पुणे की इस महिला वैज्ञानिक ने अंगूर की दो भिन्न किस्मों को मिलाकर विकसित की उत्कृष्ट किस्म, कसम से आपके मुँह में भी पानी आ जाएगा इस किस्म के अंगुर खाने से
पादप आनुवांशिकी और उत्पादकता समूह की वैज्ञानिक डॉ. सुजाता तेताली की ओर से विकसित यह किस्म जूस, किशमिश, जैम और रेड वाइन बनाने में बेहद उपयोगी होने से किसान इसे लेकर बेहत उत्साहित हैं। अंगूर उत्पादन के मामले में दुनिया में भारत का 12वां स्थान है।
देश में गर्मियों के मौसम की शुरुआत के बीच पुणे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान ने रस से भरपूर अंगूर की नयी किस्म विकसित की है। पुणे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के स्वायत्त संस्थान आघारकर अनुसंधान संस्थान की ओर से विकसित अंगूर की यह किस्म फंफूद रोधी होने के साथ ही अधिक पैदावार वाली और रस से भरपूर है। यह जूस, जैम और रेड वाइन बनाने में बेहद उपयोगी है। ऐसे में किसान इसे लेकर बेहद उत्साहित हैं।
अंगूर की यह संकर प्रजाति एआरआई-516 दो विभिन्न किस्मों अमरीकी काटावाबा तथा विटिस विनिफेरा को मिलाकर विकसित की गई है। यह बीज रहित होने के साथ ही फंफूद के रोग से सुरक्षित है।
अंगूर की रस से भरपूर और अच्छी पैदावार देने वाली यह किस्म महाराष्ट्र एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन साइंस(एमएसी)–एआरआई की कृषि वैज्ञानिक डॉ. सुजाता तेताली की ओर से विकसित की गई है। यह किस्म 110-120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है और घने गुच्छेदार होती है। महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, पंजाब और पश्चिम बंगाल की जलवायु इसकी खेती के लिए अनुकूल है।
एमएसीएस-एआरआई फलों पर अनुसंधान के अखिल भारतीय कार्यक्रम के तहत भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के साथ जुड़ा है। इस कार्यक्रम के तहत उसने अंगूर की कई संकर किस्में विकसित की हैं। ये किस्में रोग रोधी होने के साथ ही बीज रहित और बीज वाली दोनों तरह की हैं।
अंगूर उत्पाद के मामले भारत का दुनिया में 12 वां स्थान है। देश में अंगूर के कुल उत्पादन का 78 प्रतिशत सीधे खाने में इस्तेमाल हो जाता है जबकि 17-20 प्रतिशत का किशमिश बनाने में, डेढ़ प्रतिशत का शराब बनाने में तथा 0.5 प्रतिशत का इस्तेमाल जूस बनाने में होता है।
देश में अंगूर की 81.22 प्रतिशत खेती अकेले महाराष्ट्र में होती है। यहां अंगूर की जो किस्में उगाई जाती हैं वे ज्यादातर रोग रोधी और गुणवत्ता के लिहाज से भी उत्तम हैं।
अंगूर की नयी किस्म एआरआई-516 अपने लाजवाब जायके के लिए बहुत पंसद की जाती है। उत्पादन लागत कम होने और ज्यादा पैदावार होने के कारण किसान इसकी खेती को लेकर बेहद उत्साहित हैं और इसलिए इसका रकबा लगातार बढ़ते हुए 100 एकड़ तक हो चुका है।
(सौजन्य से : PIB_Delhi)