बचपन के दर्द ने इस खिलाड़ी को बना दिया विश्व चैंपियन
एक हाथ के भारतीय खिलाड़ी ओलम्पियन देवेंद्र झाझड़िया...
एक हाथ से भाला फेंककर भारत को बार-बार स्वर्ण पदक दिलाने वाले ओलंपियन देवेंद्र झाझड़िया को भी, इस समय फीका ओलंपिक में धूम मचा रहे इंटरनेशनल फुटबॉल स्टॉर रोमेलु लुकाकू की तरह ही बचपन में मां की उपेक्षा और मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।
कॉलेज पहुंचने तक देवेंद्र झाझड़िया जैबलिन चैम्पियन बन चुके थे। वर्ष 1999 में उनका चयन राष्ट्रीय जैबलिन थ्रो में हुआ। तब तक वह समझ चुके थे कि जैबलिन बहुत मंहगा खेल है।
जिस तरह इंटरनेशनल फुटबॉल स्टॉर लुकाकू ने कभी बचपन की गरीबी मिटाने का संकल्प लिया था, वैसे ही कामयाब शख्सियत हैं राजस्थान के ओलम्पियन देवेंद्र झाझड़िया। फिलहाल, इन दिनो फीका विश्वकप में धूम मचाने वाले बेल्जियन स्टॉर रोमेलु लुकाकू जब बचपन में लंच के दौरान पूरा दूध न होने पर उसमें अपनी मां को पानी मिलाते हुए देखे थे, वह वाकया उनके मन पर अमिट छाप बन गया था। तभी उन्होंने निश्चय किया था कि अब तो उन्हें जरूर जिंदगी में कुछ बनकर जमाने को दिखाना है। वह अब कभी अपनी मां को ऐसी मजबूरी में जीते नहीं देखना चाहेंगे। गरीबी के कारण उन्हें अपनी मां और भाई के साथ अंधेरे कमरे में दिन गुजारने पड़े थे। उन्होंने मां से वादा किया था कि यह सब एक दिन जरूर बदलेगा। और उस दिन से वह अपने पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी पिता की राहों पर चल पड़े थे। आज दुनिया उन्हें 'गोल करने वाली मशीन' कहती है। अब तक वह 214 मैचों में 107 गोल कर चुके हैं। यह तो रही 'गोल मशीन' लुकाकू की मुश्किलों और बेमिसाल कामयाबी की एक छोटी सी दास्तान।
इसी तरह वक्त से जूझते हुए एक हाथ के भारतीय खिलाड़ी ओलम्पियन देवेंद्र झाझड़िया की जिंदगी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। चुरू (राजस्थान) के रहने वाले देवेंद्र झाझड़िया का जन्म चुरू के एक किसान परिवार में हुआ था। फुटबॉल स्टॉर रोमेलु लुकाकू की तरह उनका भी बचपन बहुत गरीबी में बीता। जब वह आठ साल के थे, एक दिन अचानक ग्यारह हजार वोल्ट का झटका खाने के बाद उन्हें अपना बायां हाथ गंवाना पड़ा। उस समय डॉक्टरों ने उनके माता-पिता से कहा था कि वह भविष्य में बाएं हाथ से अब कोई मेहनत का काम नहीं कर पाएंगे। चूंकि वह एक हाथ से अपने तीन भाइयों में सबसे कमजोर हो गए थे, इसलिए मां भी उन पर कम ध्यान देने लगीं। इसके बाद घर से स्कूल तक उन पर विशेष नजर रखी जाने लगी। उन्हें खेलने-कूदने तक नहीं दिया जाता। जब लोग उन्हें एक कमजोर व्यक्ति के रूप में देखने-मानने लगे, यह बात उन्हें अंदर तक चुभने लगी। इससे उनमें एक अजीब तरह का जुनून जड़ जमाने लगा। हायर सेकेंडरी तक वह छिप-छिप कर अपने बाएं हाथ की ताकत आजमाने के लिए बांस को जैबलिन बनाकर फेंकने लगे।
बाद में जब लोगों को पता चला, स्कूल वाले भी जान गए तो उन्हें कई प्रतियोगिताओं में जीत के परचम फहराने के मौके मिले। इस दौरान वह राज्य स्तर प्रतियोगिता तक पहुंच गए। तब तक विकलांग होने की टीस भी मन से जाती रही। कॉलेज पहुंचने तक देवेंद्र झाझड़िया जैबलिन चैम्पियन बन चुके थे। वर्ष 1999 में उनका चयन राष्ट्रीय जैबलिन थ्रो में हुआ। तब तक वह समझ चुके थे कि जैबलिन बहुत मंहगा खेल है। ग्वालियर में आयोजित प्रतियोगिता में तो वह कुछ खास करतब नहीं दिखा सके, हार गए लेकिन उसी खेल प्रतिस्पर्द्धा ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय खेल में शामिल होने का हौसला दिया। उसी वक्त वह एक अप्रवासी भारतीय रामस्वरूप आर्य के संपर्क में पहुंचे। उन्होंने उनकी फटेहाली को जानने, सुनने के बाद उन्हें खेलने के लिए एक जोड़ी जूता और सत्तर हजार रुपए का एक जैबलिन खरीद कर दिया। भविष्य में वही जैबलिन उनकी इंटरनेशनल कामयाबी का शस्त्र बना।
जैबलिन थ्रो के स्वर्ण पदक विजेता देवेंद्र झाझड़िया बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के डीआरएम रह चुके हैं। उनका एक प्रतिवाद मीडिया की सुर्खियां बन चुका है। जब पूर्व क्रिकेट कप्तान कपिलदेव ने कहा था कि हमारे देश में इस वर्ष 'राजीव गांधी खेल रत्न' देने लायक कोई खिलाड़ी नहीं दिख रहा है तो उस पर झांझड़िया ने दो टूक जानना चाहा था कि कांस्य पदक पाने वाली अंजू बाबी जार्ज को यदि ये खेल रत्न दिया जा सकता है तो उन्हें क्यों नहीं, जबकि वह पैराम्पिक में गोल्ड मेडल हासिल कर चुके हैं। वर्ष 2002 में उन्होंने पहली बार विदेश यात्री की। कोरिया में पैराएशियन गेम्स में भारत को पहली बार गोल्ड दिलाकर विश्व रिकार्ड बनाया। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनसे कभी कहा था कि यह लड़का ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतेगा।
देवेंद्र झाझड़िया ने वर्ष 2004 के पैरालम्पिक में अपना ही रिकार्ड तोड़कर गोल्ड मेडल हासिल किया। उनको वर्ष 2005 में अर्जुन अवार्ड और वर्ष 2012 में पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने वर्ष 2013 में लियोन (फ्रांस) में विश्व एथलिट चैम्पियनशिप में विश्व रिकार्ड बनाते हुए गोल्ड मेडल हासिल किया। फिर उन्होंने रियो पैरा ओलंपिक 2016 में एक और स्वर्ण पदक जीता। अगस्त 2017 में राष्ट्रपति भवन में आयोजित भव्य सम्मान समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनको राष्ट्रीय खेल दिवस पर साढे़ सात लाख रूपये का नकद पुरस्कार एवं प्रशस्ति पत्र देकर राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।
देवेंद्र झाझड़िया उर्फ पप्पू वैसे तो चुरू-राजगढ़ (राजस्थान) के रतनपुरा, डोकवा गांव के समीप झाझड़िया की ढाणी गांव के हैं लेकिन भिवानी (हरियाणा) के गांव मंढोली कलां (तीरवाला जोहड़) से उनका गहरा लगाव है। कभी इसी गांव में उनके भाले को धार और रफ्तार मिली थी। यहां उनका ननिहाल जो है। उनके करीबी दोस्त नरेंद्र, संदीप, मंजीत, कुलदीप, पवन आदि बताते हैं कि देवेंद्र का अक्सर गांव में आना जाना रहता है। वह यहां दो-दो महीने तक रुकते रहे हैं। उस दौरान वर तीरवाला जोहड़ में घंटों भाला फेंकने की प्रैक्टिस करते हैं। गांव में जब भी कोई टूर्नामेंट होता है, सूचना मिलते वहां पहुंच जाते हैं। देवेंद्र की मामी बीरमति बताती हैं कि देवेंद्र को मूंग-चावल की खिचड़ी बहुत पसंद है। मामा हवा सिंह उनको सहज, मिलनसार और मेहनती बताते हैं।
देवेंद्र झाझड़िया का मानना है कि देश में पैरा एथलीट का भविष्य अंधकारमय है क्योंकि सरकार हम जैसे एथलीटों के लिए कुछ नहीं करती है और न ही उसके पास पैरा खेलों के लिए कोई विशेष नीति है। हमारे देश में सामान्य एथलीट और पैरा एथलीटों में बहुत फर्क किया जाता है। यह खत्म होना चाहिए। हमने भी पदक जीतकर देश का मान बढ़ाया है। सरकार हमारे लिए कुछ नहीं कर रही है। पैरा एथलीटों के लिए विशिष्ट नीति होनी चाहिए। ओलंपियन को तो नौकरी मिल जाती है, लेकिन पैरा एथलीटों को काफी संघर्ष करना होता है। उन्हें पदक जीतने के बाद भी नौकरी के भटकना पड़ता है। अगर सरकार उन्हें जमीन और उचित बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराए तो वह देश के प्रतिभाशाली एथलीटों को आगे बढ़ाना चाहते हैं। समाज को भी सोच में परिवर्तन लाने की जरूरत है। अगर कोई शारीरिक रूप से अक्षम है तो उसे चारदिवारी में कैद नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे खेलों के लिए प्रेरित करना चाहिए ताकि वह देश सेवा कर सके।
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