उत्तर प्रदेश के सतेंदर सिंह ने बचपन में आँखें खोकर भी, अपनी मजबूरी को बनाया मजबूती और पास की सिविल सेवा की परीक्षा
जिला अमरोहा, उत्तर प्रदेश के सतेंदर सिंह ने दृष्टिबाधित होने के बावजूद सिविल सेवा की परीक्षा 714वीं रैंक लेकर पास की, लेकिन बेहतर रैंक के लिए वे अभी भी प्रयासरत हैं। हाल में वे एड हॉक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। तमाम परेशानियों के बावजूद मंजिल की ओर निरंतर और अविराम अग्रसर सतेंदर की ये प्रेरणादायक कहानी सुनें हमारे गेस्ट ऑथर और आईएएस अधिकारी निशान्त जैन की ज़ुबानी, सीरीज 'रुक जाना नहीं' में...
सतेंदर सिंह का जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले के एक ग्रामीण क्षेत्र में हुआ। जब वे क़रीब डेढ़ साल के थे, तब निमोनिया बीमारी में एक ग़लत इंजेक्शन दिए जाने से उनकी आँखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गयीं।
सतेंदर बताते हैं,
"बचपन में मैं हमेशा कोशिश करता था कि मैं अपनी उम्र के बच्चों को उनके खेलों में हरा सकूँ। इस तरह मैं अपनी दृष्टिहीनता के असर को कम करने की कोशिश करता था। मेरे भीतर असीम ऊर्जा हिलोरे मार रही थी और मैं भी बिलकुल अपने साथियों की ही तरह पढ़ना और लिखना चाहता था। मैं उन्हें वर्णमाला और पहाड़े दोहराते हुए सुनता और उनसे पहले इन चीज़ों को याद कर लेता।"
सतेंदर आगे बताते हैं,
"खेलते वक़्त भी मेरे ये दोस्त मेरी मदद किया करते थे। कभी आवाज़ करने वाली बॉल के सहारे मैं क्रिकेट खेलता तो कभी मुझे कबड्डी या दौड़ का रेफ़री बना दिया जाता ताकि मैं उनके झगड़े निपटा सकूँ। इस सब के दौरान मैंने हमेशा यह महसूस किया कि बच्चों का रवैया बड़ों की अपेक्षा ज़्यादा सहयोगात्मक होता है।"
सतेंदर के माता-पिता उनकी पढ़ाई को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। उनकी माँ को कभी पढ़ने-लिखने का मौक़ा नहीं मिला और पापा बस पाँचवीं कक्षा तक पढ़ सके। उन्हें ऐसा कोई तरीक़ा मालूम नहीं था जिससे एक दृष्टिबाधित बच्चे को पढ़ाया जा सके।
वे कहते हैं,
"एक दिन मेरे दिल्ली में नौकरी करने वाले एक चाचा डीटीसी की बस में यात्रा कर रहे थे। उन्होंने एक नेत्रहीन लड़के को हाथ में एक घड़ी पहने देखा, जो घड़ी को छूकर वक़्त बता रहा था। मेरे चाचा यह देखकर चौंके और उन्होंने उससे पूछ-ताछ की। इस तरह वह नेत्रहीन बच्चों का एक स्कूल ढूँढ पाए और यह मेरी ज़िंदगी का एक ‘टर्निंग प्वाइंट’ बन गया।"
इस स्कूल ने उनकी ज़िंदगी बदल दी। इस स्कूल में तकनीक का प्रयोग कर पढ़ाई को आसान बनाया जाता था। उन्होंने पहले ब्रेल लिपि पढ़ी और फिर कम्प्यूटर पर काम किया। वे रिकॉर्डेड किताबों के ओडियो ख़ूब सुनते थे। सतेंदर को इस स्कूल ने आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता सिखायी और सिखाया कि ‘कुछ भी नामुमकिन नहीं है।’
सतेंदर के अनुसार,
"आज जब मैं मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हमारी ज़िंदगी में छोटी से छोटी घटना बड़ा बदलाव ला सकती है। न मेरे चाचा उस दिन उस लड़के को ब्रेल घड़ी पहने देखते और न मुझे कभी मेरा ब्लाइंड स्कूल मिलता। आज मैं एक 27 साल का नेत्रहीन किसान होता, जो ख़ुद को अपने साथियों के सामने स्मार्ट दिखाने की कोशिश किया करता था।"
सतेंदर जब बारहवीं कक्षा में थे, तो उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफ़ंस कॉलेज के बारे में सुन रखा था। बारहवीं के बाद वे उस कॉलेज में प्रवेश लेना चाहते थे और आख़िरकार उनका उसी कॉलेज में प्रवेश हो गया।
सतेंदर कॉलेज के दिनों को याद करते हुए बताते हैं,
"मेरा स्कूल एक हिंदी मीडियम स्कूल था, जबकि मेरा कॉलेज पूरी तरह अंग्रेज़ी मीडियम। मुझे इंग्लिश ज़्यादा नहीं आती थी। जितनी देर में मैं अपने शिक्षक के कहे एक वाक्य का मतलब समझ पाता, उतने में तो वे शिक्षक पाँच वाक्य और बोल दिया करते थे। मैंने इंग्लिश बोलने की कोशिश की तो बहुत से दोस्तों ने मेरा मज़ाक़ उड़ाया। मेरे कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि मैं ये कॉलेज ड्रॉप कर किसी हिंदी मीडियम कॉलेज में प्रवेश ले लूँ। पर मैं वहीं पढ़ना चाहता था।"
इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने एक तरीक़ा निकाला। उन्होंने NCERT की किताबें इंग्लिश में डाउनलोड कीं। ये किताबें उन्होंने हिंदी में पढ़ रखीं थीं, अब यही किताबें (तीसरी कक्षा से लेकर बारहवीं तक) इंग्लिश में पढ़नी शुरू कीं।
जैसे-जैसे वे इन किताबों को पढ़ते-पढ़ते बारहवीं की इतिहास की किताब तक पहुँचे, तब उन्होंने पाया कि उन्हें क्लास के लेक्चर समझ में आने लगे थे। शिक्षक भी अब उनकी प्रशंसा करने लगे थे। उन्होंने जेएनयू से राजनीति और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध में एम.ए. किया।
सतेंदर आगे बताते हैं,
"मैं हमेशा एक प्रोफ़ेसर बनना चाहता था। मुझे 2015 में एक मौक़ा मिल भी गया। मुझे श्री अरबिंद कॉलेज में एड हॉक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर चुन लिया गया। तब से अब तक मैं वहाँ पढ़ा रहा हूँ। पढ़ाना मेरा पसंदीदा काम है और मैं इसे एंजोय भी कर रहा था। इस बीच लगा कि ज़िंदगी में कुछ अधूरापन है। मुझे महसूस हुआ कि मुझे अपने लिए एक ज़्यादा व्यापक पहचान की ज़रूरत है, जिससे मैं चीज़ों में सकारात्मक बदलाव ला सकूँ। मैंने बचपन से विकलांगता के बारे में तमाम पूर्वाग्रह, पक्षपात और स्टीरियो टाइप देखे थे, जिन्हें मैं तोड़ना चाहता था। तो मैंने सिविल सेवा की परीक्षा दी।"
सिविल सेवा की कोशिशों के बारे में वे कहते हैं,
"पहले प्रयास को गम्भीरता से न लेने के कारण असफल रहा। दूसरे प्रयास में काफ़ी बीमार रहने से नुक़सान हुआ और इंटरव्यू कॉल पाने से 9 अंकों से चूक गया। तीसरे प्रयास में सब ठीक रहा और 714वीं रैंक मिली। अब मुझे लगता है कि मुझे बेहतर रैंक मिल सकती थी। इसलिए, अब पूरी तरह समर्पित होकर दोबारा प्रयास करूँगा।"
अंत में सतेंदर कहते हैं,
"हम सबकी कुछ कमियाँ और सीमाएँ होती हैं। पर उन्हें अपनी राह में बाधा न बनने दें।"
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