लंदन फैशन वीक में चार चांद लगाने पहुंची भारत की आदिवासी महिलाओं की पारंपरिक कढ़ाई
लम्बानी समुदाय कर्नाटक में अनुसूचित जाति के तौर पर पहचाना जाता है। लगभग 1.1 मिलियन लम्बानी जनजाति ज्यादातर उत्तरी जिलों की बंजर जगहों पर रहती है। कुछ राज्यों में लम्बानी समुदाय को बंजारा भी कहा जाता है।
महालक्ष्मी मिरर और शिल्प आधारित आजीविका को बढ़ावा देने वाले गैर-लाभकारी संगठन सांडुर कुशाला कला केंद्र की कढ़ाई यूनिट में सीता बाई लम्बानी महिलाओं के समूह में सबसे पुरानी हैं। 65 वर्षीय सीता बाई के हाथ कढ़ाई में निपुण हैं।
कर्नाटक में लम्बानी जनजातीय समुदाय द्वारा कसूथी केल्सा (kasuthi kelsa- एक प्रकार का कढ़ाई कार्य) के साथ सजाए गए आधुनिक कपड़े युनिक होते हैं। इसने स्थानीय महिलाओं को पारंपरिक शिल्प को जीवित रखने में बड़ी मदद की है। महालक्ष्मी मिरर और शिल्प आधारित आजीविका को बढ़ावा देने वाले गैर-लाभकारी संगठन सांडुर कुशाला कला केंद्र की कढ़ाई यूनिट में सीता बाई लम्बानी महिलाओं के समूह में सबसे पुरानी हैं। 65 वर्षीय सीता बाई के हाथ कढ़ाई में निपुण हैं। सफेद कपड़े के टुकड़ों पर सिलाई करती सीता की आंखें पास में खेल रहे अपने पोते-पोतों पर हमेशा टिकी रहती हैं। कसूथी केल्सा कढ़ाई लम्बानी समुदाय की एक युनिक कला है।
कौन है लम्बानी जनजाति?
लम्बानी समुदाय कर्नाटक में अनुसूचित जाति के तौर पर पहचाना जाता है। लगभग 1.1 मिलियन लम्बानी जनजाति ज्यादातर उत्तरी जिलों की बंजर जगहों पर रहती है। कुछ राज्यों में लम्बानी समुदाय को बंजारा भी कहा जाता है। खानाबदोश लम्बानी जनजातियों को यूरोप के आर्य रोमा जिप्सी का वंशज माना जाता है, जो राजस्थान के रेगिस्तान में आने से पहले मध्य एशिया और अफगानिस्तान में रहते थे। नमक और अनाज में व्यापार के जरिए उन्होंने कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों में अपने कदम बढ़ाए। जीवन भर घूमने के चलते बंजारा समुदाय सफर का पर्याय बन चुके हैं। सदियों से ये समाज देश के दूर-दराज इलाकों में निडर हो यात्राएं करता रहा है। बंजारे कुछ खास चीजों के लिए बेहद प्रसिद्ध हैं, जैसे नृत्य, संगीत, रंगोली, कशीदाकारी, गोदना और चित्रकारी। विशेषकर राजस्थान में बंजारा समाज की दो प्रमुख खापें हैं, बड़द और लमाना। बड़द बंजारे बैलों का व्यापार करते थे वहीं दूसरे लमाना जिन्हें लम्बाना या लम्बानी भी कहते हैं। ये लवण यानी कि नमक का कारोबार वस्तु विनिमय के आधार पर किया करते थे।
आज लम्बानी जनजाति द्वारा तैयार किया गया दुलहन के साजो सामान का विशेष हिस्सा, चमकीले हैंडलूम कपड़े पर उनकी कढ़ाई का काम, जटिल सिलाई, कपड़े पर सुई से बनाई गई उनकी सजावटी कढ़ाई, सजा हुआ शीशा जैसी चीजें हमारे आधुनिक जीवन का हिस्सा हैं। हालांकि उनके ज्यादातर थांडा (गांव) भले ही अविकसित ही होते हों, लेकिन यह उनकी उत्कृष्ट कारीगरी है जिसने लम्बानी महिलाओं को मान्यता दिलाई है और उन्हें जीवित रहने में मदद की है।
शिल्प के माध्यम से आजीविका
यह सब 1984 में बेल्लारी जिले के सांडुर में शुरू हुआ था। यहां कि एक स्थानीय स्कूल शिक्षक महालक्ष्मी, जिनके नाम पर बाद में युनिट का नाम रखा गया, उन्होंने लम्बानी कढ़ाई की खूबसूरती की पहचान की और अपने घर के आंगन में महिलाओं के एक छोटे समूह के साथ काम करना शुरू किया। पूर्व मंत्री और सांडुर के पूर्व शाही परिवार के सदस्य एमवाई घोरपड़े (MY Ghorpade) ने इस पहल का समर्थन किया और एसकेकेके की स्थापना की, ताकि लम्बानी महिलाओं के लिए बेहतर आजीविका सुनिश्चित हो सके। एसकेकेके के सचिव आरके वर्मा बताते हैं, "केवल पांच महिलाओं के साथ शुरू हुई ये युनिट सांडुर के लगभग 15 गांवों में 400 से अधिक लम्बानी महिलाओं के लिए रोजगार दे रही है। महिलाओं के पास घर से काम करने का विकल्प होता है, क्योंकि हर गांव में पर्यवेक्षकों को उनके काम पर नजर रखने के लिए रखा गया है।"
चख रहे हैं आधुनिकता का स्वाद
36 वर्षीय रूही आजम के मुताबिक, कंसल्टेंट डिजाइनर लम्बानी महिलाओं के साथ पिछले 10 वर्षों से अधिक समय से काम कर रहे हैं। हालांकि शुरुआत में इन महिलाओं को आधुनिक कपड़ों पर अपनी सिग्नेचर कढ़ाई करने में थोड़ी उलझन हुई। रूही ने बताया कि अब वे मानती हैं कि समकालीन मांगों को पूरा करना उनके लिए बेहद जरूरी हो गया है। रूही के मुताबिक चमकीले रंगों के साथ कढ़ाई की सांडुर स्टाइल जैसे मूंगों पर कढ़ाई, मोती, सिक्के, शीशे और गुच्छा और भी बहुत कुछ है जिसे सजावट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। लैला त्याबजी और लक्ष्मी नारायण जैसे अनुभवी डिजाइनरों ने सांडुर कढ़ाई को नए ट्रेंड्स के साथ जोड़ने में मदद की है। गोवरी बाई बताती हैं, "यह केवल कपड़ों की डिजाइन है जो समय के साथ बदलती है; हमारी कढ़ाई सिलाई एक ही रहती है।" ये महिलाएं प्रोडक्ट्स की एक सीरीज (70 रुपये और 4,000 रुपये के बीच की कीमत) पर कढ़ाई करती हैं जैसे कि कुर्ता, दुपट्टा, बैग, तकिए का कवर और दीवार लटकन जैसे कई सारे प्रोडक्ट्स इसमें शामिल हैं। लम्बानी कढ़ाई वाले प्रोडक्ट्स अमेरिका, नीदरलैंड और जापान जैसे देशों को निर्यात किए जाते हैं।
परंपरा से जुड़ी हैं जड़ें
सीता बाई जैसी कई बुजुर्ग महिलाएं हैं जो कढ़ाई युनिट के साथ दो-तीन दशकों से जुड़ी हुई हैं। अपने पारंपरिक फेटिया-कांचली ड्रेस (एक बेगी स्कर्ट और सजावटी ब्लाउज) पहने हुए सीता को लगता है कि मौजूदा पीढ़ी की महिलाएं साड़ी को प्राथमिकता देती हैं। उन्होंने बताया, "वे सोचते हैं कि हमारी पारंपरिक पोशाक हर दिन पहनने के लिए बहुत भारी है और वे इसे केवल उत्सव के अवसरों पर पसंद करती है।" सीता बाई की बहू लक्ष्मी बाई को शादी के समय अपने माता-पिता से कढ़ाई वाले चार जोड़ी कपड़े मिले थे। वह इस परंपरा को जारी रखना चाहती हैं भले ही इसमें कई महीनों का थकाने वाला काम शामिल हो। अब खुद अपनी बहू को कसूथी काम सिखा रहीं लक्ष्मी आगे कहती हैं, "हमारे समुदाय में बच्चे हमसे सीखते हैं क्योंकि हम इसे हर समय करते रहते हैं।"
बनाए रखने में परेशानी
सांडुर कढ़ाई में शामिल सभी 39 टांके का पूरा नॉलेज रखने वाली शांति बाई अन्य महिलाओं के काम की निगरानी करती हैं और नए लोगों को ट्रेन करती हैं। युनिट में काम कर रहीं अधिकांश महिलाएं सुशीलानगर से हैं, जहां माइग्रेशन एक सामान्य बात है। गोवरी बाई बताती हैं, "हमारे गांव के लगभग 30 प्रतिशत पुरुष और महिलाएं वर्तमान में मंड्या, मैसूर और दावणगेरे में गन्ना काटने, काम कर रही हैं।" सक्कू बाई (56) अपने पोते-बच्चों की देखभाल करती हैं क्योंकि उनके बेटे और बहू काम के लिए चले जाते हैं। उन्होंने कहा, "हम हर दिन इससे 100-200 रुपये कमा पाते हैं, जबकि गन्ना काटने से उन्हें 300-450 रुपये मिलते हैं।" गोवरी बाई ने कहा कि कभी-कभी यह लाभदायक होता है और कभी-कभी यह नहीं होता है, लेकिन हम इसके साथ चिपके रहते हैं क्योंकि ये काम पूरे साल चलता रहता है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मान्यता
हस्तनिर्मित पीले गुच्छे की एक स्ट्रिंग पर काम करते हुए गोवरी बाई बताती हैं कि उन्हें उनकी इस कारीगरी के चलते लंदन फैशन वीक में रैंप पर चलने का मौका मिला। कुछ साल पहले वे न्यू मैक्सिको के सैंट फे फोक आर्ट मार्केट में भी शामिल हुईं थी। गोवरी बाई ने विदेशों में लोगों को याद दिलाया कि हर दिन ऐसे महंगे कपड़े पहनने के लिए उन्हें कितना अमीर होना पड़ेगा। वे बताती हैं, "हमें यह बताना था कि हम वास्तव में एक जनजाति हैं जिनकी अधिकतर दैनिक मजदूरी श्रम पर निर्भर हैं और कपड़े हमारी परंपरा का हिस्सा हैं।" लम्बानी कढ़ाई की शांति बाई की निपुणता ने उन्हें दुनिया भर नाम दिया है। शांति बाई और गोवरी बाई ने अपने काम के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। 2008 में सांडुर लम्बानी कढ़ाई ने भौगोलिक संकेत टैग भी हासिल किया था।
बने रहने की आशा है
रूही कहती हैं, "कई महिलाएं पहले घरेलू हिंसा की पीड़ित थीं। लेकिन अब एक सम्माननीय आजीविका अर्जित करने के अवसर ने उन्हें लाभान्वित किया है और उन्हें और अधिक स्वतंत्र बना दिया है।" उन्हें लगता है कि शिक्षा और काम के लिए माइग्रेशन के चलते शिल्प कौशल कम हो रहा है। "लड़कियों को पर्याप्त रूप से शिक्षित होने के दौरान शिल्प को जीवित रखने की चुनौती है। लेकिन हम भी नए बाजारों में कदम रखने का लक्ष्य रखते हैं।" रूही ने कहा कि वे शिल्प को बचाने के लिए सरकारी सहायता जरिए नियमित प्रशिक्षण सत्र आयोजित करते हैं। गोवरी बाई जैसे कई लोगों के लिए, यह पैसों से कहीं बढ़कर है कि उनकी कढ़ाई ने इस काबिल बनाया है। अपने पुराने समय को याद करते हुए वे बताती हैं कि लम्बानी महिलाएं कभी भी पास के शहर तक अकेले नहीं पहुंचीं थीं। वे कहती हैं, "आज, हम अपनी कढ़ाई के कारण अधिक आत्म-जागरूक, आत्मविश्वास और अच्छी तरह से ट्रैवल कर रहे हैं।" उन्होंने कहा, "मैं निश्चित रूप से इसे भुलाना नहीं चाहती हूं।"
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