12 साल की उम्र में इस व्यक्ति ने खो दिए थे अपने दोनों हाथ, लेकिन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आने नहीं दिया दिव्यांगता को कभी आड़े
"जब भी जीवन में मुश्किलें आएं तो उनका भी लाभ उठाएं" यह एक सदियों पुरानी कहावत है जो लोगों को अप्रिय घटनाओं को अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है। और बिल्कुल ऐसा ही किया 31 वर्षीय सुबोजीत भट्टाचार्य ने।
गलती से बिजली का करंट लग जाने से सुबोजीत ने अपने दोनों हाथ खो दिए। तब वे युवा थे। हालांकि, इसने उन्हें अपने लक्ष्यों को पूरा करने से नहीं रोका। उन्होंने इसे एक सीमा के रूप में नहीं देखा, बल्कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपने तरीके से काम किया। आज, वह एक बेंगलुरु स्थित गैर-सरकारी संगठन में एक ग्राफिक डिजाइनर के रूप में काम करते हैं और लद्दाख में बाइकिंग एक्सपीडिशन पर जाने के लिए तैयार है।
एक ओपन स्कूलिंग प्लेटफॉर्म के माध्यम से अपनी शिक्षा पूरी करने से लेकर जिला स्तर पर फुटबॉल खेलने और फिर अपना खुद का डिजाइन स्टूडियो स्थापित करने तक, सुबोजीत ने यह सब किया है। सफर आसान नहीं था। उन्हें अपने रास्ते खुद बनाने थे, खुद को सहारा देने के तरीके खोजने थे, और अपना करियर बनाने के लिए अतिरिक्त मील तक जाना था।
सुबोजीत योरस्टोरी को बताते हैं,
“मेरे जीवन में बहुत सारे उतार-चढ़ाव थे। एक प्वाइंट पर, मैं अवसाद से भी पीड़ित था। यह तो कुछ उद्देश्यपूर्ण करने के लिए मेरे अंदर जुनून था जिसने मुझे प्रगति करने में सक्षम बना दिया।"
युवा सुबोजीत के वो संघर्ष भरे दिन
जब सुबोजीत 12 साल के थे, तो वह अपनी गर्मी की छुट्टी के लिए बेंगलुरु में अपनी बहन के घर पर रहने लगे। एक दिन वह एक सिकल के इस्तेमाल से पेड़ से कुछ नारियल तोड़ने की कोशिश कर रहे थे, कि तभी एक हाईटेंशन वायर ने उन्हें पकड़ लिया। जिसके बाद उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने बताया कि उनके दोनों हाथ काटने पड़ेंगे।
सुबोजीत याद करते हुए कहते हैं,
“मुझे होश आया तो मैं अस्पलात में था और उन बासी ग्रे दीवारों और सफेद बेडशीट को निहार रहा था। मैं अपनी बाहों को महसूस नहीं कर सका। मैं वहां लेटा था और मेरे ऊपरी शरीर के चारों ओर घावों पर लपेटी गई पट्टी मुझे महसूस हो रही थी। जब मुझे महसूस हुआ कि मेरे आगे के हाथ (फोरलेम्बस) को हटा दिया गया है, तो मैंने डॉक्टर से कहा कि वे इस बारे में मेरी माँ को न बताएं। मुझे इस बात की चिंता थी कि वे इस दुख का सामना कैसे करेंगी जो उनके बेटे के साथ हुआ है।”
सुबोजीत को कई सर्जरी से गुजरना पड़ा, और लगभग दस महीने बेंगलुरु के एक अस्पताल में बिताए। इसके बाद, वह रिकवर होने के लिए कोलकाता में अपने गृहनगर वापस चले गए। हादसे से जुड़े भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक संकट को दूर करने में उन्हें छह लंबे साल लगे। जब उनके सभी साथी अपने ग्रेड XII को पूरा कर रहे थे, तब सुबोजीत पश्चिम बंगाल के विद्यापीठ में चारघाट मिलन मंदिर नामक एक ओपन स्कूलिंग इंस्टीट्यूट में सातवीं कक्षा पूरी कर रहे थे।
उनके जीवन में मोड़ तब आया जब उन्होंने अपने घर के पास फुटबॉल खेल रहे किशोरों का एक समूह देखा। वह कुछ कर तो नहीं सकते थे लेकिन उन्होंने इसे एक बार कोशिश देने के बारे में सोचा।
वे कहते हैं,
“हालांकि बाहों के किसी भी व्यक्ति के लिए फुटबॉल जैसा खेल खेलना असंभव था, लेकिन मैं इसे शॉट दिए बिना नहीं छोड़ना चाहता था। इसलिए, मैंने लड़कों से अनुरोध किया कि वे मुझे गेंद को किक करने का मौका दें। थोड़ी आनाकानी के बाद, वे सहमत हुए। शरीर के संतुलन की पूरी कमी के कारण, मैं शुरुआत में ही गिर गया। मुझे सचमुच घर ले जाना पड़ा। उस सब के बावजूद, मैं अगले दिन मैदान पर वापस गया। यह कहा जाता है कि जीवन में खुद से ज्यादा किसी बड़े मुद्दे को लेकर संघर्ष करना ज्यादा मुक्तिदायक है और मैं बस इतना ही करना चाहता था।”
31 वर्षीय सुबोजीत ने समाज द्वारा तय सीमाओं के अनुसार जीने की इच्छा नहीं की। वह खुद ही रेखाएँ खींचना चाहते थे और विकलांग लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करते थे। इसने उन्हें जिला स्तरीय फुटबॉल खिलाड़ी बनने, पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय से कंप्यूटर एप्लीकेशन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पूरा करने के साथ-साथ स्वयं-सिखाया ग्राफिक डिजाइनर भी बना दिया।
भारत में 2.68 करोड़ लोग विकलांग हैं और 2011 की जनगणना के अनुसार उनमें से 67.7 प्रतिशत बेरोजगार हैं। सुबोजीत भी उनमें से एक थे। उन्होंने कई कंपनियों में अपना रिज्यूमे और एप्लीकेशन दिए लेकिन कहीं से कोई रिस्पोन्स नहीं आया।
वे कहते हैं,
“हालांकि आज कॉर्पोरेट जगत में समावेशिता पर गंभीरता से चर्चा की जाती है, लेकिन समर्थन की कमी के कारण कई की आकांक्षाएं जोर नहीं पकड़ पाती हैं। महीनों तक मैं भी काफी दुखी था। मैंने हालांकि हार नहीं मानी। धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने के बाद, मुझे द एसोसिएशन ऑफ पीपुल विद डिसेबिलिटी (एपीडी) से उनके ग्राफिक डिजाइनर बनने का बुलावा मिला।"
कई लोगों के लिए बने प्रेरणा
अंगों के बिना जीवन की कल्पना करना बहुत कठिन है। यहां तक कि दिन-प्रतिदिन की गतिविधियां से लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने और अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने तक, यह एक अत्यंत कठिन कार्य की तरह लगता है। इससे सामना करने के लिए बहुत साहस चाहिए। इन संघर्षों के बावजूद, सुबोजीत ने न केवल इसका मुकाबला किया, बल्कि इससे उबरने का एक तरीका निकाला। वह अपने हाथ के लिए प्रोस्थेटिक डिवाइस का उपयोग करते हैं जिसे एवोकैडो कहा जाता है, जो रिस्ट कनेक्टर की तरह काम करता है। सुबोजीत इसका उपयोग हार्ड कोर कार्यों के साथ-साथ ग्राफिक डिजाइनिंग सहित नाजुक कार्यों को खींचने के लिए करते हैं।
केवल इतना ही नहीं है। चूंकि सार्वजनिक परिवहन का उपयोग कर काम पर जाने के लिए ट्रैवलिंग बेहद कठिन साबित हो रही थी, इसलिए सुबोजीत ने अपने मोपेड को इस तरह से मोडीफाई किया कि वह इसे आराम से ड्राइव कर सके।
वे कहते हैं,
“मैंने मैकेनिक से अपनी बाइक के हैंडल को हटाने और सामने के छेद को ड्रिल करने के लिए कहा ताकि वाहन को चलाने के लिए मुझे कुछ पकड़ मिल सके। मैंने उनसे एक्सेलेटर और ब्रेक मेरे पैर के पास लगाने का भी अनुरोध किया। अब, मैं बिना किसी पर डिपेंड होकर खुद से काम पर जाने में सक्षम हूं।”
31 वर्षीय इस साल बाइक से 1,000 किलोमीटर की दूरी तय कर दिल्ली से लद्दाख जाने की योजना बना रहे हैं। वे कहते हैं,
"इस तरह एक अभियान शुरू करने के पीछे का मकसद मेरे जैसे लाखों अन्य लोगों को संदेश देना है कि ऐसे कई तरीके हैं जिनसे वे अपनी स्वतंत्रता और जीवन स्तर में सुधार कर सकते हैं।"