इन व्यवसाइयों ने साबित किया, सफलता के लिए "मुंह में चांदी का चम्मच" लेकर पैदा होने की ज़रूरत नहीं
कई बड़े ऑन्रप्रन्योर्स ऐसे हैं, जो पैसे और कमाई के मामले में दुनिया के सबसे शीर्ष लोगों की फ़ेहरिस्त में शुमार हैं, लेकिन अगर हम उनकी पुरानी ज़िंदगी को खंगाले तो हमें पता चलेगा कि वे बेहद ग़रीब पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं।
वॉलमार्ट के फ़ाउंडर सैमुअल वॉल्टन, वॉट्सऐप के को-फ़ाउंडर जैन काउल, कार्नेगी स्टील के फ़ाउंडर ऐड्रयू कार्नेगी और ऐसे ही कई ख़रबपति बिज़नेसमैन ऐसे हैं, जिन्होंने फ़र्श से अर्श तक का सफ़र तय किया।
भारत में भी ऐसे कई ऑन्त्रप्रन्योर्स हैं, जो ग़रीब परिवार में पैदा हुए और इसके बाद विपरीत हालात से जूझते हुए लंबे संघर्ष के बाद सफलता के पायदान पर पहुंचे। उदाहरण के तौर पर हम धीरूभाई अंबानी की कहानी ले सकते हैं। वह अपने गांव में फ़्राइड स्नैक्स बेचा करते थे और आज रिलायंस इंडस्ट्रीज़ किस मुक़ाम पर है, यह हम सभी जानते हैं।
योरस्टोरी ने ऐसे ही 10 लोगों की कहानियां चुनी हैं, जो छोटे और मध्यम स्तर के व्यवसायी हैं और जिन्होंने आर्थिक तंगी से उभरकर सफलता की नई इबारत गढ़ी।
तुषार जैन- हाई स्पिरिट
एक समय था जब स्टॉकब्रोकिंग स्कैम में अपने पिता के सबकुछ गंवा देने के बाद तुषार मुंबई की सड़कों पर बैग बेचने के लिए मजबूर थे, लेकिन तुषार ने आशावादी सोच का दामन कभी नहीं छोड़ा। तुषार और उनके पिता ने अपनी छोटी सी बैग कंपनी को स्कूल बैग, कॉलेज बैग, डफ़ल बैग, बिज़नेस और लैपटॉप केस आदि बेचने वाली एक बड़ी कंपनी के रूप में विकसित किया।
तुषार के नेतृत्व में 2012 में इसका नाम हाई स्पिरिट कमर्शल वेंचर्स रखा गया। बूटस्ट्रैप्ड फ़ंडिंग से शुरू हुई कंपनी को बेहद लोकप्रियता मिली और यह भारत की चौथी सबसे बड़ी बैगपैक्स और लगेज बनाने और बेचने वाली कंपनी के रूप में उभरी। तुषार बताते हैं, "पिछले साल 7 मिलियन बैग्स बेचकर हम बैगपैक सेगमेंट में भारत के सबसे बड़े ब्रैंड के रूप में सामने आए।" कंपनी का रेवेन्यू 250 करोड़ रुपए है और इसका मुख्यालय मुंबई में है। कंपनी के पूरे देश में 10 रीजनल ऑफ़िस भी हैं।
भावेश भाटिया- सनराइज़ कैंडल्स
भावेश भाटिया की आंखें जन्म से ही कमज़ोर नहीं थीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी नज़र कमज़ोर पड़ने लगी। उन्हें जन्म से ही रेटिना मस्क्यूलर डेटेरियोरेशन की बीमारी थी और वह हमेशा से ही जानते थे कि समय के साथ उनकी नज़र कम होती चली जाएगी। 23 साल की उम्र तक उनकी आंखों ने लगभग पूरी तरह से जवाब दे दिया।
वह एक होटेल मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे और अपनी मां के इलाज के लिए पैसे बचा रहे थे, जो कैंसर से पीड़त थीं। तमाम जद्दोजहद के बाद भी वह अपनी मां को नहीं बचा सके। इसके बाद उन्होंने मोमबत्ती का व्यवसाय शुरू किया। वह रोज अगले दिन की मोमबत्तियों का स्टॉक तैयार करने के लिए 25 रुपए बचाते थे।
आज की तारीख़ में सनराइज़ कैंडल्स एक दिन में 25 टन वैक्स (मोम) का इस्तेमाल करते हुए विभिन्न प्रकार की मोमबत्तियों के 9 हज़ार डिज़ाइन्स तैयार करता है। कंपनी यूके से मोम ख़रीदती है। रिलायंस इंडस्ट्रीज़, रैनबैक्सी, बिग बाज़ार, नरोडा इंडस्ट्रीज़ और रोटरी क्लब जैसे नाम उनकी क्लाइंट लिस्ट में शामिल हैं। भावेश न सिर्फ़ एक सफल व्यवसायी हैं, बल्कि वह एक अच्छे खिलाड़ी भी हैं।
सिड नायडू- सिड प्रोडक्शन्स
2007 में 11 साल के सिड नायडू ने अपने पिता को खो दिया। बेंगलुरू के रहने वाले सिड ने अपने परिवार के सहयोग के लिए स्कूल के समय से पहले न्यूज़पेपर बांटने का काम शुरू किया। वह हर महीने 250 रुपए कमाते थे, लेकिन इतनी कमाई में परिवार के हालात कहां सुधरने वाले थे।
नायडू फ़ैशन इंडस्ट्री में काम करना चाहते थे और मॉडल बनना चाहते थे, लेकिन उनके परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह असंभव सा जान पड़ता था। 10वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद, नायडू ने ऑफ़िस बॉय की नौकरी शुरू की और अब वह हर महीने 3 हज़ार रुपए कमा लेते थे।
10 सालों के बाद 2017 में उन्होंने अंततः तय किया कि वह व्यवसायी बनेंगे और इतने समय में उन्होंने फ़ैशन इंडस्ट्री में जो नेटवर्क बनाया है, उसका लाभ उठाएंगे। उन्होंने सिड प्रोडक्शन्स लॉन्च किया। यह वेंचर फ़ैशन शूट्स, मॉडल ग्रूमिंग, आर्ट डायरेक्शन, प्रिंट ऐड्स, टीवी कमर्शल्स आदि सर्विसेज़ मुहैया कराता है।
नायडू बताते हैं,
"मिन्त्रा मेरा सबसे बड़ा क्लाइंट है, लेकिन मैं फ्यूचर ग्रुप के फ़ैशन ब्रैंड्स जैसे कि स्कलर्स, जेलस 21, इंडिगो नेशन आदि के साथ भी काम करता हूं। मेरी कंपनी लाइफ़स्टाइल और मैक्स के साथ भी जुड़ी हुई है। उन्होंने मुझे फ़ैशन शूट्स, स्टोर लॉन्च और इन्फ़्लूएंसर्स इवेन्ट्स के लिए हायर करना शुरू किया था। मैं प्रॉपिंग और सेट डिज़ाइन में अच्छा काम कर लेता हूं और मेरे क्लाइंट्स को मेरा काम काफ़ी पसंद आता है।"
महज़ एक साल में नायडू का बिज़नेस तेज़ी के साथ बढ़ा और 1.3 करोड़ रुपए का रेकॉर्ड टर्नओवर हासिल किया। नायडू का लक्ष्य अब 3 करोड़ रुपए का टर्नओवर है।
चीनू कला- रूबन्स ऐक्सेसरीज़
चीनू कला मुंबई की रहने वाली हैं और उन्होंने पारिवारिक समस्याओं के चलते 15 साल की उम्र में ही अपना घर छोड़ दिया था। चीनू बताती हैं,
"जब मैंने अपना घर छोड़ा, मुझे नहीं पता था कि मेरा भविष्य कैसा होगा। मैं घर-घर जाकर चाकू और कोस्टर्स बेचा करती थी और मेरी एक दिन की कमाई सिर्फ़ 20 रुपए थी। ऐसे विपरीत हालात में भी मेरा भरोसा कायम था कि सफलता के लिए मेहनत ही एकमात्र विकल्प है।"
चीनू दिन में सिर्फ़ एकबार ही खाना खा पाती थीं, लेकिन उनके सपने बड़े थे और आंखों में आगे बढ़ने की चाहत थी। इस चाहत के बल पर ही उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी।
2014 में उन्होंने तय किया कि वह रूबन्स ऐक्सेसरीज़ की शुरुआत करेंगी क्योंकि उनके पास कॉर्पोरेट मर्चैंडाइज़िंग का अनुभव था और साथ ही, फ़ैशन के प्रति उनका ख़ास रुझान था।
रूबन्स ऐक्सेसरीज़ की शुरुआत 3 लाख रुपए के बूटस्ट्रैप्ड कैपिटल की मदद से बेंगलुरु के फ़ीनिक्स मॉल में एक 70 स्कवेयर फ़ीट के कियॉस्क से हुई। 5 साल के समय में उनकी कंपनी का टर्नओवर 7.5 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है।
मुनिस्वामी डैनियल- शैरन टी
मुनिस्वामी डैनियल ने अपनी स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ दी थी। अपना बिज़नेस शुरू करने से पहले वह ड्राइवर थे। मुनि बताते हैं कि वह ड्राइविंग के ज़रिए महीने में 6 हज़ार रुपए कमा लेते थे। मुनि ने अपनी यह नौकरी छोड़ दी क्योंकि उन्हें रविवार को भी काम पर बुलाया जाने लगा। वह हंसते हुए कहते हैं,
"मैं रविवार को चर्च जाना नहीं छोड़ सकता और चूंकि मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था, इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी।"
इस समय तक डैनियल के भाई बेंगलुरु में एक इलेक्ट्रिकल शॉप चला रहे थे। डैनियल बताते हैं कि मेरा भाई दुकान बंद करने के बारे में योजना बना रहा था और उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं एक टी शॉप खोलूं। 2007 में डैनियल ने शैरन टी की शुरुआत की। आज की तारीख़ में, शैरन टी के क्लाइंट्स की लिस्ट काफ़ी लंबी हो चुकी है और पिछले 6 महीनों में इस वेंचर ने बेंगलुरु में तीन नई ब्रांच शुरू की हैं।
अपनी पहली ब्रांच से कंपनी रोज़ाना 1 हज़ार कप चाय बेचती है। दूसरा स्टोर, जो कुछ महीनों पहले ही शुरू हुआ है, वहां से रोज़ाना 500 कप चाय बेची जाती है। आईटीसी फ़ैक्ट्री में स्थित सबसे नई ब्रांच से रोज़ाना 200 कप चाय बिक रही है।
रेणुका आराध्य- प्रवासी कैब्स
रेणुका के पिता पुजारी थे और लोगों के घरों में पूजा-अनुष्ठान करवाकर मिलने वाली दक्षिणा से गुज़ारा करते थे। रेणुका भी अपने पिता के साथ जाया करते थे। रेणुका अपनी ट्रैवल/ट्रांसपोर्ट कंपनी शुरू करना चाहते थे। लंबे समय तक नौकरी करने के बाद उन्होंने पैसे जोड़े और कुछ कारें ख़रीद लीं।
इंडियन सिटी टैक्सी नाम की कंपनी बुरे दौर से गुज़र रही थी और बिकने को तैयार थी, लेकिन इस समय तक रेणुका को कंपनियों के विलय और अधिग्रहण की कोई ख़ास जानकारी नहीं थी। उन्हें सिर्फ़ इतना पता था कि पैसा दे दो और कंपनी ले लो। उन्होंने 2006 में 6.5 लाख रुपए में कंपनी ख़रीद ली और उसे प्रवासी कैब्स नाम से आगे बढ़ाया। वह बताते हैं कि कंपनी ख़रीदने के लिए उनके पास जितनी कारें थीं, उन्हें सब बेचनी पड़ीं।
आज प्रवासी कैब्स के पास 700 कैब्स हैं। ऐमज़ॉन जब चेन्नई में अपना सेटअप जमा रहा था, तब रेणुका ने ऐमज़ॉन इंडिया को भी अपने साथ बतौर क्लाइंटर जोड़ा। इतना ही नहीं, वॉलमार्ट और जनरल मोटर्स जैसे बड़ी कंपनियां भी प्रवासी कैब्स की क्लाइंट्स लिस्ट में शामिल हैं। आज रेणुका की कंपनी में 150 कर्मचारी हैं और उनकी कंपनी का टर्नओवर 30 करोड़ रुपए है।
श्रीकांत बोला- बोलंट इंडस्ट्रीज़
जब श्रीकांत बोला पैदा हुए तो गांव में उनके पड़ोसियों ने उनके माता-पिता से कहा कि अपने बच्चे को मार दें ताकि भविष्य में आने वाली तकलीफ़ों से वे ख़ुद को बचा सकें। वजह थी कि वह अंधे थे और लोग कहते थे कि ऐसे बच्चा किस काम का।
आज 23 साल बाद श्रीकांत कहते हैं कि अगर दुनिया उनकी तरफ़ देखकर कहें कि वह कुछ नहीं कर सकते तो वह पलटकर जवाब देंगे कि वह कुछ भी कर सकते हैं।
श्रीकांत हैदराबाद की बोलंट इंडस्ट्रीज़ के फ़ाउंडर और सीईओ हैं। यह संगठन, अशिक्षित और दिव्यांग लोगों को हायर करता है और उनकी मदद से ईको-फ़्रेडली और आसानी से डिस्पोज़ की जा सकने वाली पैकिजिंग सामग्री बनाता है। आज श्रीकांत की कंपनी की क़ीमत 50 करोड़ रुपए है। वह अपने आपको दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब इंसान मानते हैं क्योंकि उनके माता-पिता पूरे साल में सिर्फ़ 20 हज़ार रुपए कमाते थे, लेकिन उन्होंने गांव वालों की बेमानी सलाहों को नहीं माना और उन्हें पूरे प्यार के साथ बड़ा किया।
राजा नायक- एमसीएस लॉजिस्टिक्स, अक्षय एंटरप्राइज़ेज़, जल बेवरेजेज़
राजा नायक कर्नाटक के एक ग्रामीण-दलित परिवार से ताल्लुक रखते हैं। 17 साल की उम्र में राजा घर छोड़कर भाग गए थे। राजा कहते हैं,
"मुझे बहुत कम उम्र में ही इस बात का एहसास हो गया था कि मेरे माता-पिता मुझे और मेरे चार भाई-बहनों को स्कूल नहीं भेज सकते। मेरे पिता की आय स्थिर नहीं थी और घर चलाने के लिए मां को अपनी चीज़े बेचनी पड़ जाती थीं।"
एक दिन राजा अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे और इस दौरान उन्हें कुछ पैसे पड़े मिले। इन पैसों से उन्होंने 1978 में आई फ़िल्म 'त्रिशूल' देखी, जिसमें अमिताभ बच्चन फ़र्श से अर्श तक पहुंचते हैं। इस फ़िल्मी कहानी से प्रेरित होकर उन्होंने ऑन्त्रप्रन्योर बनने का फ़ैसला लिया।
आज राजा कई एंटरप्राइज़ेज़ चला रहे हैं और उनका कुल टर्नओवर 60 करोड़ रुपए है। इसमें इंटरनैशनल शिपिंग ऐंड लॉजिस्टिक्स बिज़नेस एमसीएस लॉजिस्टिक्स, ख़ास तरह के पैकिजिंग मटीरियल बनाने वाला अक्षय एंटरप्राइज़ेज़, पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर बनाने वाली कंपनी जल बेवरेजेज़ और वेलनेस स्पेस में काम कर रही पर्पल हेज़ शामिल हैं। पर्पल हेज़ के बेंगलुरु में तीन ब्यूटी सलून और स्पा सेंटर्स हैं।
मोइज़ गबजीवाला- ज़ेफिर टॉयमेकर्स
ज़हीर गबजीवाला 1980 के दशक में एक बंद पड़े हुए लिफ़्ट शाफ़्ट में एक छोटी सी टॉय वर्कशॉप चलाते थे। उनके पास काम करने के लिए एक ढंग की जगह किराए पर लेने के पैसे नहीं थे। रॉ मटीरियल जुटाने के लिए वह लोगों को उन्हें उधार पर सामान देने के लिए तैयार करते थे।
उनके बेटे मोइज़ बताते हैं,
"मैं जब 10 साल का था, मेरे पिता ने मुझे अपने काम में शामिल कर लिया। यह मेरी पहली नौकरी थी और स्कूल के बाद मैं बाक़ी कर्मचारियों के साथ अपने पिता की फ़ैक्ट्री में काम करता था।"
मोइज़ के पिता ने अपनी मेहनत के बल पर ज़ेफिर टॉयमेकर्स कंपनी की खड़ी की, जो आज की तारीख़ में 15 करोड़ रुपए का बिज़नेस वेंचर है। मोइज़ 2014 में कंपनी के सीईओ बने।
संदीप पाटिल- ई-स्पिन नैनोटेक
संदीप पाटिल के गांव में स्कूल, हॉस्पिटल, पोस्ट ऑफ़िस और सामान्य रोड ट्रांसपोर्ट जैसी मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव था। वह बताते हैं कि उनके गांव पिंप्री के रहवासियों के लिए ये सुविधाएं आज भी दूर की कौड़ी हैं। उन्होंने जानकारी दी कि उनके गांव की 75 प्रतिशत आबादी आदिवासी समुदाय की है। ऐसे विपरीत हालात में पले-बढ़े संदीप पाटिल आज केमिकल इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट हैं।
संदीप के माता-पिता भी बहुत कम पढ़े-लिखे थे और मजदूरी करते थे। संदीप बताते हैं कि उनके परिवार में उनके अलावा, दो छोटे भाई-बहन और माता-पिता थे और कई बार ऐसा होता था कि सबको भूखे पेट ही सोना पड़ता था। ऐसे में भी संदीप ने अपने पढ़ने की इच्छा को ज़िंदा रखा। उनके चाचा ने पढ़ाई पूरी करने में उनकी मदद की। निजी रूप से कुछ प्रोजेक्ट्स काम करने और दोस्तों से बिज़नेस संबंधी सलाह लेने के बाद, संदीप ने 2010 में ई-स्पिन लॉन्च किया। इसके लिए उन्हें आईआईटी, कानपुर के एसआईडीबीआई इनक्यूबेशन ऐंड इनोवेशन सेंटर से मदद मिली।
संदीप कहते हैं,
"मैं कम क़ीमत वाले नैनो-फ़ाइबर यूनिट्स के रिसर्च और डिवेलपमेंट क्षेत्र में काम करके बहुत ख़ुश था। इनकी कई उपयोगिताएं हैं। आज ई-स्पिन के साथ कई बड़ी रिसर्च लैब्स बतौर क्लाइंट जुड़ी हुई हैं और कंपनी का सालाना टर्नओवर 2.2 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है।"