कभी भुलाए नहीं भूलेगा हिंदी का वह 'आवारा मसीहा'
'आवारा मसीहा' के ख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की जयंती पर विशेष...
बांग्ला के प्रतिष्ठित उपन्यासकार शरतचंद्र के जीवन चरित के रूप में 'आवारा मसीहा' ख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की वह खोजपरक कृति है, जिसके प्रकाशित होते ही वह हिंदी साहित्य में हमेशा के लिए अमर हो गए। आज (21 जून) विष्णु प्रभाकर की जयंती है।
एक बार विष्णु प्रभाकर से जब पूछा गया कि ‘एक लेखक होकर आप अपनी स्वतंत्र कृति रचने के बजाय अपने जीवन के अनमोल 14 बरस किसी ऐसी कृति पर क्यों खर्च करते रहे तो उनका जवाब था- ‘तीन लेखक हुए, जिन्हें जनता दिलो जान से प्यार करती है।'
हिंदी साहित्य के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण स्मृति-दिवस है। आज (21 जून) ही के दिन 'आवारा मसीहा' के ख्यात लेखक विष्णु प्रभाकर का जन्म उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर स्थित मीरापुर में हुआ था। उनका बचपन विपन्नता में बीता। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह ठीक से स्कूली शिक्षा भी नहीं ले सके। हालात ही व्यक्ति को कमजोर या मजबूत बना देते हैं। विष्णु प्रभाकर ने घर की परेशानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से स्वयं को मज़बूत बना लिया। बड़े होने पर वह चतुर्थ श्रेणी की एक सरकारी नौकरी करने लगे। उससे उन्हें मात्र 18 रुपये प्रतिमाह वेतन मिल जाता था। इसी दौरान उन्होंने सतत स्वाध्याय से कई डिग्रियाँ के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त की, तथा अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया।
बाद में वह महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में अपनी कलम से आज़ादी का बिगुल बजाने लगे। प्रेमचंद, यशपाल और अज्ञेय जैसे समर्थ साहित्यकारों की संगत में पहुंचे। सन् 1931 में 'हिन्दी मिलाप' में उनकी पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जीवनपर्यंत निरंतर चलता रहा। नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने पर वह शरतचन्द्र की जीवनी 'आवारा मसीहा' लिखने के लिए प्रेरित हुए। शरतचन्द्र के बारे में जानकारियां जुटाने के लिए वह लगभग सभी स्रोतों और जगहों तक पहुंचे। यहां तक कि इसी बहाने उन्होंने बांग्ला भाषा भी सीख ली। जब 'आवारा मसीहा' का प्रकाशन हुआ, हिंदी साहित्य में उसकी धूम मच गई।
कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद 'आवारा मसीहा' उनकी पहचान का पर्याय बनी। 'अर्द्धनारीश्वर' पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उन्होंने अपना पहला नाटक 'हत्या के बाद' लिखा और हिसार में एक नाटक मंडली के साथ सक्रिय हो गए। इसके बाद तो उन्होंने लेखन को ही अपनी जीविका का आधार बना लिया। देश आज़ाद होने के बाद वह दिल्ली आ गए और सितम्बर 1955 से 57 तक आकाशवाणी में नाट्यनिर्देशक रहे। उन्हीं दिनो उन्होंने राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप 'पद्मभूषण' की उपाधि लौटाने की घोषणा कर दी। वह आजीवन पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य करते रहे।
विष्णु प्रभाकर की प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं- 'संघर्ष के बाद', 'धरती अब भी धूम रही है', 'मेरा वतन', 'खिलौने', 'आदि और अन्त', 'एक आसमान के नीचे', 'अधूरी कहानी', 'कौन जीता कौन हारा', 'तपोवन की कहानियाँ', 'पाप का घड़ा', 'मोती किसके' आदि (कहानी संग्रह), 'क्षमादान', 'गजनन्दन लाल के कारनामे', 'घमंड का फल', 'दो मित्र', 'सुनो कहानी', 'हीरे की पहचान' आदि (बाल कथा संग्रह), 'ढलती रात', 'स्वप्नमयी', 'अर्द्धनारीश्वर', 'धरती अब भी घूम रही है', 'पाप का घड़ा', 'होरी', 'कोई तो', 'निशिकान्त', 'तट के बंधन', 'स्वराज्य की कहानी' आदि (उपन्यास), 'क्षमादान', 'पंखहीन' 'और पंछी उड़ गया', 'मुक्त गगन में' (आत्मकथाएं), 'सत्ता के आर-पार', 'हत्या के बाद', 'नवप्रभात', 'डॉक्टर', 'प्रकाश और परछाइयाँ', 'बारह एकांकी', अब और नही, टूट्ते परिवेश, गान्धार की भिक्षुणी और 'अशोक' आदि (नाटक), 'आवारा मसीहा', 'अमर शहीद भगत सिंह' (जीवनी), 'ज्योतिपुन्ज हिमालय', 'जमुना गंगा के नैहर में', 'हँसते निर्झर दहकती भट्ठी' आदि (यात्रा वृत्तांत), 'हमसफर मिलते रहे' नाम से संस्मरण और ‘चलता चला जाऊंगा’ (एकमात्र कविता संग्रह)।
'आवारा मसीहा' के लिए उनको 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' जैसे कई विदेशी पुरस्कार मिले। प्रसिद्ध नाटक 'सत्ता के आर-पार' पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ से 'मूर्ति देवी' सम्मान मिला। वह हिंदी अकादमी, दिल्ली के 'शलाका सम्मान' से भी समादृत हुए। बाद में 'पद्म भूषण' पुरस्कार भी मिला, लेकिन उसे उन्होंने क्षुब्ध होकर लौटा दिया। ‘आवारा मसीहा’ की अभूतपूर्व ख्याति की वजह विष्णु प्रभाकर का शरत से वह अद्भुत लगाव तो रहा ही लेकिन इस काम में उनकी गांधीवादी निष्काम भावना की भी अहम भूमिका रही। यह उपन्यास जब ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में धारवाहिक रूप से आ रहा था, लोगों की इसके प्रति ललक तब भी देखी जा सकती थी। छपने के साथ ही यह ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए नामित हो गया। यह अलग बात है कि उस साल वह पुरस्कार ‘तमस’ के लिए भीष्म साहनी को दिया गया।
विष्णु प्रभाकर को साहित्य अकादमी सम्मान उसके 20 साल बाद ‘अर्द्धनारीश्वर’ के लिए मिला। यह अलग बात है कि न ‘अर्धनारीश्वर’ आवारा मसीहा से अच्छी किताब थी और न ‘तमस’ ही उससे श्रेष्ठ। वह एक भूल रही, जिसकी भरपाई अकादमी ने दो दशक बाद की लेकिन विष्णु जी ने उससे कभी अपना मन मलिन नहीं किया। एक बार विष्णु प्रभाकर से जब पूछा गया कि ‘एक लेखक होकर आप अपनी स्वतंत्र कृति रचने के बजाय अपने जीवन के अनमोल 14 बरस किसी ऐसी कृति पर क्यों खर्च करते रहे तो उनका जवाब था- ‘तीन लेखक हुए, जिन्हें जनता दिलो जान से प्यार करती है। तुलसीदास, प्रेमचंद और शरतचंद्र। अमृत लाल नागर ने ‘मानस का हंस’ लिखकर तुलसी की छवि को निखार दिया। अमृत राय ने कलम का सिपाही लिखा, तो हम प्रेमचंद को नजदीक से देख सके लेकिन शरत के साथ तो कोई न्याय न हुआ। उनके ऊपर लिखनेवाला कोई न हुआ, न कुल-परिवार में और न कोई साहित्यप्रेमी ही। यह बात मुझे 24 घंटे बेचैन किए रहती थी इसीलिए मुझे लगा कि मुझे ही यह काम करना होगा।’
शरतचंद्र जन-गण-मन के प्रिय लेखक रहे थे लेकिन सामाजिक तौर पर उनके साथ हमेशा बहिष्कृत सा बर्ताव किया गया। ऐसे में विष्णु प्रभाकर के लिए आम लोगों से शरतचंद्र के बारे में कुछ विश्वसनीय बातें पता लगा पाना मुश्किल था। जो लोग शरतचंद्र से प्यार करते थे, वे या तो मुखर नहीं थे या फिर कोई सूत्र था ही नहीं उनके पास कि वे कुछ बताएं। ऐसे लोग विष्णु प्रभाकर से कहते थे - ‘छोड़िए महाराज, ऐसा भी क्या था उसके जीवन में जिसे पाठकों को बताए बिना आपको चैन नहीं, नितांत स्वच्छंद व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है? उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे ही बीच रहे तो अच्छा। लोग इसे जानकर भी क्या करेंगे। किताबों से उनके मन में बसी वह कल्पना ही भ्रष्ट होगी बस। दो चार गुंडों-बदमाशों का जीवन देख लो करीब से, शरतचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी।’
लोगों को यह भी अजीब लगता था कि एक गैर-बंगाली व्यक्ति शरतचंद्र की जीवनी लिखने के लिए इतना व्यग्र क्यों है, जबकि स्वयं उनकी बांग्ला-भाषा में उनकी कोई संपूर्ण और प्रामाणिक जीवनी नहीं लिखी जा सकी थी। शरतचंद्र के स्त्री पात्र इतने सशक्त हैं कि महिला पाठकों के मन पर उसकी अमिट छाप रही है। यह भी हैरत की बात हो सकती है कि साहित्य लेखन से ही अपनी घर-गृहस्थी चलाने वाले विष्णु जी ने उस जीवनी को तैयार करने पर अपनी जिंदगी के चौदह साल खर्च कर दिए। यदि हम आवारा मसीहा की रचना प्रक्रिया और खुद विष्णु प्रभाकर के व्यक्तित्व पर नजर डालें तो यह गुत्थी कुछ हद तक सुलझ जाती है। शरतचंद्र को अपने लिए भ्रांतियों और अफवाहों से घिरे रहने का शौक था।
दरअसल, वह परले दर्जे के अड्डाबाज थे और उस अड्डेबाजी से रोज उनके बारे में नई-नई कहानियां निकलती रहती थीं। खुद से जुड़े लोकोपवादों को फैलाने में शरतचंद्र स्वयं खूब दिलचस्पी लेते थे। उनकी आदत थी कि अपने बारे में कहीं भी कुछ भी बोल देते थे। कई बार वे बातें सच होतीं तो कई बार निरी गप्प। आवारा मसीहा के लिए सामग्री इकट्ठा करने के क्रम में विष्णु प्रभाकर सिर्फ शरत के जीवन प्रसंगों या फिर उनसे जुड़े लोगों की तलाश ही नहीं करते रहे बल्कि वे शरतचंद्र के किरदारों की तलाश में भी इधर-उधर खूब भटके। इसी चक्कर में बिहार, बंगाल, बांग्लादेश, बर्मा और देश-विदेश के हर उस कोने में गए, जहां से शरत का वास्ता रहा था।
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