहली मुस्लिम महिला डाकिया बनीं जमीला
पहली महिला डाकिया हरियाणा की सरोज रानी हों या हिमाचल की अदिति, आज तक भारत की कुल ढाई हजार से अधिक लेडी पोस्टमैन में एक भी मुस्लिम समुदाय से नहीं रही हैं। ऐसे में आंध्र प्रदेश की जमीला को देश की पहली मुस्लिम महिला पोस्टमैन होने का विशेष दर्जा मिला है।
जमाना चाहे जितना बदल गया हो, मोबाइल फोन, ई-मेल, कूरियर, फेसबुक ने सूचनाओं के आदान-प्रदान की दुनिया चाहे जितनी आधुनिक कर दी हो, सरकारी डाक विभाग की जिम्मेदारियां और जरूरतें आज भी पहले की तरह बनी हुई हैं।
हमारे देश में इस समय कुल लगभग 37, 160 डाकियों में 2,708 लेडी पोस्टमैन हैं लेकिन अब तक उनमें एक भी महिला डाकिया मुस्लिम समुदाय से नहीं रही हैं। पहली बार हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) की जमीला देश की पहली मुस्लिम महिला पोस्टमैन बनी हैं। आम तौर से डाक विभाग का जिस तरह का काम-काज होता है, महिलाओं को उसके अनुकूल नहीं पाया जाता रहा है। जून 2015 में जब सोनीपत (हरियाणा) की सरोज रानी अपने जिले की पहली महिला डाकिया बनीं तो पूरे डाक विभाग ही नहीं, आम लोगों में भी एक नए बदलाव, नए जमाने पर उनके बारे में चर्चाएं आम हो चली थीं।
सरोज रानी ने करनाल में डाक परीक्षा में 83 फीसद नंबर हासिल कर मेरिट में दूसरा स्थान प्राप्त कर लिया था। जो मेरिट में प्रथम आया, वह भी मात्र एक नंबर ज्यादा यानी 84 अंक पा सका था। यानी सरोज रानी जिले में फर्स्ट आते आते रह गई थीं। पिछले साल जून और सितंबर में हिमाचल प्रदेश, झारखंड और जम्मू कश्मीर से सुर्खियों में आई थीं। अदिति शर्मा भी अपने जिले की ऐसी पहली महिला डाकिया हैं। हिमाचल में जिला कांगड़ा के रक्कड तहसील की रहने वाली अदिति शर्मा ने डाक विभाग के महिला मिथक को तोड़ते हुए धर्मशाला की पॉश कलोनियों और बाजारों में जब अपनी मेहनत से लोगों के साथ ही अपने विभाग के उच्चाधिकारियों का भी दिल जीत लिया तो उनको मीडिया भी गंभीरता से लेने लगा।
उन्होंने अपने परिवार की गरीबी पर पार पाते हुए साइंस से स्नातक होने के बाद यह मोकाम हासिल किया। डाकिये की प्रतियोगी परीक्षा में वह टॉप कर गईं। प्रशिक्षण के बाद उनकी पहली तैनाती धर्मशाला मंडल में हुई। ऐसी ही एक और महिला डाकिया हैं बोकारो (झारखंड) की यदुवंश नगर कॉलोनी चास की रहने वाली पहली महिला डाकिया शीला कुमारी। उनको अपने पिता सुदर्शन राम के असामयिक निधन के बाद यह नौकरी मिली। अब उनके ही कंधों पर मां और तीन बहनों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। शीला कुमारी बताती हैं कि शुरू-शुरू में चिट्ठियां बांटते समय उनको पते ढूंढने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था, अब स्कूटी सीख लेने के बाद उनका काम आसान हो गया है।
जमाना चाहे जितना बदल गया हो, मोबाइल फोन, ई-मेल, कूरियर, फेसबुक ने सूचनाओं के आदान-प्रदान की दुनिया चाहे जितनी आधुनिक कर दी हो, सरकारी डाक विभाग की जिम्मेदारियां और जरूरतें आज भी पहले की तरह बनी हुई हैं। आजकल डाक लाने, ले जाने के नए-नए संसाधन भले विकसित हो गए, गांव तो आज भी पहले की ही तरह सरकारी डाक सेवाओं पर ही निर्भर हैं। कहते हैं कि मौसम बारिश का हो या कड़ाके की ठंड, आग बरसाती दोपहर का, एक डाकिया कम से कम सौ-सवासौ किलोमीटर तो रोजाना का सफर करता ही है। डाक को लाने और ले जाने के लिए सरकार में हरकारे, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, मैसेंजर, अर्दली वगैरह भी होते हैं, जो डाक को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाते, ले जाते हैं।
इसके बावजूद, डाक व्यवस्था की सबसे मजबूत कड़ी डाकिया या पोस्टमैन ही है। डाक को लेकर यह भी एक गंभीर अभाव लगता है, विभाग में महिला डाकियों की कमी का। उनकी संख्या आज भी गिनी-चुनी ही है। जरा गांव की एक निरक्षर ऐसी महिला के बारे में सोचिए, जिसका पति परदेस में हो, डाकिया चिट्ठी लाता हो तो वह उसे पढ़वाए किससे, ताकि पत्र की गोपनियता भंग न हो। ऐसे में यदि पत्र संवाहक महिला डाकिया हो तो उसका एक पंथ दो काज हो जाए। इस तरह महिला डाकिया उसकी ऐसी मुश्किलों की सहभागी हो सकती है। चिट्ठी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण चीज है। संवाद भेजने वाले या संवाद ग्रहण करने वाले का जो भी बनता या बिगड़ता हो, लेकिन यह तय है कि डाकिये को ही संवाहक बनना पड़ता है। ऐसे में महिला डाकिया की अहमियत समझ में आती है।
ऐसे हालात में यदि किसी डाक कर्मी को भारत की पहली महिला डाकिया होने का गौरव प्राप्त हो जाए तो निश्चित ही सूचना स्वयं अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। मुस्लिम समुदाय से होने के नाते हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) में महबूबाबाद जिले के गरला मंडल की लेडी पोस्टमैन जमीला की नियुक्ति भी एक सुखद-दुखद घटना की तरह है। यदि आज उनके पति ख्वाजा मियां इस दुनिया में होते तो उनको घर-घर डाक बांटने की भला क्या जरूरत रहती, लेकिन कुछ साल पहले उऩके पति बाल-बच्चों को उनके भरोसे छोड़ दुनिया से चल बसे। उन पर मुश्किलों का पहाड़ सा टूट पड़ा। ऐसे कहर के बावजूद जमीला ने मुश्किलों से हार नहीं मानी। जैसे-तैसे घर का भररण-पोषण चलाती रहीं।
संयोग से उन्हें अब अपने पति की जगह पर डाकिये की ही अनुकंपा नौकरी भी मिल गई है। वह देश की पहली मुस्लिम महिला डाकिया बन गई हैं। अपने इलाके के घर-घर जाकर डाक सामग्री पहुंचा रही हैं। खुशी की बात ये है कि इस महिला डाकिये की बड़ी बेटी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने वाली है और छुटकी भी डिप्लोमा कर रही है। जिस समय ख्वाजा मियां की मौत हुई, जमीला की बड़ी बेटी पांचवीं क्लास में थी और छोटी तीसरी क्लास में पढ़ रही थी। जैसे अन्य महिला पोस्टमैन को डाक बांटने में दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है, उन्हें भी हालात से दो चार होना पड़ा है।
शुरू-शुरू में उनके लिए भी डाक बांटने का काम कत्तई आसान नहीं था। वह तो साइकिल चलाना तक नहीं जानती थीं। ऐसे में घर-घर चिठ्ठियां पहुंचाने के लिए उन्हें गर्मी, बरसात, ठंड में पैदल ही दूर दूर तक के सफर तय करना कोई आसान काम नहीं था। अब जाकर वह साइकिल चलाना सीख रही हैं। नौकरी से उन्हें मात्र छह हजार रुपए मिल पाते हैं, जिससे परिवार की गाड़ी खींचना किसी बड़े संघर्ष से कम नहीं है। इसीलिए जमीला ने घर चलाने के लिए रोजी रोटी का एक और जरिया इजाद कर लिया है। वह साड़ियां बेचती हैं, जिससे हर महीने आठ-दस हजार रुपए की अतिरिक्त आमदनी हो जाती है।
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