लिटरेचर फेस्टिवल के नाम पर कॉरपोरेट जलसे
पिछले कुछ वर्षों से देश के कई एक महानगरों में लिटरेचर फेस्टिवल के नाम पर कॉरपोरेट जलसों का सिलसिला तेज होता जा रहा है। ऐसे उत्सवों को भव्य बनाने में लाखों रुपए की मदद करने वाले लोग कौन हैं, इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं लेकिन रचनाकारों में जिच जरूर है।
हर बार एक ही तरह के सेशन और एक ही तरह के लोगों और बातचीत से आगे बढ़े बिना यह काम नहीं हो सकता, न ही पहचान और चमक-दमक के दम पर आगे रहने वाले मुट्ठीभर लोगों को ही मौका देते रहने से भाषाओं और लेखन को कोई ठोस फायदा पहुंच सकता है।
जबकि हर वस्तु, विधा का व्यावसायीकरण हो रहा है, देश भर में समय-समय पर आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल भी इस आधुनिक परिपाटी से कितने अछूते रह गए हैं, प्रश्न गंभीर है। सबसे बड़ा प्रश्न तो ये है कि ऐसे भव्य, खर्चालू समारोहों के लिए पैसे देने वाले लोग कौन हैं और इसके पीछे उनका मुख्य स्वास्थ क्या रहता है? आज शासक-शायर बहादुरशाह जफ़र की जयंती और उपन्यासकार इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि पर साहित्य के साथ हो रही पैसे वालों की इस छुपेरुस्तम करतूतों से सुपरिचित हो लेने में कोई हर्ज नहीं। दरअसल, साहित्य को ‘मनोरंजन की वस्तु’ में बदल देने में मुख्य योगदान प्रकाशन, पर्यटन और होटल उद्योग का है। जरूरी साहित्यिक सरोकारों को विस्मृत कर इन चमक-दमक वाले आयोजों में सतही बहसों का बोलबाला रहता है।
वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि ऐसे आयोजनों में शामिल होने का उनको भी मौका मिल चुका है। उन्होंने देखा है कि आयोजक ऐसी माध्यमों से फंडिंग लेते हैं जिन पर घपलों के आरोप होते हैं।
ऐसे फेस्टिवल में पहुंचने वाले कवि-लेखकों को भी इस पर चिंतन-मनन के साथ सतर्कता बरतनी चाहिए। इन फेस्टिवल के लिए जिनकी तरफ से फंडिंग हो रही है, उनकी करतूतों से दुनिया वाकिफ है। उनमें कई तो सांप्रदायिक उन्माद फैलाते देखे-सुने गए हैं। भला ऐसे लोग किसी साहित्यक फेस्टिवल में भागीदारी कर क्या संदेश देना चाहेंगे। मूलतः इन फेस्टिवल में भारतीय भाषाओं के लिए पूरी जगह नहीं है, यहां इन भाषाओं से जुड़े उन ही लोगों को बुलाया जाता है जो कहीं न कहीं सेलेब्रिटी स्टेटस रखते हैं। उन्हें बुलाते हैं जिनका ग्लैमर है, जिनकी चर्चा हो रही है और यहां अंग्रेजी का बोलबाला ज़्यादा है जबकि जितने अंग्रेज़ी के लोग बुलाए जाते हैं आयोजन में, हिंदुस्तान का उतना अंग्रेजी साहित्य है नहीं. एक अनुपातहीनता है यहां। और ये एक तमाशा, एक कॉर्पोरट जलसा होकर रह गया है। ऐसा इसलिए भी है कि जितनी जगह वहां साहित्य के लिए है, उससे ज़्यादा साहित्यकारों के लिए है। उसका फोकस साहित्य और किताबों से ज़्यादा साहित्यकारों के व्यक्तित्व पर है।
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक ओम थानवी कहते हैं कि ऐसे फेस्टिवल का स्वरूप एक कार्निवाल, एक मेले जैसे होता है, जहां पूंजी भी लगती है, प्रकाशक भी आते हैं, उनके एजेंट्स भी आते हैं और लेखक भी। अब लोगों को जुटाने के लिए ग्लैमर और फिल्म वाले लोगों को भी बुलाया जाता है, टीवी एंकर्स को बुलाते हैं लेकिन ये सब मेले के रंग हैं। देहरादून में वैली ऑफ वर्ड्स (वीओडब्ल्यू) की ओर से 23 से 25 नवंबर तक साहित्य अवार्ड समारोह का आयोजित किया जा रहा है। समारोह में देश भर के कई ख्यात कवि-साहित्यकार शिरकत करेंगे। समारोह में एक सत्र कविता पाठ का भी है। उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्या समारोह का उद्घाटन करेंगी। समारोह में पांच श्रेणियों में चयनित पांच-पांच पुस्तकों पर वीओडब्ल्यू अवार्ड दिए जाएंगे। समारोह में दो दर्जन से अधिक पुस्तकों का विमोचन भी किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि शिवालिक हिल्स फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से पिछले साल से ये अवार्ड शुरू किए गए हैं।
इस बार आरईसी (रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कार्पोरेशन) के साथ मिलकर साहित्य और अवार्ड समारोह आयोजित किया जा रहा है। इस बार पुरस्कार के लिए प्रतिष्ठित प्रकाशकों की ओर से पिछले वर्ष प्रकाशित दो सौ से अधिक पुस्तकों की प्रविष्टियां विभिन्न श्रेणियों मिलीं, जिनमें से पांच पुस्तकों का पुरस्कार के लिए चयन किया गया है। इनकी घोषणा समारोह के दौरान ही की जाएगी। प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन डॉ बिबेक देवरॉय समारोह के मुख्य वक्ता होंगे। पिछले वर्ष अष्टाभुज शुक्ल की 'पानी की पटकथा' मैत्रेयी पुष्प की 'वो सफर भी था, मुकाम भी' नसिरा शर्मा की 'अदब में बाईं पसली', कमल किशोर गोयनका की 'प्रेमचंद की कहानी यात्रा और भारतीयता', जूही चोपड़ा की 'द हाउस देट स्पोक', सौरभ पंत की 'पवन : द फ्लाइंग अकाउंटेंट' , मुनव्वर राणा की ‘मीर आकर लौट गए’, संतोष चौबे को ‘जल तरंग’, कुसुम अंसल की 'परछाइयों का समयसार', आनंद हर्षुल की 'चिड़िया बहनों का भाई, बालेंदु द्विवेदी की 'मदारीपुर जंक्शन', ज्ञान प्रकाश विवेक की 'डरी हुई लड़की', गोविंद मिश्रा की 'शाम की झिलमिल' आदि को पुरस्कृत किया गया था।
इन कारपोरेट जलसों पर अनु चौधरी कहती हैं कि हम वही देखते हैं, जैसा हमारा नज़रिया होता है। वह पिछले पांच सालों से लगातार जयपुर के फेस्टिवल में शामिल हो रही हैं। पहले वह वहां एक आम श्रोता की तरह जाती थीं, अब स्पीकर और श्रोता की हैसियत से जाती हैं। हर साल आयोजन का आकार और दर्शकों की भीड़ बड़ी होती चली जा रही है। ये सच है कि शख्सियत की कशिश में श्रोता भी जुटते हैं, लेकिन अगर इसका फ़ायदा लिखनेवालों, पढ़नेवालों और प्रकाशकों को मिलता हो - या व्यापक रूप से देखें तो साहित्य को मिलता हो - तो इस पर इतनी हाय-तौबा क्यों? ये भी याद रखना चाहिए कि ऐसे उत्सवों-आयोजनों ने, और वहां आमंत्रित शख्सियतों ने साहित्य को नई पीढ़ी के लिए सरस और दिलचस्प (कुछ हद तक कूल भी) बनाया है। ऐसे आयोजनों से अगर पाठक एक भी नई किताब पढ़ने को प्रेरित हों, एक भी और नई भाषा और नई विधा को जान-समझ सकें, अपने पसंदीदा लेखक को प्रत्यक्ष सुन सकें, तो ऐसे आयेजनों के पीछे की तमाम आलोचनाएं या आरोपों का कोई मोल नहीं।
सौरभ द्विवेदी का कहना है कि हिंदी वालों को छाती पीटना बंद कर देना चाहिए। यहां कई भाषाओं के लेखक और पाठक जुटते हैं। इसलिए यहां हर भाषा के पास एक-दूसरे से सीखने का मौका होता है। प्रदीपिका सारस्वत का कहना है कि ऐसे आयोजनों में मौके तो हैं लेकिन इन मौकों को कैसे और भी बेहतर तरीके साहित्य के फायदे के लिए भुनाया जा सकता है, इस पर लगातार काम होते रहना ज़रूरी है। हर बार एक ही तरह के सेशन और एक ही तरह के लोगों और बातचीत से आगे बढ़े बिना यह काम नहीं हो सकता, न ही पहचान और चमक-दमक के दम पर आगे रहने वाले मुट्ठीभर लोगों को ही मौका देते रहने से भाषाओं और लेखन को कोई ठोस फायदा पहुंच सकता है।
दरअसल, ऐसे फेस्टिवल के माध्यम से प्रकाशकों का एक वर्ग बाजार की टोह में रहता है। साहित्य को सिर्फ बाजार के सिरे से महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए। कवि लीलाधर जगूड़ी कहते हैं कि अंग्रेजी में कोई किताब ज्यादा बिक जाए तो लेखक प्रसिद्ध हो जाता है पर हिंदी में कोई किताब बहुत कम बिके तो लेखक प्रसिद्ध हो जाता है। हिंदी कविता ने दो रिकार्ड बनाए हैं। बहुत अच्छी कविता के भी और बहुत खराब कविता के भी। आबिद सुरती कहते हैं कि मेरी बच्चों की किताबों की 20 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। कमलेश्वरजी ने कितने पाकिस्तान किताब लिखी थी, दो साल में उसकी 10 हजार किताबें बिक गईं। यदि हम अपने साहित्य में कोई कमी न आने दें तो किताब न बिकने जैसी स्थिति हमारे सामने नहीं आएगी। व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी का कहना है कि हिंदी के पाठकों का ये भ्रम दूर होना चाहिए कि जिस लेखक की किताबें जितनी कम बिकती हैं, वह उतना बड़ा होता है। अमिश त्रिपाठी का कहना है कि हिंदी सहित हर भारतीय भाषा का अपना महत्त्व है। वह अंग्रेजी में लिखते हैं लेकिन हिंदी और मराठी उनके दिल की भाषाएं हैं।
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)
यह भी पढ़ें: ये नन्हे-नन्हे लेखक अयान, निकिता और ईशान