मौत को मात देने वाले पर्वतारोही कैप्टन एमएस कोहली की अद्भुत कहानी
1931 में तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए मोहन सिंह कोहली बंटवारे का दंश झेलकर भारतीय नौसेना में हुए शामिल...
सिंधु नदी के मुहाने पर बसे हरिपुर में जन्मे कैप्टन कोहली बचपन से ही पहाडी चोटियों पर चढ़ने के रहे शौकीन...
वर्ष 1965 में एवरेस्ट को फतह करने वाले पहले भारतीय दल का नेतृत्व किया था कैप्टन कोहली ने...
वर्तमान में हिमालय पर्वतश्रृंखला की दुर्दश देखकर बेहद व्यथित होते हैं यह दिग्गज पर्वतारोही...
हरिपुर में एक पर्वतारोही के बनने की कहानी
जीवन के 84 बसंत देख चुके कैप्टन मोहन सिंह कोहली बताते हैं, ‘‘मैं मूलतः हरिपुर नाम जगह का रहने वाला बाशिंदा हूँ।’’ खैबर पख्तूनख्वा के हज़ारा इलाके में बसा हरिपुर अपने विधि रूप के फलों के लिये विश्वप्रसिद्ध है। वर्ष 1931 में कैप्टन कोहली के जन्म के समय यह इलाका उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के नाम से जाना जाता था। हरिपुर सिंधु नदी के मुहाने पर बना हुआ एक समृद्ध इलाका है। हरिपुर हिमालयन और पराकोरम पर्वतमाला से घिरा हुआ एक पहाड़ी शहर है जहां की आबादी मुख्यतः ईसापूर्व 327 में सिकंदर की विजय के बाद उसके पीछे यहां रह गये ग्रीक सैनिकों के वंशजों से भरी हुई है। हालांकि आधुनिक हरिनगर की स्थापना 19वीं शताब्दी में हज़ारा के दूसरे निजाम महाराज रणजीत सिंह के बाशिंदे जनरल हरि सिंह नलवा के द्वारा की गई थी। कैप्टन कोहली बताते हैं, ‘‘मेरे पूर्वज हरिपुर के सामने वाले पहाड़ की चोटी पर मारे गए थे और उसके बाद से वह जगह हमारे परिवार के लिये एक तीर्थ स्थान का दर्जा रखती है। जब मैं करीब साढ़े सात वर्ष का था तबसे मैं इंडस की सहायक नदियों को पार करते हुए इस पहाड़ी की चोटियों पर पहुंच जाता था और 16 वर्ष की उम्र का होने तक मैं बिना नागा ऐसा करता रहा।’’ अतीत के इतिहास से अपरिचित लोग हरिनगर को कुछ और वजहों से अधिक जानते हैं। दुनिया को दहलाने वाला आतंकी ओसामा बिन लादेन वर्ष 2004 में एबटाबाद, जो यहां से सिर्फ 35 किलोमीटर दूर है, जाने से पहले यहां पर एक अस्थायी निवास बनाकर रहता था। मजाकिया लहजे में वे कहते हैं, ‘‘यह शहर चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। मात्र 15 मिनट के छोटे से अंतराल में आप कभी एक पहाड़ी के पीछे गुम हो सकते हैं और फिर दूसरी और फिर एक और। मैं वर्ष 2004 में हरिपुर में ही था लेकिन ओसामा से कभी मुलाकात नहीं हुई।’’
हालांकि कैप्टन कोहली अपने जन्मस्थान पर अधिक समय तक नहीं रह पाए और 1947 में हुए विभाजन के फलस्वरूप उन्हें भी कई अन्यों की तरह अपना घर छोड़ना पड़ा। ‘‘पांकिस्तान में रहने वाले कई लोगों को अपने पैतृक इलाकों को छोड़ना पड़ा। कई लोग तो भूल चुके हैं और कुछ के जेहन में धुंधली यादें अभी भी जिंदा हैं। लेकिन मैं हरिपुर के साथ दिल से जुड़ा हुआ हूँ क्योंकि मेरे जीवन की तमाम उपलब्धियां हरिपुर की ही देन हैं।’’
सिकंदर के वंशज होने से लेकर विभाजन के दंश तक
वर्ष 1947 में विभाजन के समय कैप्टन कोहली मात्र 16 वर्ष के नौजवान थे और हरिपुर भी दंगों की आग में झुलसने से नहीं बचा था। उस समय तक मुस्लिम लीग बेहद मजबूत हो गई थी और साथ ही साथ पाकिस्तान की मांग भी जोर पकड़ चुकी थी। उस दौरान इस उपमहाद्वीप में बगावत के सुर बढ़ते ही जा रहे थे। ‘‘लगभग रोजाना ही सैंकड़ों लोग मारे जा रहे थे। मैं उस समय पढ़ रहा था और मेरे परिवार में इस बात को लेकर बहस चल रही थी कि हमें तुरंत सबकुछ छोड़कर भाग जाना चाहिये या मेरी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने का इंतजार करना चाहिये।’’ आखिरकार कैप्टन कोहली ने मार्च में अपनी पढ़ाई पूरी की और उनका परिवार भारत आ गया और तीन महीनों तक वे नौकरी की तलाश में भटकते रहे। ‘‘मैंने नौकरी की तलाश में 500 से भी अधिक कारखानों और दुकानों के चक्कर काटे लेकिन सबसे नौकरी के लिये इंकार कर दिया।’’ ऐसे में उनकी इस झल्लाहट को और हवा मिली जब 2 जून को आॅल इंडिया रेडियो ने घोषणा की कि मोहम्मद अली जिन्ना, जवाहर लाल नेहरू और सरदार बलदेव सिंह ने भारत के विभाजन को घोषित कर दिया है। यह सुनते ही कैप्टन कोहली और उनके पिता सरदार सुजान सिंह कोहली हरिपुर लौट गए। उस समय तक अपना मैट्रिक का नतीजा भी आ गया था और कैप्टन कोहली ने 750 में से 600 अंकर प्राप्त कर अपने जिले में पहला स्थान पाया था। अब एक नए देश के उद्गम के साथ ही एक युवा और साहसी नौजवान के लिये भविष्य के नए रास्ते खुल रहे थे। उन्हें लाहौर के प्रसिद्ध सरकारी काॅलेज जिसे अब गर्वनमेंट काॅलेज यूनिवर्सिटी के नाम से जाना जाता है में दाखिला मिल गया। ‘‘लेकिन यह खुशी सिर्फ एक सप्ताह तक ही रही।’’ अचानक बिना किसी किसी वजह के आसपास के गांवों के लोगों ने हरिपुर पर हमला कर दिया। पूर्व में एक बार महान सिकंदर इस सभ्यता को जलाकर राख कर चुका था और यहां के निवासियों को मरने के लिये छोड़ चुका था और हरिपुर के लोग अपने लोगों के द्वारा दोबारा मारे जाने का दंश झेलने को तैयार नहीं थे। ‘‘हम एक छत से दूसरी छत पर भागते रहे। हम पूरी रात छतों से छतों पर कूदते रहे और किसी तरह थाने तक पहुंचे। लोगों को मौके पर ही मारकर उनके सिर उनके घरों के बाहर लटका दिये गए।’’ कैप्टन कोहली और उनके पिता एक खानाबदोश की तरह एक कैंप से दूसरे में भटकते रहे और आखिकार वे हसन अब्दल में स्थित सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान पंजाब साहिब में पहुंचे। वहां पर एक महीना बिताने के बाद उन्हें भारत जा रहे सैंकड़ों शरणार्थियों के साथ एक मालगाड़ी में लाद दिया गया। ‘‘हमारे ऊपर स्थानीय पुलिस द्वारा हमला किया गया। ट्रेन में मौजूद 3000 लोगों में से लगभग 1 हजार की साजिशन हत्या कर दी गई।’’ इस खूनी माहौल के बीच अचानक एक और ट्रेन आकर रुकी जिसमें बलूज रेजीमेंट के जवान भरे हुए थे और तभी उस ट्रेन में कुछ समय पहले ही पाकिस्तान सेना मे शामिल हुआ मोहम्मद अयूब खान धड़धड़ता हुआ बाहर निकला।
शायद किस्मत में यही लिखा था कि आगे चलकर पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनने वाला अयूब खान प्रारंभिक दिनों में हरिपुर में कोहली परिवार का पड़ोसी हुआ करता था। उसे पहचानते ही सरदार सुजान सिंह जोर से चिल्लए, ‘‘अयूब, हमें बचाओ!’’ कैप्टन कोहली याद करते हुए कहते हैं कि खान ने तुरंत जवाब दिया, ‘‘डरो मत सुजान सिंह। मैं आ गया हूँ।’’ इसके लगभग एक दशक बाद पाकिस्तान में तख्ता पलटकर तकदीर बदलने वाले इस इंसान ने उन्हें गुजरालां तक का सुरक्षित रास्ता दिखाया और कई अन्य हमलों से बचते-बचाते आखिरकार वे लोग अक्टूबर में मध्य तक दिल्ली पहुंचने में सफल रहे। ‘‘हमनें अपने जीवन को दोबारा एक नए सिरे से शुरू किया। हमारी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी और हम वास्तव में नंगे पांव और चिथड़ों में लिपटे हुए थे।’’
आप जहां भी चले जाएं हिमालय पीछा नहीं छोड़ेगा
कैप्टन कोहली कहते हैं, ‘‘मैं 6 बार हरिपुर की यात्रा कर चुका हूँ।’’ आखिरी बार मैं वहा अयूब खान के बेटे के अतिथि के रूप में गया था और मैं उनके स्मारक पर श्रृद्धांजलि देने भी गया। मैंने उनके समारक पर बुदबुदाया, ‘‘आपने मेरी जिंदगी बचाई है। यह हरिपुर की मेरी अंतिम यात्रा है।’’
हालांकि आज भी हरिपुर कैप्टन कोहली को बेशुमार स्नेह और प्रेम करता है। वे कहते हें, ‘‘मेरे ख्याल से गांवों में रहने वाले लोग अभी भी मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान को अलग नहीं होना चाहिये था। ये नेता थो जिनकी वजह से ऐसा हुआ।’’ हालांकि इस बात को आधी सदी से भी अधिक का समय हो चुका है जब कैप्टन कोहली ने अपने मूल स्थान हिमावत के इलाके को छोड़ा था लेकिन उनका सबसे अधिक लगाव अभी भी भारत, पाकिस्तान और नेपाल के ताज में ही बसा हुआ है। भारतीय नौसेना में शामिल होते समय उन्हें बताया गया कि वे प्रत्येक दो वर्षों में भारत में घोषित किये हुए अपने गृहनगर में जा सकते हैं। ‘‘मैंने कश्मीर घाटी में स्थित पहलगांव को अपना गृहनगर घोषित किया और पहली बार वर्ष 1955 में वहां गया।’’ इस तरह से हिमालय दोबारा मेरे जीवन में वापस आ आ गए थे। कैप्टन कोहली ने जमीन से लगभग 12 हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित प्राचीन अमरनाथ की गुफा के दर्शन करने का फैसला किया और सिर्फ एक सूट ओर टाई पहने बिना गर्म कपड़ों के एक नौसैनिक गुफा तक पहुंचने में कामयाब रहा। ‘‘इस तरह से मैं एक पर्वतारोही बन गया।’’
मौत को चुनौती देने वाले पल
इसके बाद कैप्टन कोहली कोे कभी पीछे मुड़कर देखने की नौबत नहीं आई। वर्ष 1956 में उन्होंने नंदा कोट की चढ़ाई की। 17287 फिट पर स्थित प्रचीन दरारों, दर्रों और पानी के चश्मों के बीच से बहती जानलेवा तूफानी हवाओं से गुजरते हुए एक दुर्गम शिखर पर विजय पाना 50 से दशक में एक रहस्यमय आकर्षण था। ईश्वर का घर माने जाने वाले स्थान से दुनिया देखने वाले प्रारंभिक कुछ लोगों में से एक के लिये यह मौत को चुनौती देते हुए इतिहास बनाने वाला पल था।
जिस तरह से हतोत्साहित जनरल युद्ध नहीं लड़ सकते ठीक उसी तरह से अब इतिहास भी बेहद खतरनाक तरीकों को अपनाने वाले लोगों के कारनामों से नहीं लिखे जाते। वर्ष 1963 में अन्नपूर्ण 3 की यात्रा का अनुभव कैप्टन कोहली की यादों से सबसे खतरनाक है। ‘‘स्थानीय लोगों ने हमें लूटने के अलावा हमारे दो साथियों को बंधक बना लिया था लेकिन आखिरकार हम वापस आने में कामयाब रहे।’’ कुछ अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम देने के बाद कैप्टन कोहली को महसूस हुआ कि अब वे एवरेस्ट की चढ़ाई के लिये तैयार हैं।
वर्ष 1965 में अपने सफल अभियान से पहले कैप्टन कोहली दो बार इस शिखर तक पहुंचने की नाकामयाब कोशिशें कर चुके थे। एक बार तो सिर्फ 200 मीटर से और दूसरी बार वर्ष 1962 में जब से सिर्फ 100 मीटर से चूक गए। एक क्षण तो ऐसा आया था जब बेहद भयानक बर्फीले तूफान में दूसरे शिविरों के साथ संचार टूटने के बाद उनकी टीम को मृत घोषित कर दिया गया था। हालांकि वे पूरे पांच दिन बाद जीवित वापस लौटने में सफल रहे।
आखिरकार हिमावत के घर में ही इतिहास लिखा गया
आखिरकार वर्ष 1965 में कैप्टन कोहली ने ऐवरेस्ट फतह करने की दिशा में एक ऐतिहासिक अभियान का नेतृत्व किया। उनका यह अभियान भारत को इस बेहद दुर्गम चोटी को जीतने वाला चैथा देश बना देता। ‘‘हमारे पास 800 कुली और 50 शेरपा थे। शिखर पर हम कुल नौ लोग पहुंचे और यह एक नया विश्व रिकाॅर्ड था।’’ बीते पांच वर्षों में यह भारत द्वारा एवरेस्ट फतह के लिये किया गया पहला प्रयास था। इससे पहले वर्ष 1963 में आंग शेरिंग ने एक अमेरिकी अभियान के दौरान शेरपाओं का नेतृत्व किया था। आखिरकार वर्ष 1965 में उस विशेष दिन देशभर के विभिन्न हिस्सों से लाए गए 25 टन सामान के साथ कैप्टन कोहली एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचने मेें कामयाब रहे। ‘‘यह टीम सिर्फ अपनी साहस और धैर्य के चलते इस सफलता को हासिल कर पाई और हरकोई पूरे श्रेय का हकदार था। इसी वजह से जब भारत सरकार ने हमें अर्जुन पुरस्कार देने की घोषणा की तो हमने मना कर दिया। या तो यह पुरस्कार पूरी टीम को दिया जाए वर्ना किसी को भी भी नहीं।’’
आज के समय में तो अगर आप एवरेस्ट फतह करके लौटें तो सिर्फ आपके मिलने वाले और परिवारीजन ही आपका स्वागत करते हैं। एक ऐसा समय था जब पहाड़ी की चोटी पर देश का झंडा फहराना ऐतिहासिक क्षण होता था। ‘‘एयरपोर्ट पर हमारा स्वागत विशाल जनसमूह द्वारा किया गया था। मुझे संसद के दोनों सदनों को संबोधित करने के लिये कहा गया था।’’ कैप्टन कोहली का यह अभियान कई मायनों में ऐतिहासिक था। इस अभियान में एवरेस्अ पर चढ़ने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति 42 वर्षीय सोनम ग्यात्सो और सबसे कम उम्र में व्यक्ति 23 वर्षीय सोनम वाग्याल भी शामिल थे। इनकी टीम के एक और सदस्य शेरपा नवांग गोम्बु इस मोहक शिखर को दूसरी बार सफलतापूर्वक जीत रहे थे। 25 फरवरी से लेकर मई के आखिर तक उनकी यह यात्रा तीन कठिन महीनों लंबी रही।
इस टीम के सदस्यों के रूप में कैप्टन एमएस कोहली, लेफ्टिनेंट कर्नल एन कुमार, गुरदयाल सिंह, कैप्टन एएस चीमा, सीपी वोहरा, दावा नोरबू प्रथम, हवलदार बालकृष्णन, लेफ्टिनेंट बीएन राणा, आंग शेरिंग, फु दोरजी, जनरल थोंडुप, धनु, डॉ डीवी तेलंग, कैप्टन एके चक्रवर्ती, मेजर एचपीएस अहलूवालिया, सोनम वांग्याल, सोनम ग्यात्सो, कैप्टन जेसी जोशी, नवांग गोम्बू, आंग कामी, मेजर बीपी सिंह, जीएस भंगू, लेफ्टिनेंट बीएन राणा, मेजर एचवी बहुगुणा और रावत एचसीएस ने इतिहास बना दिया था।
हिमालय का पतन और अपराधबोध की भावना
‘‘मैंने बड़े स्तर पर हिमालय में ट्रेकिंग को बढ़ावा दिया।’’ हालांकि कुछ दशकों के बाद कैप्टन कोहली केा बताया गया कि इस क्षेत्र में उनके द्वारा दर्शाया गये अतिउत्साह नतीजा बहुत भयावह रहा। ‘‘हिमालय आज कचरे के ढेर से भर गया है। यह पतन की पराकाष्ठा है, वनावरण घटकर लगभग आधा रह गया और अधिकतर पहाड़ पूरी तरह से शवों से अटे पड़ हैं। कई बार मैं खुद को इस सबका दोषी मानता हूँ।’’
देश और दुनिया में हुए अभूतपूर्व व्यवसायीकरण के चलते हिमालय का समूची पर्वतश्रृंखला आज किसी पर्यटन स्थल से अधिक कुछ नहीं रह गई है। कैप्टन कोहली कहते हैं, ‘‘हिमालय को बचाने के लिये मैंने हिमालय की यात्रा का हिस्सा रहे स्व. सर एडमंड हिलेरी, हरज़ोग, जुुंकों सहित कई अन्यों से संपर्क साधा।’’ इन सबने मिलकर हिमालय की चोटियों को और विनाश से बचाने के दिशा में पहल करते हुए हिमालयन एनवायरमेंट ट्रस्ट की स्थापना की। यह पर्वतारोही अपनी राय देते हुए बताते हैं, ‘‘उस जमाने में बहुत कम अभियान हुआ करते थे। वर्तमान में आपको मानसून से पहले और बाद में 30 के करीब अभियान देखने को मिलते हैं। यह अब पैसे कमाने का साधन बन गया है और आप लोगों को हिमायल की चोटियों पर पहुंचने के लिये कतारों में लगा हुआ देख सकते हैं। यहां तक कि अगर आप शारीरिक रूप से भी सक्षम नहीं हैं तो भी आप 20 से 25 लाख रुपये खर्च करके वहां पहुंचकर कुछ शेरपाओं को अपने साथ मिलाकर और उपकरण खरीदकर यात्रा पूरी कर सकते हैं।’’
‘‘माॅउंट एवरेस्ट पर लगातार हो रहे इन अभियानों के मद्देनजर मैं और सर एडमंड हिलेरी बीते कई वर्षों से सिर्फ एक ही बात दोहराते आ रहे हैं कि एवरेस्ट को कुछ आराम दो। लेकिन गरीब देशों के लिये पैसा आखिरकार पैसा ही है। उन्हें लगता है कि हम सिर्फ भौंक रहे हैं और इसी वजह से समस्या लगातार विकराल होती जा रही है। आप कुछ नहीं कर सकते।’’
एक दिग्गज की अंतिम सलाह
कैप्टन कोहली के लिये हिमालय को इस दुर्दशा की ओर धकेले जाने देखना बेहद दर्दनाक है। उनके लिये कभी यह जगह एक बेहद शांत और उग्र दोनों तरह का स्थान होता था जिसने उन्हें 18 बार मौत का सामना करने के लिये मजबूर किया था। ‘‘आपको उस समय डर नहीं लगता क्योंकि जब आप ऊँची पहाडि़यों पर पहुंच जाते हैं तो आपको ऐसा लगता है कि आप आसमान को छू रहे हैं। आपको महसूस होता है कि आप ईश्वर के बिल्कुल नजदीक हैं और आप भौतिकवादी दुनिया से बिल्कुल कट गये हैं।’’
कैप्टन कोहली यादों में खोते हुए एक बार फिर बताते हैं, ‘‘वर्ष 1962 में, हमने तीन बार अपनी अंतिम प्रार्थना कर ली थी और हम अपनी स्थाई कब्रो को देख पा रहे थे। लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं थी। यह सब जीवन का एक हिस्सा है और जब आप ऐसी ऊँची पहाडि़यों पर चढ़ते हो तो आप भी इन प्राकृतिक ताकत का एक हिस्सा हो जाते हो।’’
उम्र के इस पड़ाव पर आकर अब उनका खुद का पोता उन्हें एवरेस्ट पर जाने की इजाजत के लिये मनाने के प्रयास करता रहता है। हालांकि इस पर्वतारोही के अपने कुछ कारण और शर्त हैं। ‘‘मैं कहता हूँ कि अगर आपको जाना ही है तो उचित तरीके से जाओ। भारत में पांच पर्वतारोही संस्थान हैं। आप पहले वहां जाकर पूर्ण रूप से प्रशिक्षित बनिये और फिर समय मिलते ही कम से कम एक अभियान का तो हिस्सा बनिये। इसके बाद उच्च प्रशिक्षण का रुख करते हुए फिर एवरेस्ट के अभियान के बारे में विचारिये।’’ अंत में कैप्टन कोहली कहते हैं, ‘‘मैं यह मानता हूँ कि जो देश अपने नागरिकों को साहसिक कामों के प्रति उत्साहित नहीं कर पाता वह कभी तरक्की नहीं कर सकता। इसलिये अगर किसी मुल्क को तरक्की की राह पर आगे बढ़ना है तो उसे अपने नागरिकों को साहिसक कामों के प्रति जागरुक करना होगा। साहसिक कार्यों की तलाश में लोग एक स्थान से दूसरे को ट्रेकिंग, वाइट वाटर राफ्टिंग या चढ़ाई करने जाते हैं। यह सदा से ही होता आया है। लेकिन जो लोग इनका हिस्सा नहीं बने हैं उनके लिये तो हम बुरे लोग हैं और हम एक बेकार के काम में लगे हुए हैं। मेरी देश को सलाह है कि आप स्कूली बच्चों को भ्रमण के लिये हिमालय पर जरूर भेजें। एक बार साहसिक कार्यों से सामना होने के बाद आप उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव देखने में सफल होंगे।’’