कम आमदनी वाले लोगों को शुगर जैसी बीमारी से निजात दिलाने की कोशिश, 'Sucre Blue'
निम्न आय वर्ग को मधुमेह से लड़ने के लिए सशक्त करने का अनूठा प्रयास:"Sucre Blue"
मिसौरी के ग्रामीण इलाके के एक चर्च कैंप में रहने वाली एरिन लिटिल सिर्फ १० वर्ष की थी जब उन्हें टाइप-१ के मधुमेह से पीड़ित होने का पता चला था. उनकी अस्पतालों या विशेषज्ञ डॉक्टरों तक कोई पहुँच नहीं थी. अपनी २१ साल की उम्र होने तक उन्हें कोई अन्य मधुमेह का रोगी भी नहीं मिला. उनका अनुभव भारत के ६ करोड़ मधुमेह रोगियों से भिन्न नहीं है. मधुमेह विश्व की ८% आबादी को प्रभावित करता है, और जैसा कि अनुमान है यदि यह संख्या भारत में ८ करोड़ तक पहुँचती है तो यह विश्व में सर्वाधिक होगी.
इस रोग कि भयावहता को देखते हुए लिटिल ने "Sucre Blue" की गैर लाभकारी संस्था की स्थापना की है. यह संस्था विश्व भर में मधुमेह जैसे चिरकारी रोगों के कम आय वाले रोगियों को सस्ते निदान और देखभाल की पहुंच प्रदान कराती है. यह संगठन सस्ती दर पर मधुमेह और ह्रदय रोग जिनमें की कई संकेतक एक जैसे होते हैं, के लिए रक्त-जांच से लेकर कम दामों में दवा एवं इलाज उपलब्ध कराती है.
“Sucre Blue” एक फ़्रांसिसी मुहावरा है, जोकि सदमा और ब्लू शुगर, मधुमेह का अन्तराष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह दोनों का द्योतक है. इस कार्यक्रम की पहल बंगलौर के बाहर एक गाँव में हुई. इस गाँव में लिटिल बिना किसी पूर्व नैदानिक अनुभव वाली महिलाओं को मधुमेह, उच्च रक्तचाप तथा हृदय तथा रक्तवाहिकाओं संबंधी रोगों की पहचान करके २ डॉलर प्रतिदिन से कम आय वाले रोगियों को सस्ते उपचार देने का प्रशिक्षण दे रही है भारत के कर्नाटक राज्य में मधुमेह रोगियों का प्रतिशत लगभग १५ है लेकिन लिटिल द्वारा संचालित एक सर्वे में बंगलोर के बाहर के कुछ गाँवों में यह ३० प्रतिशत तक भी है. बड़े शहर के किसी अस्पताल तक जाने के खर्च और असुविधा से बचने और स्वयं की देखभाल को और अधिक प्रबंधनीय और अधिक किफायती बनाने के लिए “Sucre Blue” के सेवा के हिस्से के रूप में हर समुदाय से एक "पीयर लीडर" बनाया गया है. स्थानीय विशेषज्ञता के लिए “Sucre Blue” ने बंगलोर के जनसंजीवनी डायबेटिक क्लीनिक के साथ सहभागिता स्थापित की है, जोकि अमीर गरीब सभी को एक समान चिकित्सा सुविधा मुहैय्या कराती है. अपनी इस पहल में लिट्ल ने महिलाओं को एक लाभ-मॉडल प्रशिक्षण भी दिया है जिस से कि वो अपना स्वयं का रोजगार कर सकें. लिटिल ने बताया-" अपने इस पायलट प्रोजेक्ट में हम सूक्ष्म वित्त की संभावना तलाश रहे हैं ताकि महिलाएं अपनी स्वयं की सम्बंधित सामग्री खरीद कर लाभ कमा सकें. हमें कोई लाभ हो या ना हो, लेकिन हमें यह देख कर बहुत प्रसन्नता होगी कि भारत में महिलाएं इस से कुछ पैसे कमा कर अपने परिवार की मदद कर पा रहीं हैं. महिलाओं को प्रोत्साहन देने का कोई भी अवसर महत्वपूर्ण होता है." इस मिशन के लिए लिटिल के जूनून की वजह उनका खुद का एक टाइप-१ डायबिटिक होना है. " मैं स्वयं की चिकित्सा करते हुए एक बहुत मुश्किल दौर से गुजरी हूँ. और चिकित्सा तक पहुँच और सस्ती देखभाल की कमी के मेरे इस अनुभव से ही मुझे प्रेरणा मिली है." वो बताती है. "मैं एक बहुत ही रूढ़िवादी पृष्ठभूमि से हूँ और मैं अपने दोस्तों से अपना यह रोग छुपाती थी. इस दकियानुसी समाज में जब कभी आप इस तरह की बीमारी से पीड़ित हों तो जानकारी और जागरूकता के आभाव तथा कलंक के कारण कई तरह के सवाल पैदा हो जाते है, जैसे कि क्या मेरी बेटी कि शादी होगी? क्या मधुमेह की रोगी कभी माँ बन पाएगी? यहाँ भारत में भी ठीक उसी तरह की समस्या एवं प्रश्न हैं.
"अपना ध्यान रखने के लिए के संघर्ष के दौरान ही उन्होंने अमेरिका तथा विदेशों में मधुमेह की समस्या के समाधान की तलाश प्रारम्भ कर दी थी.और इस समस्या की विकरालता, विशेषकर चीन और भारत में हैरान और चकित देने वाली थी. “Sucre Blue”की अवधरणा मूल रूप से लिटिल के कुछ मित्रों ने जो नार्थवेस्टर्न केलॉग स्कूल ऑफ़ बिजनेस के छात्र हैं, अनुसन्धान के बाद २०१० में दी थी. भारत में सामाजिक उद्यमिता की एक फ़ेलोशिप के दौरान उन्होंने इस मॉडल की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी थी. लिटिल के पूर्ववर्ती अनुभव में एक सामाजिक उद्यम की सह स्थापना के साथ ही अमेरिका में एक दवा कम्पनी को परामर्श देना भी शामिल है. अपने अनुसन्धान से लिटिल ने पाया कि कम आय के समुदाय पर ध्यान केंद्रित कर के हम ऐसे डायबेटिक जनसँख्या को लक्ष्य कर पायेंगें जो अभी भी इस से सम्बंधित देखभाल और चिकित्सा सेवा से वंचित हैं.सामान्य धारणा यह है कि कार्यालयों में काम करने वाले माध्यम वर्ग के लोग ही मुख्य रूप से मधुमेह से प्रभावित होते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि औसत २ से ४ डॉलर प्रतिदिन कमाने वाले अर्ध शहरी लोग डायबिटीज रोगियों की सबसे तेजी से बढ़ती जनसंख्या है. और यह समुदाय बचाव की कमी के कारण इस रोग की जटिलताओं से पीड़ित है. नगरीय मध्यम वर्ग की कम से चिकित्सा प्रणाली के किसी भी प्रकार तक कुछ पहुँच है, जिस से की वो बीमारी की जटिलताओं से बचे रह पाते हैं और अपनी इस समस्या का प्रबंधन कर पाते है जबकि कम आय वाले समुदाय के पास यह विकल्प नहीं होता है. भारतीय खान-पान जिसमें में स्टार्च और शर्करा की अधिकता होती है, भी समस्या का हिस्सा है. विशेष रूप से घर पर, अपने खान-पान के प्रबंधन को लेकर भारतियों की जद्दो-जहद से लिट्ल हमदर्दी रखती है." मैं महसूस करती हूँ कि मेरा पालन-पोषण और खान-पान, विशेष रूप से अमेरिका के दक्षिणी हिस्से में, भारतीय परिवारों से बहुत मिलता-जुलता था, जहाँ कि माँ रोटी या ब्राउनी जो भी बनाये बच्चों से उसे खा लेने की अपेक्षा की जाती है." वो बताती है.
भारत में इस तरह की दीर्घकालिक बीमारियों की देखभाल की स्पष्ट आवश्यकता होने की बावजूद भी “Sucre Blue” की शुरुआत कर पाना बहुत आसन नहीं था." मैं यह जरूर कहना चाहूंगी कि एक अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्था की शुरुआत करना बहुत मुश्किल है
क्योंकि सर्वोत्तम प्रथाएं और अभ्यास के विषय में अधिक जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं. लिटिल बताती हैं.
अनेकों चुनौतियों के बाद भी उनका ध्यान अपने मिशन के प्रति केंद्रित है.
"इंद्रधनुष के सिरे पर सोने से भरा कोई पात्र हो यह आवश्यक नहीं है. पर आपको इसके लिए वास्तव में समर्पित होना होगा."
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