काम वाली बाई के बच्चे को पढ़ाने से हुई शुरुआत, गरीबों के बच्चों के लिए खोला स्कूल
कामवाली बाई के बच्चे को पढ़ाते-पढ़ाते खोल दिया ज़रूरतमंद बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने वाला स्कूल
ज्योत्सना ने काम वाली बाई के बच्चे को घर पर ही पढ़ाना शुरू कर दिया। बहुत जल्द ही बाई के उस बच्चे की तरह की आस-पास के कई बच्चे ज्योत्सना के घर पढ़ने के लिए आने लगे। जब बच्चों की संख्या बढ़ी तो ज्योत्सना उन बच्चों को घर की बजाय बाहर पार्क में पढ़ाने लगीं।
ज्योत्सना बताती हैं कि वह एक ऐसा स्पेस बनाना चाहती थीं जहां कोई भी आकर पढ़ाई कर सके। इस एनजीओ के जरिए सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले सामान्य घरों के बच्चों को भी वोकेशनल ट्रेनिंग दिलाई जाती है।
गुरुकुल स्कूल में सिर्फ किताबी पढ़ाई नहीं होती बल्कि छात्रों की प्रतिभा और रुचि के मुताबिक उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जाता है। बच्चों को बताया जाता है कि उन्हें आर्थिक रूप से कैसे आत्मनिर्भर बनना है।
52 साल की ज्योत्सना अमित की जिंदगी 2005 तक एकदम साधारण सी तल रही थी, लेकिन आज वे पिछड़े समाज से आने वाले हजारों उपेक्षित बच्चों की जिंदगियां संवार रही हैं। ज्योत्सना इन बच्चों को शिक्षित करने के साथ ही उन्हें वोकेशनल ट्रेनिंग भी देती हैं। वह अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि उनके घर में काम करने वाली बाई का 12 साल का बच्चा स्कूल नहीं जाता था। वह रोज इधर-उधर सड़कों पर घूमा करता था। ज्योत्सना ने उस बच्चे को अपने घर बुलाया और अपने बूढ़े पैरेंट्स के साथ रहने को कहा। धीरे-धीरे वह परिवार में घुलमिल गया। इस दौरान ज्योत्सना को यह जानकर अच्छा लगा कि वह भी पढ़ना चाहता है।
ज्योत्सना ने उसे घर पर ही पढ़ाना शुरू कर दिया। बहुत जल्द ही बाई के उस बच्चे की तरह की आस-पास के कई बच्चे ज्योत्सना के घर पढ़ने के लिए आने लगे। जब बच्चों की संख्या बढ़ी तो ज्योत्सना ने उन बच्चों को घर की बजाय बाहर पार्क में पढ़ाने लगीं। उन्होंने गुरुकुल किड्स के नाम से एक एनजीओ भी बना लिया जिसके तहत बच्चों को पढ़ाया जाने लगा। बच्चों को सामान्य तरीके की पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें वोकेशनल ट्रेनिंग भी दी जाने लगी। तब से लेकर अब तक इस स्कूल में 500 से भी अधिक बच्चों को शिक्षित किया जा चुका है जिसमें से 20 बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल में भी एडमिशन दिलाया जा चुका है।
इस पहल के बारे में बात करते हुए ज्योत्सना बताती हैं कि वह एक ऐसा स्पेस बनाना चाहती थीं जहां कोई भी आकर पढ़ाई कर सके। इस एनजीओ के जरिए सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले सामान्य घरों के बच्चों को भी वोकेशनल ट्रेनिंग दिलाई जाती है। लगभग एक दशक की इस यात्रा में ज्योत्सना को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उनके मुताबिक सबसे बड़ी दो मुश्किलें थीं। एक तो इन बच्चों की पढ़ाई में जरूरी संसाधन जुटाना और दूसरा इन बच्चों के पैरेंट्स को इस बात के लिए राजी करना। क्योंकि यहां पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे उन घरों से आते हैं जिनके माता-पिता दिहाड़ी के हिसाब से मजदूरी करते हैं। ये बच्चे भी छोटा-मोटा काम करके उनकी मदद करते हैं। इसलिए इनके पढ़ने पर उन्हें बोझ महसूस होता है।
वह कहती हैं, 'ये बच्चे जब सिर्फ 13-14 साल के ही होते हैं तो कहीं काम करना शुरू कर देते हैं। जब ये थोड़ा बहुत पैसा कमाकर घर लाते हैं तो उनके माता-पिता भी खुश होते हैं। कई बच्चे तो सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें अपने घर में छोटे भाई-बहनों की देखभाल करनी होती है।' ज्योतस्ना एक बच्ची आएशा की कहानी याद करते हुए बताती हैं कि वह मदरसा में पढ़ती थी। 2010 में जब उसकी छोटी बहन पैदा हुई तो उसे पढ़ाई छोड़कर छोटी बच्ची के देखभाल में लगा दिया गया। उसकी मां दूसरे घरों में जाकर चौका-बर्तन का काम करती थी। लेकिन आएशा पढ़ाई करना चाहती थी। गुरुकुल किड्स ने उसकी काफी मदद की। वह अपनी छोटी बहन को लेकर यहां आती थी और पढ़ा करती थी।
आएशा ने इसी तरह अपनी छोटी बहन के साथ गुरुकुल में पूरे तीन साल पढ़ाई की, जिसके बाद उसका एडमिशन छठवीं क्लास में एक पब्लिक स्कूल में करा दिया गया। वहीं उसकी बहन जो अब थोड़ी बड़ी हो गई थी, एक नर्सरी स्कूल जाने लगी। अभी इस वक्त गुरुकुल स्कूल में कुल 150 बच्चों का रजिस्ट्रेशन हुआ है। जिनकी उम्र तीन से 15 साल तक है। गुरुकुल स्कूल भी बाकी स्कूलों की तरह ही सीबीएसई बोर्ड के पैटर्न पर काम करता है। लेकिन ज्योत्सना ने इस स्कूल के पाठ्यक्रम को एक साल की बजाय छह महीने में ही समेट दिया है क्योंकि ये बच्चे काफी बड़े हैं और एक-एक साल की पढ़ाई करेंगे तो दसवीं तक पहुंचने में इन्हें सालों लग जाएंगे।
सिर्फ पढ़ाई ही नहीं
गुरुकुल स्कूल में सिर्फ किताबी पढ़ाई नहीं होती बल्कि छात्रों की प्रतिभा और रुचि के मुताबिक उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जाता है। बच्चों को बताया जाता है कि उन्हें आर्थिक रूप से कैसे आत्मनिर्भर बनना है। उन्हें ग्रीटिंग कार्ड, ईयर रिंग्स, सजावटी लाइटें बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है इसके अलावा उन्हें कंप्यूटर भी सिखाया जाता है। ज्योत्सना बताती हैं कि इससे उनके भीतर बदलाव आएगा और वे आगे चलकर आसानी से पैसे कमा कर अपना जीवन सम्मानजनक तरीके से निर्वाह कर सकेंगे। वह इन बच्चों को एक जिम्मेदार नागरिक बनाने की ओर अग्रसर हैं। शुरू में तो बच्चों के माता-पिता ने उनकी पढ़ाई में कोई रुचि नहीं दिखाई लेकिन धीरे-धीरे बदलाव आता गया और अब अभिभावक भी अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर काफी सजग हो गए हैं।
इस स्कूल में पांच शिक्षकों को वेतन पर रखा गया है वहीं कुछ लोग वॉलंटियर के तौर पर बच्चों को पढ़ाने के लिए आते हैं। हालांकि ज्योत्सना के पास कोई बड़ा सपोर्ट नहीं है, लेकिन उनका कारवां न जाने कितने बच्चों की जिंदगी में रोशनी ला रहा है। स्कूल को अब पार्क की जगह एक किराए के मकान में शिफ्ट कर दिया गया है जिसका किराया काफी ज्यादा है। टीचर्स की सैलरी और बाकी सारे खर्च मिलाकर लगभग 1.25 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं।
ज्योत्सना के स्कूल को अभी भी चार-पांच शिक्षकों की और जरूरत है। लेकिन पैसे न होने की वजह से मामला अधर में लटका है। ये सारे खर्च क्राउड फंडिंग पर पूरे किये जा रहे हैं। इसके लिए घर-घर घंटी बजाकर पैसे इकट्ठे किए जाते हैं। ज्योत्सना बताती हैं कि उन्हें इस काम में कोई हिचकिचाहट नहीं होती।
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