Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

शब्दों के आईने में रुपहले पर्दे पर किताबें

वो अनोखी फिल्में जिन्होंने किताबों से निकल कर फिल्मी पर्दें पर धूम मचाई...

शब्दों के आईने में रुपहले पर्दे पर किताबें

Sunday September 17, 2017 , 5 min Read

जब कहानी पर आधारित फिल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना। भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहब फाल्के ने बनाई जो भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक 'हरिशचंद्र' पर आधारित थी।

फिल्म तीसरी कसम में राजकपूर के साथ वहिदा रहमान

फिल्म तीसरी कसम में राजकपूर के साथ वहिदा रहमान


 भीष्म साहनी के भारत विभाजन पर केंद्रित उपन्यास ‘तमस’ पर उसी नाम से डायरेक्टर गोविंद निहलानी करीब चार घंटे की फिल्म बना चुके हैं। इससे पहले इसी पर टीवी सीरियल भी बना, जो काफी लोकप्रिय हुआ।

 साहित्यिक कृतियों पर ढेरों फिल्में बनीं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ आधिकांश का ऐसा हश्र हुआ कि मुंबइया फिल्मकार हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से गुरेज करते हैं।

जो कविता में है, कहानी में है, उपन्यासों में है, चित्रों और हमारे चारो ओर के जीवन जगत की प्रकृति में है, वहीं करीने से उतर आता है छोटे-बड़े पर्दे पर। इस पर्दे पर अपने शब्दों का ठिकाना पाने के लिए देश के तमाम नामवर कवि-साहित्यकार सुखद-दुखद आमदरफ्त में रहे हैं। प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी तक, गोपाल सिंह नेपाली से गोपाल दास नीरज तक। कोई कामयाब रहा, किसी को अकारथ लौटना पड़ा। ऐसे जाने कितने नाम, कितने सीरियल, कितनी फिल्में। आज भी वह सिलसिला जारी है लेकिन नए रंग-ढंग में।

छोटे-बड़े पर्दे पर साहित्य और इतिहास की समझ को प्राथमिकता देते हुए मनोरंजन की दुनिया में दर्शकों को ले जाने के एक अलग तरह के हुनरमंद हैं डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी। एक बार उन्होंने स्वतंत्र फ़िल्म पत्रकार रविराज पटेल से बातचीत करते हुए कहा था कि यह हमारा दुर्भाग्य रहा है कि भारत के दर्शकों में अभी तक उस तरह की ऐतिहासिक चेतना नहीं आई है कि वह ऐतिहासिक फिल्मों को हाथों हाथ लें या उनको देखें। अभी हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह रोमांटिसिज़्म का है। भारत की तमाम प्रारंभिक फ़िल्में इतिहास या साहित्य से आई हैं। उसके बाद एक ऐसा दौर आया जब हमने इतिहास और साहित्य को सिनेमा से हटा दिया लेकिन भविष्य में भी ऐसा होगा, यह ज़रुरी नहीं है।

साहित्य में भी एक लेखक पहले उन चरित्रों और उस कथा के साथ जी चुका होता है और उस कथा में समाज का इतिहास छुपा होता है। जैसे ‘मुहल्ला अस्सी’ या ‘काशी का अस्सी’ के लेखक काशीनाथ सिंह ने भी कहीं न कहीं वर्षों तक उस कथा को जीने के बाद, उन पात्रों से परिचित होने के बाद उसे पुस्तक में ढाला है। एक फिल्मकार के होने के नाते मुझे जो अच्छा लगता है। उसे दर्शकों तक ले जाने का प्रयास करता हूँ। इसलिए मुझे लगता है कि मेरा काम कठिन होता है और कठिन इसलिए भी होता है कि जिन लोगों ने उसे पढ़ा होगा, हालाँकि उनकी संख्या बहुत कम होती है, उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना होता है। दूसरी कठिनाई यह होती है कि आम तौर पर जो मसाला हिंदी फ़िल्में हैं, उनमें जो मसाले होते हैं, वह इन कहानियों में नहीं होते, लेकिन इन कहानियों में कुछ वैसी विशिष्ट बातें होती हैं, जो मुझे लगता है कि दर्शकों को सुनाना ज़रुरी है। इसलिए हम घूम कर वापस साहित्य और इतिहास पर ही काम करने आ जाते हैं।

इकबाल रिजवी के शब्दों में सच तो यह भी है कि हिंदी में साहित्यिक कृतियों पर सबसे कम सफल फिल्में बन पाई हैं। हालाँकि सिनेमा और साहित्य दो पृथक विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक संबंध बहुत गहरा है। जब कहानी पर आधारित फिल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना। भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहब फाल्के ने बनाई जो भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक 'हरिशचंद्र' पर आधारित थी। साहित्यिक कृतियों पर ढेरों फिल्में बनीं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ आधिकांश का ऐसा हश्र हुआ कि मुंबइया फिल्मकार हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से गुरेज करते हैं। साल भर में मुश्किल से कोई एक फिल्म ऐसी होती है, जो किसी साहित्यिक कृति को आधार मानकर बनाई गई हो।

फिर भी सिलसिला है तो, है। आज भी कई एक फिल्म डायरेक्टर हिन्दी के लोकप्रिय उपन्यासों और कहान‍ियों को परदे पर उतारने की कोशिश करते रहते हैं। भीष्म साहनी के भारत विभाजन पर केंद्रित उपन्यास ‘तमस’ पर उसी नाम से डायरेक्टर गोविंद निहलानी करीब चार घंटे की फिल्म बना चुके हैं। इससे पहले इसी पर टीवी सीरियल भी बना, जो काफी लोकप्रिय हुआ। ऐसे ही बीआर चोपड़ा ने डायरेक्शन में कमलेश्वर के उपन्यास 'पति पत्नी और वो' पर बनी फिल्म में संजीव कुमार, विद्या सिन्हा और रंजीता कौर मुख्य भूमिका में रहीं।

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर भी पहले फिल्म बनी, फिर सीरियल। उससे पहले उनकी कहानी पर मोहन भावनानी के निर्देशन में 'मिल मजदूर' फिल्म बनी। मुंशी जी की और भी कई कृतियां पर्दे पर उतरीं। उनकी कहानियों ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’ पर सत्यजीत रे ने फिल्में बनाईं। उनके उपन्यास 'गबन' पर ऋषिकेश मुखर्जी ने फिल्म बनाई। दुखद वाकया ये है कि जो प्रेमचंद मुंबई जाकर दुखी मन से लौटे, उनकी रचनाओं को तो फिल्म नगरी के दिल में जगह मिल गई, लेकिन उन्हें नहीं।

साहित्यिक कृतियों पर आधारित अन्य भी कई फिल्में उल्लेखनीय होंगी। जैसेकि चंद्रधर शर्मा गुलेरी की चर्चित कहानी ‘उसने कहा था’, धर्मवीर भारती का उपन्यास 'सूरज का सातवाँ घोड़ा', फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ (फिल्म तीसरी कसम), मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास 'कसप', धारावाहिक 'हम लोग', 'बुन‍ियाद' आदि। हिन्दी फिल्मों में देश के प्रस‍िद्ध कवि-शायरों की भी उस जमाने से ही आवाजाही रही है, जब से हिंदी चित्रपट ने जन जीवन में उपस्थिति बनाई। ऐसे कवि-साहित्यकारों में ही शरतचंद्र, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', शैलेंद्र, राजेंद्र सिंह बेदी, गोपालदास नीरज, कमलेश्वर, फणीश्वरनाथ रेणु, फिराक गोरखपुरी आदि के नाम आते हैं।

यह भी पढ़ें: शम्मी कपूर! तुमसा नहीं देखा