गरीब परिवार में जन्मे चंद्र शेखर ने स्थापित कर ली 12,500 करोड़ की कंपनी
चंद्रशेखर ने 2 लाख से शुरू किया था बिज़नेस और आज हैं 12,500 करोड़ की कंपनी के मालिक...
पश्चिम बंगाल में गरीबी की मार झेल रहीं औरतों को सशक्त बनाने के इरादे से सिर्फ 2 लाख रुपये से माइक्रोफाइनैंस कंपनी शुरू करने वाले चंद्र शेखर घोष आज हैं 12,500 करोड़ डिपॉजिट रखने वाले बैंक 'बंधन' के सीईओ...
बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले चंद्र शेखर घोष ने सिर्फ 15 साल में एक छोटी सी कंपनी को बदल दिया 'बंधन' बैंक में। बंधन बैंक की शाखाएं फैली हुई हैं पूरे भारतवर्ष में।
2001 में महिलाओं को छोटे बिजनेस शुरू करने के लिए चंद्र शोखर घोष ने माइक्रो फाइनैंस कंपनी की शुरुआत की थी। सिर्फ 15 साल में उन्होंने उस छोटी सी कंपनी को बैंक में बदल दिया। गरीबों को कर्ज देने वाली माइक्रोफाइनेंस कंपनी 'बंधन' भारत में पहली ऐसी माइक्रो फाइनैंस कंपनी है, जिसे रिजर्व बैंक द्वारा बैंकिंग का लाइसेंस मिला है। गरीबों को कर्ज देने वाली माइक्रोफाइनेंस कंपनी 'बंधन' अब एक बैंक है, जिसकी शाखाएं देश भर में हैं। खास बात यह है कि इस अद्भुद स्टोरी के हीरो चंद्र शेखर घोष, खुद एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं।
चंद्र शेखर का जन्म 1960 में त्रिपुरा के एक छोटे से गांव रामचंद्रपुर में हुआ था। उनके पिता की मिठाई की एक छोटी सी दुकान थी। 15 लोगों के संयुक्त परिवार में वह अपने छह भाई बहनों में सबसे छोटे थे। मिठाई की छोटी सी दुकान से परिवार का गुजारा काफी मुश्किल हो रहा था। दो वक्त की रोटी के लिए उनके पिता को को संघर्ष करना पड़ता था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया।
चंद्रशेखर ने अपनी 12वीं तक की पढ़ाई ग्रेटर त्रिपुरा के एक सरकारी स्कूल में की। उसके बाद ग्रैजुएशन करने के लिए वह बांग्लादेश चले गए। वहां ढाका यूनिवर्सिटी से 1978 में स्टैटिस्टिक्स में ग्रैजुएशन किया। ढाका में उनके रहने और खाने का इंतजाम ब्रोजोनंद सरस्वती के आश्रम में हुआ। उनके पिता ब्रोजोनंद सरस्वती के बड़े भक्त थे। सरस्वती जी का आश्रम यूनिवर्सिटी में ही था इसलिए आसानी से चंद्र शेखर के वहां रहने का इंतजाम हो गया। बाकी फीस और कॉपी-किताबों जैसी जरूरत के लिए घोष ट्यूशन पढ़ाया करते थे।
अपने बीते पलों को याद करते हुए चंद्र शेखर भावुक हो जाते हैं। एक मीडिया हाउस से बात करते हुए वो कहते हैं, कि जब उन्हें पहली बार 50 रुपये कमाई के मिले तो उन्होंने अपने पिता के लिए एक शर्ट खरीदी और शर्ट लेकर वह गांव गए। जब उन्होंने पिता को शर्ट निकाल कर दी तो उनके पिता ने कहा कि इसे अपने चाचा को दे दें, क्योंकि उन्हें इसकी ज्यादा जरूरत है। चंद्र शेखर बताते हैं कि ऐसी ही बातों से उन्हें सीखने को मिला कि दूसरों के लिए सोचना कितनी बड़ी बात है।
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साल 1985 उनकी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। मास्टर्स खत्म करने के बाद उन्हें ढाका के एक इंटरनेशनल डिवेलपमेंट नॉन प्रॉफिट ऑर्गैनाइजेशन (BRAC) में जॉब मिल गई। यह संगठन बांग्लादेश के छोटे-छोटे गांवों में महिलाओं को सशक्त करने का काम करता था।
घोष कहते हैं, 'वहां महिलाओं की बदतर स्थिति देखकर मेरी आंखों में आसूं आ जाते थे। उनकी हालत इतनी बुरी होती थी कि उन्हें बीमार हालत में भी अपना पेट भरने के लिए मजदूरी करनी पड़ती थी।' उन्होंने BRAC के साथ लगभग डेढ़ दशक तक काम किया और 1997 में कोलकाता वापस लौट आए। 1998 में उन्होंने विलेज वेलफेयर सोसाइटी के लिए काम करना शुरू कर दिया। यह संगठन लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए काम करता था। दूर-सुदूर इलाके के गांवों में जाकर उन्होंने देखा कि वहां कि स्थिति भी बांग्लादेश की महिलाओं से कुछ ज्यादा भिन्न नहीं थी। घोष के अनुसार, महिलाओं की स्थिति तभी बदल सकती है जब वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनें। लेकिन उस वक्त अधिकांश महिलाएं अशिक्षित रहती थीं उन्हें बिजनेस के बारे में कोई जानकारी नहीं होती थी। इसी अशिक्षा का फायदा उठाकर पैसे देने वाले लोग उनका शोषण करते थे।
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समाज में महिलाओं की खराब स्थिति को देखते हुए घोष ने महिलाओं को लोन देने के लिए माइक्रोफाइनैंस कंपनी बनाई। लेकिन उस वक्त नौकरी छोड़कर खुद की कंपनी खोलना आसान काम नहीं था। यह जानते हुए भी कि नौकरी छोड़ने पर उनकी माता, पत्नी और बच्चों को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा, उन्होंने नौकर छोड़ दी।
चंद्रशेखर घोष ने अपने साले और कुछ लोगों से 2 लाख रुपये उधार लेकर अपनी कंपनी शुरू थी। हालांकि उस वक्त उनके करीबी लोगों ने उन्हें समझाया कि वह नौकरी न छोड़ें, लेकिन घोष को खुद पर यकीन था और इसी यकीन पर उन्होंने बंधन नाम से एक स्वयंसेवी संस्था शुरू की।
जुलाई 2001 में बंधन-कोन्नागर नाम से नॉन प्रॉफिट माइक्रोफाइनैंस कंपनी की शुरुआत हुई। बंधन का ऑफिस उन्होंने कलकत्ता से 60 किमी दूर बगनान नाम के गांव में बनाया था और यहीं से अपना काम शुरू किया। जब वह गांव-गांव जाकर महिलाओं से बिजनेस शुरू करने के लिए लोन लेने की बात कहते थे, तो लोग उन्हें संदेह की निगाहों से देखते थे। क्योंकि उस वक्त किसी से कर्ज लेकर उसे चुकाना काफी दुष्कर माना जाता था। 2002 में उन्हें सिडबी की तरफ से 20 लाख का लोन मिला। उस साल बंधन ने लगभग 1,100 महिलाओं को 15 लाख रुपये का लोन बांटा। उस वक्त उनकी कंपनी में सिर्फ 12 कर्मचारी हुआ करते थे। 30 प्रतिशत की सालाना ब्याज के बावजूद उनका ब्याज जल्द ही चुकता हो गया।
2009 में घोष ने बंधन को रिजर्व बैंक द्वारा NBFC यानी नॉन बैंकिंग फाइनैंस कंपनी के तौर पर रजिस्टर्ड करवा लिया। उन्होंने लगभग 80 लाख महिलाओं की जिंदगी बदल दी।
वर्ष 2013 में RBI ने निजी क्षेत्र द्वारा बैंक स्थापित करने के लिए आवेदन आमंत्रित किए थे। घोष ने भी बैंकिंग का लाइसेंस पाने के लिए आवेदन कर दिया। बैंकिंग का लाइसेंस पाने की होड़ में टाटा-बिड़ला के अलावा रिलायंस और बजाज जैसे समूह भी थे। RBI ने जब लाइसेंस मिलने की घोषणा की, तो हर कोई हैरान रह गया था। क्योंकि इनमें से एक लायसेंस बंधन को मिला था। बजाज, बिड़ला और अंबानी के मुकाबले बैंक खोलने का लायसेंस कोलकाता की एक माइक्रोफाइनेंस कंपनी को मिलना, सच में हैरत की बात थी। 2015 से बंधन बैंक ने पूरी तरह से काम करना शुरू कर दिया।
बंधन के पास लगभग 12,500 करोड़ रुपयों का डिपॉजिट है और इसके लगभग 84 लाख कस्टमर्स हैं। घोष की कंपनी में 20,000 से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं। खास बात यह है कि इनमें से लगभग 90 फीसदी कर्मचारी ग्रामीण क्षेत्र से हैं। घोष इस बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर और चेयरमैन हैं। वह तीसरी क्लास तक के बच्चों को पढ़ाई के लिए फंड भी देते हैं।
असम, बिहार, त्रिपुरा, झारखंड जैसे प्रदेश में 39,000 से ज्यादा बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई का खर्च बंधन उठाती है। बंधन अकैडमी नाम से 7 स्कूल ऐसे भी हैं, जो काफी कम खर्चे में नर्सरी से तीसरी क्लास तक की पढ़ाई होती है। घोष का मिशन है कि पढ़ाई के रास्ते से देश की गरीबी को मिटाया जाए।