एक इंजीनियर, जिसे हो गया हिंदी कविता से प्यार
कानपुर (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले इंजीनियर सतीश चंद्र गुप्ता ने तमाम चुनौतियों को पार करके अपने लक्ष्य को हासिल किया और ‘स्लैंग लैब्स’ की स्थापना की। स्लैंग लैब्स, एक ऐसा प्रोग्राम है, जिसके जरिए ऐप्स में वॉइस कमांड का इनपुट दिया जा सकता है...
सतीश, स्लैंग लैब्स के सह-संस्थापक हैं। स्लैंग लैब्स, ऐप्स को नैचुरल वॉइस इंटरफेस उपलब्ध कराता है। स्लैंग लैब्स को सतीश ने अपने पुराने सहकर्मियों (कुमार रंगराजन और गिरधर मूर्ति) के साथ मिलकर शुरू किया था। रंगराजन और मूर्ति लिटिल आई लैब्स के भी सह-संस्थापक हैं।
सतीश का जन्म 1974 में कानपुर के पास एक गांव में हुआ और महज 12 साल की उम्र में उनकी माता जी का निधन हो गया। हालांकि, इस झटके के बाद भी उन्होंने आईआईटी, कानपुर से अपनी पढ़ाई जारी रखी। वह यहीं नहीं रुके और पोस्ट-ग्रैजुएशन के लिए वह अमेरिका चले गए। हालांकि, वह ज्यादा वक्त तक विदेश में नहीं रुके और वह देश लौट आए।
हम बात करने जा रहे हैं कानपुर (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले इंजीनियर सतीश चंद्र गुप्ता, जिन्होंने तमाम चुनौतियों को पार करके अपने लक्ष्य को हासिल किया और ‘स्लैंग लैब्स’ की स्थापना की। स्लैंग लैब्स, एक ऐसा प्रोग्राम है, जिसके जरिए ऐप्स में वॉइस कमांड का इनपुट दिया जा सकता है। सतीश, स्लैंग लैब्स के सह-संस्थापक हैं। स्लैंग लैब्स, ऐप्स को नैचुरल वॉइस इंटरफेस उपलब्ध कराता है। स्लैंग लैब्स को सतीश ने अपने पुराने सहकर्मियों (कुमार रंगराजन और गिरधर मूर्ति) के साथ मिलकर शुरू किया था। रंगराजन और मूर्ति लिटिल आई लैब्स के भी सह-संस्थापक हैं।
सतीश का जन्म 1974 में कानपुर के पास एक गांव में हुआ और महज 12 साल की उम्र में उनकी माता जी का निधन हो गया। हालांकि, इस झटके के बाद भी उन्होंने आईआईटी, कानपुर से अपनी पढ़ाई जारी रखी। वह यहीं नहीं रुके और पोस्ट-ग्रैजुएशन के लिए वह अमेरिका चले गए। हालांकि, वह ज्यादा वक्त तक विदेश में नहीं रुके और वह देश लौट आए। सतीश ने कानपुर के प्रतिष्ठित पं. दीनदयाल उपाध्याय सनातन धर्म विद्यालय से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। सतीश बताते हैं कि विद्यालय की प्रवेश परीक्षा में 900 बच्चों ने हिस्सा लिया था और सीटें थीं सिर्फ 80। सतीश ने बताया कि परीक्षा से ठीक पहले उन्हें चिकन पॉक्स हो गया और उनके परिवार वालों को जरा भी उम्मीद नहीं थी कि वह परीक्षा में पास हो सकेंगे।
सतीश की मां सिर्फ 8वीं कक्षा तक पढ़ी थीं और उनके पिता 10वीं तक। उनके पिता ने इसके बाद पॉलिटेक्निक से डिप्लोमा भी लिया। सतीश के पिता इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की दुकान चलाते थे। सतीश जब 8वीं कक्षा में थे, तब उनकी मां का निधन हो गया और वह भी दीपावली के त्योहार से ठीक 2 दिन पहले। इसके बाद सतीश के स्वभाव में बड़ा परिवर्तन आया और वह अचानक अपनी उम्र से अधिक समझदार हो गए। सतीश का एक छोटा भाई और एक छोटी बहन भी है।
सतीश कहते हैं कि उन्हें जिंदगी में यह बात बहुत पहले पता लग गई थी कि पैसा क्या कर सकता है। वह बताते हैं कि उन्होंने यह भी जाना कि पैसे की कमी में भी आदमी क्या-क्या कर सकता है। सतीश जब 7वीं कक्षा में थे, तब उनके अंदर विंग कमांडर बनने का सपना पनपा और उन्होंने सैनिक स्कूल की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने सारे राउंड पार कर लिए, लेकिन मेडिकल राउंड पार नहीं कर सके। इस मौके पर उन्हें पता चला कि वह कलर ब्लाइंड हैं और वह आर्मी के लिए उपयुक्त नहीं हैं। वह बताते हैं कि उन्हें अब भी याद है कि एक अधिकारी ने उनसे कहा कि यह असफलता अंत नहीं है और अब वह दूसरा कोई विकल्प चुन सकते हैं। सतीश को इस सदमे से बाहर आने में दो साल का समय लगा। सतीश के पिता ने उनसे कहा कि वह उन्हें सिर्फ बीटेक करने के लिए पैसे देंगे, बीएससी की डिग्री के लिए नहीं।
प्रोग्रामिंग में सतीश की रुचि
सतीश ने 12वीं की बोर्ड परीक्षा में मेरिट हासिल की और इसके बाद आईआईटी जेईई की परीक्षा पी पास कर ली। उन्होंने दो खास वजहों से आईआईटी, कानपुर में दाखिला लिया। एक तो यह कि वह अपने घर के पास रह सकें, क्योंकि उनके पिता को उनकी जरूरत है और दूसरी वजह यह कि, आईआईटी, कानपुर से बीटेक करना सबसे सस्ता था। सतीश बताते हैं कि ये वजहें न होतीं तो वह आईटी-बीएचयू के कम्प्यूटर साइंस में दाखिला लेते या फिर कानपुर में मैथ्स डिपार्टमेंट में।
हालांकि, उन्हें कानपुर आईआईटी से केमिकल इंजीनियरिंग करनी पड़ी। इंजीनियरिंग के चार सालों के दौरान सतीश काफी निराश रहते थे कि क्योंकि उन्हें लगता था कि वह जिंदगी में और भी बेहतर मुकाम हासिल कर सकते थे। हालांकि, सतीश खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें समय पर पता लग गया कि प्रोग्रामिंग में उनकी खास रुचि है। वह कम्प्यूटर लैब्स में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताने लगे। उस वक्त विद्यार्थियों को पास्कल (PASCAL) सिखाया जाता था। आईआईटी में रेग्युलर कोर्स के अलावा उन्होंने इकनॉमिक्स में तीन और कम्प्यूटर साइंस में चार कोर्स भी किए।
क्योंकि पैसे से बड़ी है खुशी
स्नातक करने के बाद सतीश को इन्फोसिस में नौकरी ली गई। दो साल नौकरी करने के बाद 1999 में उन्होंने मास्टर डिग्री करने का फैसला लिया। सतीश याद करते हुए बताते हैं कि अगर वह इन्फोसिस में काम करते रहते तो वह वर्तमान की अपेक्षा अधिक धनवान होते, लेकिन हां इतने खुश और संतुष्ट न होते।
सतीश कैसे बने कंपाइलर
सतीश मास्टर डिग्री के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन गए। वहां पर उन्होंने कम्प्यूटर साइंस की पढ़ाई की। उन्होंने जानबूझकर एक सामान्य फैकल्टी का चुनाव किया। वहां पर उन्होंने तीन प्रफेसरों से संपर्क साधा। सतीश को रुचि थी उनके काम में। उस वक्त तक सतीश को कंपाइलिंग की बेहद कम जानकारी थी, क्योंकि उनकी बेसिक शिक्षा सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग और टूलिंग में थी। इसलिए सतीश ने प्रफेसर जॉन बोवलैंड के सानिध्य में बेसिक कंपाइलर कोर्स में दाखिला ले लिया। प्रफेसर जॉन ने सतीश की जिंदगी को नई दिशा दी। सतीश ने अगले एक दशक तक इसी दिशा में काम किया।
जब सतीश ने अपना मास्टर डिग्री प्रोजेक्ट बनाया तब फिलिप वैडलर (प्रिंसिपल डिजाइनर ऑफ हैस्कल) ने उस कॉमेंट किया और कहा कि उनकी अप्रोच काफी क्रांतिकारी है। सतीश उस वक्त इस बात का मतलब नहीं समझे। हालांकि, बाद में सतीश को समझ आया कि उनके काम का प्रभाव इस वजह से ही काफी कम हो गया।
+1 सिन्ड्रोम
मास्टर डिग्री करने के बाद सतीश ने यूएस में सरवेगा नाम के स्टार्टअप के साथ काम किया। यह स्टार्टअप ऐसे उपकरण बनाता था, जिन्हें सिस्टम के साथ इस्तेमाल कर उनका लोड कम किया जा सके। यहां पर सतीश 4 लोगों की छोटी सी टीम के साथ काम करते थे। हालांकि, कुछ वक्त बाद सतीश ने इस कंपनी को छोड़ दिया और शुरू होने के एक साल बाद ही इंटेल ने इस स्टार्टअप को खरीद लिया।
सतीश लंबे वक्त तक अमेरिका में नहीं रहना चाहते थे। वह +1 सिंड्रोम से बचना चाहते थे, जिसका मतलब है कि यूएस में एक साल रहने के लिए आपको 1 मिलियन डॉलर कमाने के बारे में सोचना पड़ता है और यह चेन कभी खत्म नहीं होती। इसलिए वह भारत वापस आ गए। वह बताते हैं कि 2003 में भारत में ग्रोथ रेट काफी अच्छा थी और प्रफेशनल्स भारी संख्या में भारत लौट रहे थे। सतीश मानते हैं कि भारत लौटने का उनका फैसला बिल्कुल ठीक था। कुछ महीनों बाद ही उन्होंने अपनी क्लासमेट से शादी कर ली और आईबीएम की रैशनल सॉफ्टवेयर कंपनी (बेंगलुरु) में काम करने लगे।
कोडिंग और कंपाइलिंग के प्रति रुझान
शुरूआत में सतीश ने रैशनल रोज टीम में काम किया और इसके बाद वह रैशनल प्यूरीफाई में चले गए। वैसे तो प्यूरीफाईप्लस एआईएक्स टीम के साथ काम करते हुए सतीश काफी सराहना हासिल की, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर यूएएल के साथ काम करने को वह बेहद संतोषजनक अनुभव मानते हैं।
आईबीएम के साथ काम के दौरान संतोषजनक अनुभव
आईबीएम के साथ काम के दौरान संतोष ने एक प्रोजेक्ट के लिए एक अलग कम्प्यूटर लैंगवेज बनाई, लेकिन आईबीएम में उनके साथी ने उनसे कहा कि उनका यह तरीका बिजनेस के नजरिए से उपयुक्त नहीं है और इसकी वजह है लागत। आपको लोगों को नई लैंग्वेज के लिए प्रशिक्षण देना पड़ेगा, नया ईकोसिस्टम बनाना पड़ेगा आदि और इस तरह यह एक महंगी और अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया साबित होगी।
सतीश को इस बात का अहसास हुआ कि वह इंजीनियरिंग/तकनीकी क्षेत्र तक ही सीमित हैं, जो जरूरी तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। इसके बाद उन्होंने एक आईडीई सिस्टम बनाया, जो मॉडल के लिए निर्धारित कोड सिस्टम पर आधारित था। वह इस प्रोजेक्ट के लिए 6 सदस्य चुन सकते थे, लेकिन उन्होंने 4 सदस्यों से ही काम चलाया क्योंकि उन्हें उनके हिसाब से योग्य सदस्य नहीं मिल सके।
सतीश का प्रोजेक्ट 2011 में समाप्त होना था और उन्हें इस बात का अहसास हो रहा था कि कंपनी में अब चीजें बदल रही हैं। अब कंपनी का काम रैशनल सॉफ्टवेयर की अपेक्षा आईबीएम की तर्ज पर चल रहा है। उनको इस बात का भी पता चला कि वह कंपाइलर पर अधिक काम कर रहे हैं और भारत में वह इस क्षेत्र में अधिक समय तक काम नहीं कर सकते।
शोध क्षेत्र में प्रवेश
सतीश द्वारा कॉन्फ्रेंस में 2010 में प्रोटोटाइप दिखाने के बाद से ही माइक्रोसॉफ्ट रिसर्च सतीश को अप्रोच कर रहा था। माइक्रोसॉफ्ट ऐसे लोगों की तलाश में था, जो रिसर्च में काम करना चाहते हों। अंततः 2011 में सतीश ने इंटरव्यू दिया और उन्हें ऐसा ऑफर दिया गया, जो वह ठुकरा न सके। उन्हें यहां पर पहला प्रोजेक्ट मिला, विंडोज फोन का एनर्जी प्रोफाइलर। उन्होंने डेटा कलेक्शन और डेटा अनालिसिस इंजन बनाया। तय किया गया कि इसे 2012 में रिलीज किया जाएगा। सतीश ने एक ऐसे प्रोजेक्ट पर भी काम किया, जिसकी मदद से आप जीपीएस की अनुपस्थिति में भी लोकेशन का पता लगा सकते हैं।
माइक्रोसॉफ्ट में काम के दौरान उन्हें अहसासा हुआ कि रिसर्च की अपेक्षा उन्हें इंजीनियरिंग में अधिक मजा आता था। वह बताते हैं कि माइक्रोसॉफ्ट रिसर्च में काम के दौरान उनकी बौद्धिकता में इजाफा जरूर हुआ, लेकिन वह कुछ बड़ा करना चाहते थे और इसको ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने अमेरिका छोड़ा। सतीश ने माइक्रोसॉफ्ट छोड़ दिया और उस वक्त उनके पास दूसरी नौकरी का ऑफर भी नहीं था। उस वक्त वह व्यक्तिगत उलझनों और समस्याओं से भी गुजर रहे थे।
वेक-अप कॉल
कम्प्यूटर साइंस के अलावा उन्हें दो और चीजों से प्यार था। इनमें से एक थी हिमालय पर ट्रेकिंग। 2012 में वह आधे रास्ते में ही बीमार हो गए और उन्हें इस बात का काफी मलाल हुआ। वह बताते हैं कि इस घटना के कुछ वक्त बाद उनकी काम करने की इच्छा ही नहीं हुई। वह अपनी बेटी के साथ समय बिताना चाहते थे और इसलिए ही उन्होंने काम से ब्रेक लिया। उन्होंने ऐमजॉन में अप्लाई किया, लेकिन जब कंपनी से ऑफर लेटर आया तो उन्होंने इनकार कर दिया। इसके बाद कंपनी के एक बड़े अधिकारी सतीश से बात करते व्यक्तिगत तौर पर उन्हें तैयार किया और सतीश राजी हुए। सतीश को इस बात का मलाल है कि उन्होंने जो सोचा, वह उस पर कायम नहीं रह सके। ऐमजॉन में उन्हें बहुत से नए अनुभव मिले। कुछ वक्त बाद उन्होंने ऐमजॉन छोड़ने का फैसला लिया।
सही काम का चुनाव
सतीश ने कहा कि उन्होंने काम से ब्रेक लेकर सही किया और वह अपनी छोटी बेटी को बड़ा होता देख सके। कुछ वक्त बाद ओला की शुरूआत हुई और अपने संपर्क के जरिए मिली जानकारी के बाद उन्होंने ओला से जुड़ने का फैसला लिया। ओला के साथ सतीश ने 9 महीने बिताए और वह इस वक्त को इस रूप में याद करते हैं कि इस दौरान बहुत सी असफलताएं मिलीं, लेकिन लगातार ग्रोथ भी मिली।
ओला में उन्होंने मुख्य रूप से काम कियाः
1. यूजर के डेटा के आधार पर ग्राहक के घर और ऑफिस का पता लगाना और उसे सुरक्षित रखना।
2. फ्लिपकार्ट और ऐमजॉन डिमांड पर आधारित बिजनस थे, लेकिन ओला सप्लाई आधारित। कैब के इस्तेमाल पर प्रॉफिट निर्भर करता था। इसलिए सतीश ने टीम के साथ उन इलाकों और समय विशेष पर काम करना शुरू किया, जिन पर कैब बुकिंग अधिक होती हैं।सतीश मानते हैं कि वह बहुत स्मार्ट लोगों के साथ कर रहे थे, लेकिन संगठन में हो रही अनियमितताओं के चलते उन्होंने काम जारी नहीं रखने के बारे में सोचा।
नई शुरूआत- स्लैंग लैब्स
सतीश ने जनवरी, 2017 में ओला कंपनी छोड़ दी और कई संगठनों के साथ बतौर सलाहकार काम करने लगे। पिछले 3 से 4 सालों में पहली बार वह अपने जीवन को सुलझे ढंग से जी रहे थे। अप्रैल और जून, 2017 में क्रमशः उनकी मुलाकात गिरिधर मूर्ति और कुमार रंगराजन से हुई। सतीश को महसूस हुआ कि वॉइस, एक रोचक और चुनौतीपूर्ण समस्या है। जुलाई, 2017 में टीम ने स्लैंग लैब्स का काम शुरू कर दिया। सतीश कहते हैं कि इंटरनेट और ऐप के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए वॉइस कमांड सबसे आसान तकनीक है। इसका प्रोटोटाइप तैयार हो चुका है।
मूल्य हैं बेहद जरूरी
सतीश मानते हैं कि सच और ईमानदारी से बड़ा कुछ भी नहीं है। वह कहते हैं कि वह हजार बार असफल होने के बाद भी खड़े हो सकते हैं, लेकिन झूठ बोलने या बेईमानी करने के बाद नहीं। सतीश बताते हैं कि उन्होंने जिंदगी के अधिकतर महत्वपूर्ण निर्णय दिल से लिए हैं, दिमाग से नहीं। सतीश मानते हैं कि आप सिर्फ अपने काम के बल पर नहीं चल सकते। उन्हें हिन्दी कविताओं से खास लगाव था। 2012 के बाद वह नियमित तौर पर लिखने लगे। वह चाहते हैं कि एक दिन वह अपनी कविताएं प्रकाशित करें। यही है उनका दूसरा प्यार। वह कहते हैं कि उन्होंने इसे काफी देर से शुरू किया। बैक इंजरी से उबरने के बाद 34 साल की उम्र में उन्होंने अपने इस रुझान को वक्त देना शुरू किया।सतीश अक्सर अपने बारे में कहते हैं कि वह एक प्रोग्रामर, एक नौसिखिए कवि और एक आधे-अधूरे ट्रैकर।
सतीश का संदेश
नए सॉफ्टवेयर डिवेलपर्स को उनका साफ संदेश हैः ‘सीखने से कभी मत शर्माओ। परिवर्तन होगा, चाहे वह आपको पसंद हो अथवा नहीं। जो आपको आज बेहद जरूरी लगता है, वह 5 साल बाद किसी काम का नहीं होगा। बढ़ते वक्त के साथ आपको जिंदा रहने के लिए अधिक साहस और प्रयास की जरूरत होगी।’
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