फिराक गोरखपुरी जन्मदिन विशेष: मीर और गालिब के बाद सबसे बड़े उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी
गरज कि काट दिए जिंदगी के दिन ऐ दोस्त, वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में। इन लाइनों को लिखने वाले महान शायर फिराक गोरखपुरी का आज जन्मदिन है।
उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में गद्य की भी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
वह छह दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बना लिए गए। उनकी उर्दू शायरी का एक बड़ा वक्त रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता का रहा, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए।
आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के लिए राह बनाने वालों में अग्रणी शायर फ़िराक गोरखपुरी अपने दौर के मशहूर लेखक भी, आलोचक भी और शायर भी थे। शुरू में फ़िराक़ साहब की शायरी के हुस्न को लोगों ने उस तरह नहीं पहचाना क्योंकि वो रवायत से थोड़ी हटी हुई शायरी थी। जब उर्दू में नई ग़ज़ल शुरू हुई तो लोगों ने फ़िराक़ की तरफ़ ज़्यादा देखा-
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें, और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।
28 अगस्त को गोरखपुर (उ.प्र.) में जनमे नामवर शायर फिराक गोरखपुरी का मूल नाम रघुपति सहाय था। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनो में उन्होंने पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बावजूद आई.सी.एस. की नौकरी छोड़कर आजादी के संघर्ष में कूद पड़े थे। डेढ़ वर्ष तक जेल की सलाखों के पीछे रहे। बाद में 1930 से 1959 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। उन्हें 1970 में उनकी किताब ‘गुले नगमा’ को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रवायत को तोड़ा, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। उनके शब्दों में देश-दुनिया का दुख-दर्द निजी अहसासात में शायरी बनकर ढला। फिराक साहब ने अपने साहित्यिक सफर की शुरुआत ही गजल से की थी-
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं, जिंदगी तून तो धोखे पे दिया है धोखा।
उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। वह छह दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बना लिए गए। उनकी उर्दू शायरी का एक बड़ा वक्त रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता का रहा, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रची-बसी रही।
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं।
फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों हैं। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में गद्य की भी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
रेहान फजल फिराक साहब से जुड़ा मुंबई का एक वाकया कुछ इस तरह बयान करतें हैं- 'किस्सा मुम्बई का है। वहाँ फ़िराक़ के कई दोस्त थे। उनमें से एक थीं मशहूर अभिनेत्री नादिरा। उस दिन फ़िराक़ सुबह से ही शराब पीने लगे थे और थोड़ी देर में उनकी ज़ुबान खुरदरी हो चली थी। उनके मुँह से जो शब्द निकल रहे थे वो नादिरा को परेशान करने लगे थे। जब वो फ़िराक़ के इस मूड को हैण्डिल नहीं कर पाईं तो उन्होंने इस्मत चुग़ताई को मदद के लिए फ़ोन किया। जैसे ही इस्मत नादिरा के फ़्लैट में घुसीं, फ़िराक़ की आँखों में चमक आ गई और बैठते ही वो उर्दू साहित्य की बारीकियों पर चर्चा करने लगे। नादिरा ने थोड़ी देर तक उनकी तरफ़ देखा और फिर बोलीं, 'फ़िराक़ साहब आपकी गालियाँ क्या सिर्फ़ मेरे लिए थीं?' फ़िराक़ ने जवाब दिया, 'अब तुम्हें मालूम हो चुका होगा कि गालियों को कविता में किस तरह बदला जाता है।' इस्मत ने बाद में अपनी आत्मकथा में लिखा, 'ऐसा नहीं था कि नादिरा में बौद्धिक बहस करने की क्षमता नहीं थी। वो असल में जल्दी नर्वस हो गईं थीं।'
अदा-अदा में अनोखापन, देखने-बैठने-उठने-चलने और अलग अंदाज़े-गुफ़्तगू, बेतहाशा गुस्सा, अपार करुणा, शर्मनाक कंजूसी और बरबाद कर देने वाली दरियादिली, फ़कीरी और शाहाना ज़िंदगी का अद्भुत समन्वय था उनमें।
फ़िराक़ की शख़्सियत में इतनी पर्तें थी, इतने आयाम थे, इतना विरोधाभास था और इतनी जटिलता थी कि वो हमेशा से अपने चाहने वालों के लिए पहेली बन कर रहे। वह थे आदि विद्रोही, धारा के विरुद्ध तैरने वाले बाग़ी। अदा-अदा में अनोखापन, देखने-बैठने-उठने-चलने और अलग अंदाज़े-गुफ़्तगू, बेतहाशा गुस्सा, अपार करुणा, शर्मनाक कंजूसी और बरबाद कर देने वाली दरियादिली, फ़कीरी और शाहाना ज़िंदगी का अद्भुत समन्वय था उनमें -
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं, तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं।
उनका जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोफ़ेसर एमेरिटस शमीम हनफ़ी से लगभग एक दशक का साथ रहा। उनके बारे में हनफ़ी साहब रेहान फजल को बताते हैं- 'साहित्य की बात एक तरफ़, मैंने फ़िराक़ से बेहतर बात करने वाला अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। मैंने उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य के चोटी के लोगों से बात की है लेकिन फ़िराक़ जैसा किसी को भी नहीं पाया। इस संदर्भ में मुझे सिर्फ़ एक शख़्स याद आता, डाक्टर सेमुअल जॉन्सन, जिन्हें बॉसवेल मिल गया था, जिसने उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड की। अगर फ़िराक़ के साथ भी कोई बॉसवेल होता और उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड करता तो उनकी वैचारिक उड़ान और ज़रख़ेज़ी का नमूना लोगों को भी मिल पाता। शुरू में फ़िराक़ को उर्दू साहित्य जगत में अपने आप को स्थापित करवा पाने में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी-
आप थे हंसते-खेलते मयखाने में फ़िराक, जब पी चुके शराब तो संजीता हो गए।
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