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निर्मल कुमार ने उद्यमिता और बुद्धिमत्ता से दिव्यांगता को दी मात और शुरू की 'वाहन समूहन की क्रांति'

भारत में कई जगह अच्छे काम हो रहे हैं, कई जगह तो बहुत ही अच्छे। अलग-अलग क्षेत्रों में सकारात्मक परिवर्तन हो रहा है। युवा उद्यमी नयी-नयी क्रांतियाँ ला रहे हैं। सालों पुरानी, रूढ़िवादी, दकियानूसी, विभाजनकारी, अराजक परंपराओं और आदतों को बदलने की कोशिशें हो रही हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मदद से समस्याओं को दूर करने के लिए नित नए प्रयोग किये जा रहे हैं। भारतीय उद्यमियों की सेना में क्रांतिकारियों और नायकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। इन क्रांतिकारियों और नायकों ने अपने नए विचारों, नयी सोच, सकारात्मक परिवर्तनों, उद्यमिता, मेहनत और काबिलियत के बल पर कामयाबी की नायाब और ऐतिहासिक कहानियाँ लिखी हैं। कामयाबी की कहानियाँ लिखने का सिलसिला जारी भी है। कामयाबी की एक गज़ब की कहानी निर्मल कुमार ने भी लिखी है। निर्मल की जन्म-भूमि बिहार है लेकिन उन्होंने गुजरात को अपनी कर्म-भूमि बनाया है। भारत में वाहन समूहन की क्रांति का आगाज़ करने और परिवहन की दुनिया में अपनी ख़ास पहचान बनाने वाले निर्मल कुमार ने लोगों को ऑटोचालकों से, और ऑटोसवारी के दौरान पेश आने वाली दिक्कतों और समस्याओं को दूर करने की शानदार और जानदार कोशिश शुरू की। अपनी इस कोशिश में वे काफी हद तक कामयाब हुए हैं, लेकिन अभी बहुत काम बाकी है। निर्मल कुमार ने भारत में सबसे पहले ऑटोरिक्शा का समूहन शुरू किया और 'जी-ऑटो' नाम से कंपनी शुरू कर ऑटो और ऑटोचालकों को लेकर लोगों में बनी छवि को सुधारने का बीड़ा उठाया। और तो और, निर्मल कुमार ऑटोचालकों की ज़िंदगी संवारने में भी जुटे हैं। निर्मल कुमार की कामयाबी की कहानी संघर्षों से भरी है। इस कहानी में भी चुनौतियों के कई सारे दौर हैं। तीन साल की नन्हीं उम्र में ही पोलियो का शिकार हुए निर्मल ने दिव्यंगता को अपनी कामयाबी की राह में रोड़ा बनने नहीं दिया। शारीरिक दुर्बलता को मानसिक दृढ़ता से मात दी। बुलंद हौसलों और अद्मय साहस के साथ काम किया। बुद्धिमता और उद्यमिता के शानदार मिश्रण से कामयाबी की नहीं कहानी लिखनी शुरू की। निर्मल कुमार ने अपनी कामयाबियों से एक ऐसी कहानी लिख डाली है जो प्रेरणादायक तो है ही अनूठी भी है।

निर्मल कुमार ने उद्यमिता और बुद्धिमत्ता से दिव्यांगता को दी मात और शुरू की 'वाहन समूहन की क्रांति'

Saturday December 31, 2016 , 26 min Read

निर्मल कुमार की संघर्षों से भरी कहानी की शुरूआत बिहार के सीवान जिले के रिसौरा गांव से शुरू होती हैं जहाँ 14 मई, 1980 को उनका जन्म हुआ। उनके पिता शिक्षक हैं और माँ गृहिणी। पिता राजाराम सिंह प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते थे, वे अब सेवानिवृत्त चुके हैं। जिस समय निर्मल का जन्म हुआ उस समय बिहार राज्य की हालत बहुत खराब थी। देश के सबसे पिछड़े राज्यों में बिहार की गिनती होती थी। गाँवों में मूलभूत सुविधाओं की भी कमी थी। करोड़ों लोग गरीबी के जाल में जकड़े हुए थे। निर्मल का गाँव रिसौरा भी पिछड़ा था। गाँव में न बिजली थी, न ही कोई अस्पताल। गाँव में एक टेलीफोन कनेक्शन भी नहीं था। चूँकि पिता शिक्षक थे और तनख्वाह समय पर मिल जाती थी, निर्मल के परिवार की हालत गाँव के दूसरे कई परिवारों से थोड़ी बहुत अच्छी थी। लेकिन, तब निर्मल तीन साल के थे तब वे पोलियो का शिकार हो गए। चूँकि गाँव में अस्पताल नहीं था, माता-पिता ने नीम-हकीमों से इलाज करवाया। जादू-टोने का भी प्रयोग आजमाया। मन्नते मांगीं, दुवाएँ कीं। लेकिन, पोलियो ने निर्मल को जकड़ लिया था। उनके हाथ-पाँव और शरीर के दूसरे अंगों का विकास सामान्य बच्चों की तरह नहीं हुआ। बावजूद इसके निर्मल ने हिम्मत नहीं हारी, हार नहीं मानी। माता-पिता ने उन्हें स्कूल भेजा और निर्मल ने मन लगाकर पढ़ाई-लिखाई की। 

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निर्मल के दिलोदिमाग में बचपन की कई यादें अब भी तरोताज़ा हैं। एक बेहद ख़ास बातचीत में निर्मल कुमार ने हमारे साथ अपने बचपन की कई सारी खट्टी-मीठी घटनाएं साझा कीं। निर्मल ने बताया कि उनके गाँव में एक स्कूल था और सभी बच्चे वहीं आकर पढ़ते थे। तीसरी तक सभी बच्चों की क्लास पेड़ के नीचे ही लगती थी। निर्मल को भी पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना पड़ा। निर्मल के मुताबिक, सभी बच्चे अपने घर से टाट के बोरे लाया करते थे और उन्हें ज़मीन पर बिछाकर उन्हीं पर बैठ जाते थे। चौथी में निर्मल को अपने सहपाठियों के साथ स्कूल की इमारत के कमरे में बैठकर पढ़ने का मौका मिला था। लेकिन, चौथी और पांचवीं में भी बैठने को बेंच नहीं मिली, सभी बच्चों को टाट के बोरे पर ही बैठकर पढ़ाई-लिखाई करनी पड़ी। जब निर्मल छठी में पहुंचे तब जाकर उन्हें बेंच पर बैठने का मौका मिला। निर्मल कहते हैं, “जब छठी में आकर बेंच पर बैठे तब ये अहसास हुआ कि हम भी बड़े हो गए हैं। बेंच पर बैठकर स्टेटस को फील किया था मैंने।”

निर्मल के गाँव में जो स्कूल था वहां सिर्फ सातवीं तक पढ़ाई होती थी। हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए निर्मल को अपने गाँव से करीब तीन किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। अक्सर निर्मल पैदल ही तीन गाँव पार करते हुए स्कूल चले जाते थे। कई बार कोई साथी उन्हें अपनी साइकिल पर बिठाकर स्कूल ले जाता था। निर्मल छोटी उम्र में ही समझ गए थे कि वे सामान्य बच्चों की तरह नहीं हैं और अच्छी पढ़ाई-लिखाई ही उन्हें बड़ा इंसान बना सकती हैं। इसी वजह से निर्मल ने बचपन में सारा ध्यान अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ही लगाया। उनकी मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि वे हमेशा क्लास में अव्वल आये। हमेशा ‘फर्स्ट इन क्लास’। बड़ी बात ये भी है कि उन दिनों निर्मल के गाँव में बिलजी नहीं थी और उन्होंने कंदील की रोशनी में पढ़ाई-लिखाई की। निर्मल रोज़ सुबह जल्दी उठ जाते थे और कंदील जलाकर पढ़ाई करते। रात में भी वे काफी समय तक कंदील की रोशनी में ही पढ़ते और लिखते। नि:शक्त होने के बावजूद निर्मल अपने सभी काम खुद ही किया करते थे। दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर वे आगे बढ़ते रहे।

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निर्मल का बचपन कठिनाईयों में बीता, सुविधाओं का अभाव था, ऊपर से शारीरिक कमजोरी और विकलांगता। लेकिन, निर्मल ने साहस से काम लिया, मेहनत की और कामयाबी की राह पर बढ़ते चले गए। 1996 में निर्मल ने महमदा हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास की। सभी सब्जेक्ट में शानदार नंबर मिले थे उन्हें। इन्हीं शानदार नंबरों से उत्साहित निर्मल ने डाक्टर बनने का सपना देखना शुरू किया। माता-पिता को भी लगा कि निर्मल में प्रतिभा है और वे डाक्टर बन सकते हैं। पिता जानते थे कि गाँव में रहकर निर्मल की पढ़ाई सही ढंग से नहीं हो सकती है। निर्मल भी जानते थे कि उन्हें खूब पढ़ना है और पढ़ाई ही उनके जीवन को कामयाब बना सकती थी। अपने दादा, माता-पिता और बड़े भाई से मिले प्रोत्साहन की वजह से निर्मल ने राजधानी पटना जाकर मेडिकल की तैयारी करने की सोची।

नये सपने संजोये गाँव का एक बालक पहली बार शहर गया। शहर की चकाचौंध देखकर वह दंग रह गया। पटना में लोगों का रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल सब कुछ गाँव से जुदा था। यहाँ लालटेन की भी जरूरत नहीं थी। शहर में चौबीसों घंटे बिजली रहती थी। पटना पहुँचने के बाद निर्मल ने अपने परिचितों की मदद से एक छोटा-सा कमरा लिया। फिर खुद से ही कॉलेज की तलाश की। अपने ट्यूटर भी खुद ही ढूंढ लिये। निर्मल ने बताया कि पटना में उनका जीवन संघर्षो से भरा था। लेकिन इसी संघर्ष ने उन्हें पूरी तरह से आत्मनिर्भर बना दिया। शहर में जरूरत पड़ने पर मदद करने वाला भी कोई नहीं था। हर काम खुद ही को करना पड़ता था। निर्मल अपना खाना भी खुद ही बना लिया करते थे। ‘बड़ा’ बनने के जूनून ने निर्मल को दिन-रात पढ़ाई-लिखाई करने पर मजबूर कर दिया। क्लास मिस न करने की जिद भी निर्मल पर कुछ इस तरह सवार थी कि वे हर दिन 14 से 15 किलोमिटर का सफर पैदल ही तय किया करते थे। पाँव में उतनी ताकत नहीं थी जितनी आम इंसान में होती है, लेकिन निर्मल के जूनून और जज्बे के सामने 14 से 15 किलोमिटर का सफर भी छोटा जान पड़ने लगा था। 

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कड़ी मेहनत के बावजूद निर्मल को मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिल पाया। लेकिन 11 और 12वीं में उनके नम्बर काफी अच्छे थे। फिजिक्स में उन्हें डिस्टिंगशन मिला था। बॉयलॉजी और केमिस्ट्री में भी उमदा नंबर मिले थे। 12वीं के दिनों में निर्मल ने न सिर्फ मेडिकल कॉलेज में दाखिले की तैयारी की थी, बल्कि दूसरी और भी प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भरे थे। उन्हें कई बड़े और प्रतिष्ठित कॉलेजों में दाखिले की योग्यता मिल गयी थी। लेकिन निर्मल ने आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद के आचार्य एन.जी.रंगा कृषि विश्वविद्यालय में बीटेक(कृषि विज्ञान) की पढ़ाई करने का फैसला लिया। निर्मल को राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति (नेशनल टैलेंट स्कालरशिप) भी मिली थी। इसी वजह से उन्हें हर महीने भारत सरकार की ओर से 800 रूपये की छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। लेकिन, ये राशि ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काफी नहीं थी। सारे कामकाज और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज़रूरी रकम जुटाने के लिए निर्मल ने जूनियर बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाना शुरू कर दिया था। ग्रामीण परिवेश से आने की वजह से ही निर्मल ने कृषि के क्षेत्र में अध्ययन करने और बीटेक की डिग्री हासिल करने का फैसला किया था।

पटना से हैदराबाद आने के बाद निर्मल की जिन्दगी में बदलाव तेजी से आये। अपने गाँव रिसौरा से पटना शहर की जिन्दगी बहुत अलग थी और पटना शहर से हैदराबाद की जिन्दगी और भी अलग थी। बिहार के अपने गाँव में और शहर में निर्मल की पढ़ाई हिन्दी या भोजपुरी में हुई थी। वैसे तो भोजपुरी शिक्षा का माध्यम नहीं थी, लेकिन ज्यादातर बच्चे विषय को अपनी मातृभाषा में ही समझ पाते थे। इसी वजह से ज्यादातर शिक्षक बच्चों को पढ़ाने-समझाने के लिए भोजपुरी बोली का ही इस्तेमाल करते थे। लेकिन हैदराबाद में ऐसा बिलकुल नहीं था। कृषि विश्वविद्यालय में सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती थी। टीचर सारे भी अंग्रेजी में ही बातचीत किया करते थे। इस वजह से ग्रामीण परिवेश से आये विद्यार्थियों खासतौर पर बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों के विद्यार्थियों को अंग्रेजी में अपने विषय को समझने में काफी तकलीफ होती थी। निर्मल भी इन्हीं विद्यार्थियों में से एक थे। वे जब पटना में पढ़ाई कर रहे थे तब ज्यादातर बच्चे, एक मायने में सभी बच्चे, उन्हीं के राज्य के बिहार के थे और ज्यादातर विद्यार्थी बोलचाल के लिए हिन्दी का इस्तेमाल करते थे। लेकिन हैदराबाद में स्थिति बिलकुल उलट थी। कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के लिए प्रवेश-परीक्षा पास कर देश के कोने-कोने से विद्यार्थी हैदराबाद आये हुए थे। कई सारे विद्यार्थी ऐसे थे, जिनकी सारी पढ़ाई-लिखाई शहरों में हुई थी और ये सारे विद्यार्थी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे। निर्मल की तरह जो विद्यार्थी ठीक तरह से अंग्रेजी नहीं बोल पाते थे वे बहुत शर्मींदगी महसूस करते थे। आलम यह था कि निर्मल की ठेठ बिहारी बोली का मजाक उड़ाया जाता था। उत्तर भारत के विद्यार्थी जिस तरह से अंग्रेजी में बात करते थे उसे सुनकर शहरों में पढ़े- लिखे विद्यार्थी खूब मजे ले-ले कर हँसते थे। इससे उत्तर भारत के कई बच्चे अपमानित महसूस करने लगे थे। उनकी बोली का मजाक बनाया जाना उन्हें नापसंद था।

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ऐसी हालत में निर्मल के मन में एक क्रांतिकारी विचार आया। विचार था ग्रामीण परिवेश से आये विद्यार्थियों का एक क्लब बनाना। क्लब बनाने का मकसद था - उत्तर भारत से आये हिन्दी भाषी विद्यार्थियों को अंग्रेजी सिखाना और उन्हें भी अंग्रेजी में बात करने में पारंगत करना। निर्मल का यह विचार कईयों को पसंद आया और फिर ‘फीनिक्स’ नाम से एक क्लब बना। चूँकि विचार निर्मल का ही था और वे ही संस्थापक थे उन्हें क्लब का अध्यक्ष चुना गया। अध्यक्ष के तौर पर निर्मल ने क्लब के सदस्यों के लिए नियम-कायदे बनाये। सबसे बड़ा और पहला नियम यह था कि क्लब के सभी सदस्य सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में ही बातचीत करेंगे। बातचीत के दौरान भले ही टूटी-फूटी और गलतियों से भरी अंग्रेजी का इस्तमाल क्यों न हो, लेकिन सिर्फ अंग्रेजी का ही इस्तेमाल होगा। एक बड़ा फैसला यह भी लिया गया कि क्लब का जो सदस्य बातचीत के दौरान हिन्दी या अन्य भाषा के शब्द का इस्तेमाल करेगा तो उस पर जुर्माना लगेगा। जुर्माने की रकम भी तय की गयी। किसी एक गैरअंग्रेजी शब्द के इस्तेमाल पर 50 पैसे का जुर्माना लगेगा, ऐसा तय हुआ। यानि अगर कोई विद्यार्थी दस शब्दों वाला एक वाक्य अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषा का इस्तेमाल करता है तो उसे पाँच रुपये अदा करने होंगे। निर्मल की यह स्कीम चल पड़ी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई न करने वाले विद्यार्थी और ग्रामीण परिवेश से आये विद्यार्थी अब बिना किसी भय और शर्म के अंग्रेजी में बातचीत करने लगे। धीरे-धीरे ही सही इन विद्यार्थियो की अंग्रेजी में सुधार होने लगा। कुछ ही महीनों में लगभग हर विद्यार्थी की अंग्रेजी सुधर गयी। क्लब के सभी सदस्य बेखौफ होकर अंग्रेजी में बतियाने लगे। और तो और जुर्माने से जो रकम जुटती थी उससे क्लब के सारे सदस्य मिलकर वीकेंड पर पार्टी करते थे। लेकिन, जैसे जैसे दिन बीतते गए, जुर्माने की वसूली कम होने लगी। निर्मल बताते हैं कि क्लब के कई विद्यार्थी तो इतने विद्वान बने कि उन्होंने विश्वविद्यालय स्तर और राष्ट्रीय स्तर की भाषण और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। क्लब के कुछ सदस्य तो ऐसे थे जिन्होंने इन प्रतियोगिताओं को जीता भी। निर्मल का प्रयोग कामयाब रहा और इस कामयाबी की वजह से कृषि विश्वविद्यालय में उनकी लोकप्रियता काफी बड़ी। निर्मल के मुताबिक ऐसा पहली बार हुआ था कि जब उन्होंने जीवन में नायक की भूमिका अदा की थी और वे अपनी कामयाबी से बहुत उत्साहित और खुश हुए थे।

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कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान निर्मल का सपना यू.पी.एस.सी. की परीक्षा लिखकर आईएएस या आईपीएस अफसर बनना था और इसी दिशा में उन्होंने काम भी करना शुरू कर दिया था। निर्मल ने कहा, “बिहार के ज्यादातर विद्यार्थियों का बस यही सपना होता है कि वे आईपीएस अफिसर या आईएएस आफिसर बने। मैं भी उन्हीं विद्यार्थियों में से एक था। बचपन से ही मैंने आईएएस और आईपीएस के बारे में सुन रखा था। मुझे भी लगता था कि मैं यदि आईएएस अफसर बन जाऊंगा तो मेरी जिन्दगी कामयाब जिन्दगी कहलायेगी। इसी वजह कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मैंने भी सिविल सर्विसेस की तैयारी शुरू कर दी थी। हकीकत तो यह है कि ग्रेजुयेशन के दौरान आपको बहुत समय मिलता है। मैंने भी अपना समय बेकार गवांये बिना सिविल सर्विसेस की तैयारी शुरू कर दी थी।”

लेकिन निर्मल की नियति में शायद कुछ और ही लिखा था। कृषि विश्वविद्यालय में जब उनका दूसरा साल चल रहा था और वे पूरी लगन और मेहनत के साथ सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रहे थे तब उनके एक सिनियर ने उन्हें आईआईएम के बारे में बताया। आईआईएम के बारे में जानकर निर्मल बहुत हैरान हुए। निर्मल कहते हैं, “मैंने आईएएस, आईपीएस की परीक्षाओं के बारे में सुना था, मैंने आईआईटी के बारे में भी सुना था, लेकिन मैंने कभी भी आईआईएम के बारे में नहीं सुना था। हैदराबाद में पहली बार मुझे किसी ने आईआईएम के बारे में बताया था। मुझे पता चला कि कई सारे लोग आईआईएम में दाखिले की योग्यता पाने के लिए दिन-रात किताबों में घुसे रहते हैं। मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आईआईएम से ग्रेजुएशन करने वाले लोगों को लाखों रूपये की तनख्वाह मिलती है। पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि आईआईएम के ग्रेजुएट्स को लाखों की तनख्वाह मिलती है, लेकिन मेरे सीनियर ने मुझे अखबार लाकर दिखाया और बताया कि किस तरह पिछले साल आईआईएम से पासआउट एक विद्यार्थी को 48 लाख रुपये का सालाना पैकेज मिला था। मेरे लिये यकीन करना मुश्किल था और मेरा सीनियर भी जान गया की मैं यकीन नहीं कर रहा हूँ, इसी वजह से उसने पाँच-छह अलग-अलग अखबार लाकर मुझे दिखाये। हर अखबार में वहीं खबर थी कि आईआईएम के एक विद्यार्थी को 48 लाख रुपये का सालाना पैकेज मिला है। जब यकीन हो गया, तब मैंने भी अपना फैसला बदल दिया। अब मेरा पहला लक्ष्य आईएएस या आईपीएस बनना नहीं, बल्कि आईआईएम में दाखिला लेना था। मैंने आईआईएम मे दाखिले के लिए कामन इनट्रेंस टेस्ट यानी कैट की तैयारी शुरू कर दी।”

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निर्मल ने कुछ इस तरह से शानदार तैयारी की थी कि उन्हें पहले ही अटेम्ट में आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला मिल गया। निर्मल को आईआईएम अहमदाबाद में सीट मिली। उनके मुताबिक, आईआईएम में जिन्दगी भी कई मायनों में अलग होती है। सिर्फ और सिर्फ प्रतिभाशाली और हुनरमंद लोग ही आईआईएम में दाखिला ले पाते हैं। अलग-अलग पृष्ठभूमि से आये अलग-अलग लोग निर्मल को आईआईएम-अहमदाबाद में मिले। इन लोगों का दृष्टिकोण भी अलग-अलग था। अलग-अलग लोगों से मिलने; उनसे बातचीत करने से निर्मल को कई सारी नयी, बड़ी और विचारोतेज़क बातों को जानने और समझने का मौका मिला। पहले साल में ही निर्मल ने प्रबंधन के कई सारे गुर सिख लिये थे। दूसरे साल में निर्मल को लगा कि उन्हें जीवन में कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे उनकी अलग पहचान बने। निर्मल को अहसास हो गया था कि आईआईएम से पढ़ाई पूरी करते ही उन्हें भी किसी बड़ी संस्था में लाखों की नौकरी आसानी से मिल जायेगी। लेकिन उनके मन में नये-नये विचार हिलौरे मारने लगे थे। उन्हें लगने लगा था कि उन्हें दूसरों से कुछ अलग करना चाहिए। निर्मल ने यह मन बना लिया की वे अपने दूसरे सहपाठियों की तरह नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने ठान ली की वे कुछ ऐसा करेंगे जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को फायदा पहुँचे। क्या कुछ नया किया जाए? कैसे लोगों की मदद की जाय ? इन्हीं सवालों का जवाब ढूँढने की कोशिश शुरू हो गयी। उद्यमिता का जूनून अब उन पर सवार हो चुका था। उद्यमी बनना ही उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य बन गया था। लेकिन वे नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर उन्हें करना क्या है?

ऐसे ही माहौल में ऐसी घटना हुई जिसने उनकी जिन्दगी की दशा और दिशा को बदल कर रख दिया। इस घटना ने निर्मल की जिन्दगी को नया आयाम दिया। घटना उस समय की है जब आईआएईम- अहमदाबाद में निर्मल के दूसरे साल की पढ़ाई चल रही थी। एक दिन वो डिनर करने के लिए आईआईएम से बाहर निकले। गेट पर वे ऑटो का इंतजार करने लगे। ऑटो मिलने पर अपने साथियों के साथ सवार होकर वे रेस्तरां पहुँचे। ऑटोचालक ने रीडिंग देखकर पच्चीस रूपये अदा करने को कहा। रकम अदा करने के बाद निर्मल अपने साथियों के साथ भोजन करने चले गये। वापसी में निर्मल ने फिर से ऑटो किया। ऑटोवाले ने उन्हें आईआईएम के गेट पर लाकर छोड़ दिया। लेकिन इस ऑटोवाले ने सवारी के 35 रुपये माँगे, जो कि पिछली यात्रा के भाड़े से पूरे 10 रुपये ज्यादा थे। निर्मल ने जानना चाहा कि आखिर जब जाते समय रास्ता वही था, दूरी वही थी, मिटर वही था, भाड़ा वही था, तब फिर वापसी में सवारी का दाम 35 रुपये कैसे हो गया? इस सवाल पर ऑटोवाला भन्ना गया। वो ऊँची आवाज में बात करने लगा और उसने विद्यार्थियों से बदतमीजी भी की। यह सब देखकर निर्मल को बहुत बुरा लगा। उन्हें लगा कि ऑटोवाला बदतमीजी और बेईमानी- दोनों ही कर रहा है। विद्यार्थियों ने उस ऑटोवाले को 35 रुपये दे दिये और वहाँ से चले गये। लेकिन निर्मल के दिलोदिमाग में वही घटना बार-बार घूम रही थी। निर्मल को लग रहा था कि उन्हीं की तरह देश भर में कई लोग होंगे जो कि ऑटोचालक की बेईमानी और बदतमीजी का शिकार होते होंगे। सोच में डूबे निर्मल को ख्याल आया क्यों न ऑटोचालकों की व्यवस्था को सुधारने की कोशिश की जाय। निर्मल को लगा कि वे ऑटोचालकों को संगठित कर उनको प्रशिक्षण दे सकते हैं, ऐसा प्रशिक्षण जिससे वे जिम्मेदार नागरिक बन सकें।

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निर्मल को खुद पर काफी विश्वास था। उन्हें उनका आइडिया भी दूरगामी परिणाम देने वाला लग रहा था। चूँकि निर्मल ने प्रबंधन के गुर सिख लिये थे उन्होंने ऑटोचालकों की व्यवस्था को साफ-सुथरा, सुव्यवस्थित और संगठित करने की ठान ली। अपने फैसले को अमलीजामा पहनाते हुए निर्मल ने आईआईएम-अहमदाबाद के मैं गेट से ही 15 ऑटोचालकों को अपनी ‘परियोजना’ के लिए चुना। निर्मल ने इन चुने हुए ऑटो चालकों को उनकी योजना/परियोजना का हिस्सा बनने के लिए इंसेंटिव दिए। उन्होंने सभी चयनित ऑटो चालकों के बैंक में खाते खुलवाये, उनका जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा भी करवाया। ग्राहकों/सवारियों से अच्छा व्यवहार करने के लिए ऑटो चालकों को विशेष प्रशिक्षित भी दिया गया। इतना ही नहीं ऑटो का रंग-रूप बदला। ग्राहकों के लिए ऑटो में अखबार और पत्रिकाएँ उपलब्ध करवाईं। मोबाइल फ़ोन चार्जर लगवाया। कूड़ादान रखा। रेडियो की सुविधा भी दी।

ऐसा भी नहीं था कि वे सारे काम आसानी से हो गए। इन सब के लिए निर्मल को काफी मेहनत करनी पड़ी। परियोजना के लिए ऑटो चालकों का चयन भी दिक्कतों भरा काम था। ज्यादातर ऑटोचालक लीक से हटकर काम करने को तैयार नहीं थे। यूनियन और यूनियन ने नेताओं से ये सभी डरते थे। लेकिन, परियोजना के जुड़ने के बाद होने वाले फायदे के बारे में जानकर शुरू में ज़रूरी 15 ऑटोचालक जुड़ गए। निर्मल बताते हैं कि उस समय उनके पास लैपटॉप भी नहीं था और वे डेस्कटॉप पर काम किया करते थे। उन्होंने अपने एक सहपाठी का लैपटॉप लेकर उसपर इस परियोजना की रूप-रेखा तैयार की थी और इसी लैपटॉप पर अपने प्रेजेंटेशन को ले जाकर उन्होंने अखबार और पत्रिकाओं के मालिकों/संपादकों से उनके ऑटो के लिए अपने अखबार और पत्रिकाएँ देने की गुज़ारिश की थी।

बड़ी बात ये भी है कि निर्मल की आईआईएम में पढ़ाई बैंक के कर्ज वाली रकम से चल रही थी, यानी उन पर शिक्षा के लिए कर्ज चुकाने का भी भार था। इस बोझ के बावजूद निर्मल ने ऑटो चालकों को अपनी जेब से इंसेंटिव देने और अपनी परियोजना को शुरू करने का जोखिम उठाया। दिलचस्प बात ये है कि जी-ऑटो के नाम से शुरू हुई इस परियोजना को लोगों और प्रायोजकों से काफी अच्छा रेस्पोंस मिला।परियोजना को शुरू हुए अभी एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि अखबार और पत्रिकाओं के मालिकों, विज्ञापनदाताओं ने और भी कई सारे ऑटोचालकों को इस परियोजना से जोड़ने का सुझाव दिया। लोगों की प्रतिक्रिया और मददगारों के सुझाव से उत्साहित निर्मल ने परियोजना को विस्तार देने की ठान ली। 15 के बाद 100 ऑटोचालक निर्मल की परियोजना से जुड़े और परियोजना ने कामयाबी की राह पकड़ ली। हकीकत तो ये भी है कि ऑटोरिक्शा विज्ञापन के अच्छे साधन हैं। इसी वजह से कई कंपनियों ने अपने उत्पादों के विज्ञापन के लिए जी ऑटो का सहारा लिया। कुछ दिनों बाद निर्मल ने बड़े पैमाने पर अपने परियोजना को आगे बढ़ाने की ठानी। उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (मौजूदा प्रधानमन्त्री) नरेन्द्र मोदी से अपने जी-ऑटो प्रोजेक्ट का विधिवद उद्घाटन करवाने का फैसला लिया। निर्मल ने मुख्यमंत्री को अपॉइंटमेंट के लिए चिट्ठी लिखी। चिट्ठी का जवाब भी आया। मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय और जगह तय हुई। निर्मल ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर उन्हें अपनी जी-ऑटो परियोजना के बारे में बताया। मोदीजी को परियोजना और उसकी अवधारणा पसंद आयी और वे उसका उद्घाटन करने को राजी हो गए। निर्मल ने कहा, “मैंने सुना था कि मोदीजी काफी प्रोएक्टिव और प्रोग्रेसिव चीफ मिनिस्टर हैं। मैंने उनसे अपॉइंटमेंट के लिए समय माँगा। और मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट मुझे सिर्फ 15 दिन में भी अपॉइंटमेंट मिल गयी।” मुख्यमंत्री के हाथों अपने ड्रीम प्रोजेक्ट जी-ऑटो की विधिवद शुरूआत के बाद निर्मल ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और आगे ही आगे बढ़ते गए।

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निर्मल ने 15 ऑटोरिक्शा से जी-ऑटो की शुरूआत की थी, अब ये संख्या बढ़कर 21,000 के आंकड़े को पार कर गयी है। जी ऑटो अब सिर्फ अहमदाबाद तक सीमित नहीं हैं। अहमदाबाद के अलावा गांधीनगर, राजकोट, सूरत,गुडगाँव और दिल्ली में भी जी-ऑटो चल रहे हैं। . जी-ऑटो परियोजना को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी बैंकों से भी मदद मिली। एसबीआई, यूको बैंक, बैंक ऑफ बड़ोदा, इंडियन बैंक आदि ने निर्मल की मदद की। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन, भारतीय जीवन बिमा निगम यानी एलआईसी, हिंदुस्तान पेट्रोलियम आदि कंपनियों ने भी अपनी सामजिक ज़िम्मेदारी यानी कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी के तहत सहयोग किया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने निर्मल के प्रस्ताव की न केवल सराहना की, बल्कि उन्हें फाउंडेशन की नींव रखने के लिए कई तरह के संसाधन भी मुहैया करवाए. एक समय अडानी समूह भी जी-ऑटो से जुड़ा।

लेकिन, ऑटोचालकों को जी ऑटो से जोड़ना आसान नहीं था। अहमदाबाद में ऑटोचालकों की यूनियन का दबदबा था। ज्यादातर ऑटोचालक मनमानी करते थे। ग्राहकों से बदसलूकी और लूट आम बात थी। मीटर और तय बाड़ा सिर्फ नाम के लिए रह गए थे। और जब कुछ ऑटो चालक जी ऑटो से जुड़े तब यूनियन के नेताओं ने इन्हें डराया और धमकाया भी था। लेकिन, जी ऑटो से जुड़ने पर होने वाले फायदे को देखकर कई ऑटो चालक निर्मल की टीम का हिस्सा बन गए। कई बार तो जी-ऑटो के ड्राइवरों की पिटाई भी हुई। कई बार उनपर हमले भी किये गए। निर्मल कहते हैं, “जब कभी कोई अच्छे काम की शुरूआत होती है तो उसका विरोध तो होता ही है। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। द्वेष और जलन की वजह से हमारे साथियों के हाथ तोड़े गए, सर फोड़े गए। लेकिन हमारे साहसी साथियों ने कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ा। हमारे ड्राइवरों ने खूब नाम कमाया है। कभी किसी के साथ दुर्वव्हार नहीं किया। अगर किसी का सामान ऑटो में छूट भी जाता है तो हमारे ड्राइवर उसे सवारी को वापस लौटा देता हैं। हमारा कोई भी ड्राइवर तय रकम से ज्यादा भाड़ा नहीं लेता। सबसे बड़ी बात तो ये है कि जी-ऑटो के ड्राइवर दूसरे औटोवालों की तुलना में 150 से 200 फीसदी ज्यादा कमाते हैं और उनके पास बीमा की भी सुविधा है। हमने कई जगह ऑटो के माफिया को ख़त्म किया है।”

निर्मल इन दिनों जी ऑटो परियोजना को विस्तार देने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। उनकी संस्था अभी 6 बड़े शहरों में काम कर रही है और वे जल्द ही अपनी संस्था की सेवाओं को 100 नए शहरों में ले जाना चाहते हैं। निर्मल को किसी बात की कोई जल्दबाजी नहीं है और वे एक ठोस रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। निर्मल का मानना है कि ऑटोरिक्शा की प्रासंगकिता और उपयोगिता भारत में कम नहीं होगी। ‘लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ यानी आखिरी मंजिल तक पहुँचने के लिए ऑटोरिक्शा हमेशा ज़रूरी रहेंगे। कार और कैब की बढ़ती संख्या से ऑटोरिक्शा को कोई खतरा नहीं है। वे कहते हैं, “आने वाले दिनों में परिवहन के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विस्तार होने वाला है। परिवहन का क्षेत्र बहुत बड़ा है और इसके विस्तार की गुंजाइश भी बहुत ज्यादा है। हम भी अपनी सेवाओं का विस्तार करने के साथ-साथ उसमें बहुरूपता लाने की कोशिश कर रहे हैं।” एक सवाल के जवाब में निर्मल ने कहा, “कम्पटीशन बहुत है। अब को कई कपनियां इस क्षेत्र में आ गयी हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनिया भी काम करने लगी हैं। लेकिन, हम दूसरी कंपनियों की तरह प्रोडक्ट और सर्विस नहीं बेचते, हम वैल्यू प्रापज़िशन बेचते हैं। हम सिर्फ टेक और प्रोसेस की बुनियाद पर काम नहीं करते, हम दृढ़ संकल्प और समर्पण की भावना के साथ काम करते हैं।” निर्मल ये कहते हुए फूले नहीं समाते कि उनकी कंपनी ही पहली ऐसी कंपनी है जिसने दुनिया को वाहन समूहन का सिद्धांत दिया। वे ये जताने की कोशिश करते हैं कि ओला और ऊबर जैसी कंपनियां उनके बाद भी आयी हैं। और भी कई बातें है जो निर्मल बड़े फक्र के साथ कहते हैं। वे कहते हैं, “भारत में वाहन समूहन के क्षेत्र में हमारी कंपनी ही एकलौती ऐसी कंपनी है जिसकी बैलेंस शीट पॉजिटिव है यानी सिर्फ हम ही मुनाफे में हैं। निर्मल के मुताबिक बिना किसी से फंड लिए ही उनकी संस्था/कंपनी आत्म-निर्भर है।” वैसे तो अपनी कंपनी से जुड़े आंकड़ें बताने के निर्मल कतराते हैं, लेकिन ये बात अब सार्वजनिक है कि निर्मल की कंपनी जी ऑटो ने पहले साल में 1.75 करोड़ रुपये का कारोबार किया, जिसमें 20 लाख रुपया का मुनाफा था। शुरूआती दौर में निर्मल कुमार ने ‘जी ऑटो’ के नाम से कंपनी चलायी और फिर बाद में उसे निर्मल फाउंडेशन में तब्दील कर दिया। महत्वपूर्ण बात ये भी है कि शुरूआत में निर्मल ने फ़ोन नंबर के ज़रिये ऑटो की बुकिंग ली, लेकिन बाद में समय की मांग को ध्यान में रखते हुए इन्टरनेट और मोबाइल के ज़रिये भी बुकिंग चालू करवाई। जी ऑटो का एप्प भी काफी लोकप्रिय हो चुका। निर्मल चेहरे पर मुस्कान के साथ कहते हैं, “हमने दूसरी कंपनियों की तरह हमारे एप्प को डाउनलोड करवाने के लिए एक रूपये का भी डिस्काउंट ग्राहक को नहीं दिया। फिर भी हजारों ग्राहकों ने हमारा एप्प डाउनलोड किया है।” जी ऑटो ... सस्ता भी! सुरक्षित भी! इसी नारे और वादे के साथ निर्मल अपनी कामयाबी की कहानी को आगे बढ़ा रहे हैं। ‘जी ऑटो ’ का एक और लोकप्रिय प्रचार वाक्य है ‘एनी टाइम रिक्शा’ यानी एटीआर। इस सुविधा के ज़रिये कोई भी व्यक्ति जी ऑटो की वेबसाईट, एप्प या फिर कॉल सेंटर के नंबर से अपने पास ऑटोरिक्शा मंगवा सकता है। निर्मल ये दावा करने से भी नहीं चूकते है कि जी ऑटो का भाड़ा वाजिब है और उनके सभी ऑटोवाले कभी भी किसी से भी तय रकम ने ज्यादा भाड़ा नहीं लेंगे। जी ऑटो में भाड़े का बिल देने की भी व्यवस्था गयी है। अगर कोई ऑटो चालक गलती करे या कोई गड़बड़ी करे तो उसकी शिकायत की जा सकती है। शिकायत सही पाए जाने पर ऑटो चालक के खिलाफ कार्यवाही तय है। जी ऑटो में जीपीएस की भी सुविधा है और इससे आसानी से ऑटो की लोकेशन को जाना जा सकता है।

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इस कामयाब उद्यमी से जब ये पूछा गया कि वे उद्यमी बनने के इच्छुक को अपने अनुभव के आधार पर क्या सलाह देंगे, तब उन्होंने कहा, “मैं कहता हूँ कि आप इस लिए उद्यमी न बनें क्योंकि कोई दूसरा बनकर बहुत अच्छा कर रहा है। दूसरों को देखकर उद्यमी न बने कोई। समाज में अच्छा बदलाव लाने के मकसद से उद्यमी बनना चाहिए। मैं बदलाव लाऊंगा- इस भावना से उद्यमी बनना चाहिए।” ये पूछे जाने पर कि उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सपना क्या है, निर्मल कुमार ने कहा, “मेरा सपना बहुत बड़ा है। मैं चाहता हूँ कि हमारे देश की अगली पीढ़ी के लोग सड़क पर खड़े होकर ऑटो न बुलाएं। देश-भर में ऑटो की बुकिंग हर जगह से मुमकिन हो जाय, ऐसा मेरा करना का सपना है। जिस तरह आज की पीढ़ी के बच्चे ये जानकार हैरान होते हैं कि एक समय टेलीफोन बूथ हुआ करते थे और वहां फ़ोन करने के लिए लम्बी लाइन लगती थी। मैं चाहता हूँ कि अगली पीढ़ी के बच्चे भी इस बात पर हैरानी जताएं कि लोग सड़क पर जाकर ऑटो पकड़ते थे और ऑटोवाले मनमानी करते थे। मैं चाहता हूँ कि सारा देश सिर्फ एक बटन दबाये और अपने पास ऑटो बुलवाए।” 

अपने व्यस्त उद्यमी जीवन में समय निकालकर निर्मल कुमार से शादी भी की। 10 अक्तूबर, 2009 को सीवान जिले के भगवानपुर के सारीपट्टी गांव में उनकी शादी ज्योति से हुई। पत्नी ज्योति भी पैर से दिव्यांग हैं। ज्योति ने केमिस्ट्री में एमएससी की पढ़ाई की है और वे अब जी ऑटो के सफल संचालन में निर्मल की हर मुमकिन मदद कर रही हैं। दिव्यांगता की बाबत पूछे गए सवालों के जवाब में निर्मल ने कहा, “मैंने कभी भी डायरेक्टली फील नहीं किया। बचपन से ही जो भी मेरे साथ रहे हैं उन सब ने मुझे सभी फील होने ही नहीं दिया। मैं उन सभी का शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होंने मुझे कभी फील होने ही नहीं दिया। मैं अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मेरी ज़िंदगी में हमेशा अच्छे लोग ही रहे। मैं ओनी कामयाबी का क्रेडिट भी इन्हीं अच्छे लोगों को देता हूँ।” 

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भारत में वाहन समूहन की क्रांति का बिगुल फूंकने वाले उद्यमी निर्मल कुमार ने अहमदाबाद में हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात में ऑटोरिक्शा के बारे में जो जानकारियाँ दीं वो वाकई काफी दिलचस्प हैं। निर्मल कुमार के मुताबिक, भारत-भर में करीब 50 लाख ऑटोरिक्शा चल रहे हैं। करीब 25 करोड़ लोग हर दिन ऑटोरिक्शा की सवारी करते हैं जबकि केवल 2.5 करोड़ यात्री ही रेल से सफ़र करते हैं। ऑटो रिक्शा दिखने में छोटे-छोटे होते हैं लेकिन ये तिपहिया वाहन भारत में 75 लाख लोगों की आमदानी का जरिया हैं। देश में जो 50 लाख ऑटोरिक्शा हैं उन्हें करीब 75 लाख ऑटोचालक अलग-अलग समय /शिफ्ट में चलाते हैं। यानी सीधे-सीधे 75 लाख परिवार ऑटोरिक्शा पर निर्भर हैं। बड़ी बात ये भी है कि भारत के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे में ऑटोरिक्शा की काफी अहमियत है। कईयों के लिए ऑटो जीवन का जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। देश में ऑटोरिक्शा समूहन की पहली और सबसे बड़ी कंपनी की शुरूआत करने वाले निर्मल कुमार का कहना है कि भारत में ऑटोरिक्शा का महत्त्व और उसकी उपयोगिता कम नहीं होगी और लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में ऑटो अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। मौजूदा समय में तीन पहियों वाले ऑटो को चार पहिये वाली कारों/कैबों से टक्कर ज़रूर मिल रही है लेकिन ऑटो अपनी पहचान नहीं गवाएंगे। लेकिन, भारत में ऑटोचालकों से लोगों को कई शिकायतें हैं। लोगों का मानना/कहना है कि कई ऑटोचालक मनमानी करते हैं, कई बार उनका बर्ताव सही नहीं होता और अक्सर वे तय भाड़े से ज्यादा की मांग करते हैं। अगर ऑटोवाले सारे संगठित हो जाएँ, नियम-कायदों-क़ानून का सही तरह से पालन करें और ज़िम्मेदार नागरिक की तरह बर्ताव करें तो लोगों में उनके प्रति सम्मान और विश्वास की भावना बढ़ेगी।

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