36गढ़ आदिवासी कलाओं के ‘36 रंग’
आदिवासी कलाकारों की प्रतिभा को दुनिया के सामने लाईं नीति टाहएडवरटाइजिंग की दुनिया को छोड़कर शुरू किया कामजेल में बंद कैदियों से भी तैयार करवाती हैं कपड़ेप्राचीन कलाओं को जीवित रखने की दिशा में है बड़ा कदम
छत्तीसगढ़ के छोटे से इलाके बिलासपुर की रहने वाली एक लड़की ने दिल्ली में जे वाॅल्टर थाॅम्पसन नामक एडवरटाइजिंग एजेंसी की आरामदायक नौकरी छोड़ी और अपने इलाके की गुम होती आदिवासी कला को एक नया आयाम देने में जुट गई। नीति टाह ने अपने इलाके की संस्कृति और कलाकारों की विरासत से बाहरी दुनिया कोे रूबरू करवाया और अपने संस्थान ‘36 रंग’ के द्वारा उनके काम को दुनिया में पहचान दिलवाने के प्रयास में लगी हुई हैं।
बिलासपुर में पैदा हुई नीति टाह की रुचि बचपन से ही कला में थी और वे इसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहती थीं। इस सपने को पूरा करने के लिये उन्होंने दिल्ली के नेश्नल इंस्टीट्यूट आॅफ एडवरटाइजिंग में डिजाइनिंग में डिप्लोमा किया और एक मशहूर कंपनी में नौकरी करने लगीं। लेकिन कुछ रचनात्मक करने के लिये उन्होंने कुछ समय बाद वह नौकरी छोड़ दी और वापस अपनी जड़ों की ओर लौट गईं।
‘‘नौकरी छोड़ने के बाद मैंने सोचा कि छत्तीसगढ़ में और खासकर बस्तर में बहुत सी प्राचीन कलाएं हैं जिनके बारे में लोगों को पता ही नहीं है और पहचान के अभाव में ये कलाएं लुप्त हो रही हैं। मैं लगातार 6 महीनों तक गांव-गांव घूमी और वहां की प्राचीन कलाओं और कलाकारों के बारे में जानकारी इकट्ठी की।’’
इस रिसर्च के दौरान नीति की नजरों में ‘भित्ती चित्र’ नामक एक प्राचीन कला आई जिसके बहुत कम कारीगर बचे थे। ‘भित्ती चित्र’ में मिट्टी की सहायता से जालीदार मूर्तियां बनाई जाती हैं। चूंकि मिट्टी से बनी कलाकृतियां बहुत भारी थीं और उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाना बड़ा मुश्किल काम था इसलिये उन्होंने इस कला के साथ प्रयोग किया और इसे मिट्टी की जगह एक दूसरे पदार्थ कुट्टी से बनाने का प्रयास किया जो असफल रहा।
धुन की पक्की नीति ने हार नहीं मानी और कुट्टी के एक कारीगर को ढूंढकर उनसे इसका सही मिश्रण बनाने की विधि सीखी और आदिवासी जीवन को दर्शाते ‘भित्ती चित्र’ के गहने, छोटी मूर्तियां इत्यादि इन कारीगरों से बनवाने शुरू किये। इसी दौरान उनकी मुलाकात कुछ आदिवासी महिलाओं से हुई जो कपड़े पर विभिन्न तरीकों के डिजाइन प्राचीन तरीके से बनाती थीं जिसे ‘गोदना’ कहा जाता था। इसके अलावा उन्हें एक और आदिवसी कला मारवाही के बारे में भी जानने को मिला जिसमें कपड़ों पर पारंपरागत कढ़ाई की जाती थी।
नीति ने नौकरी के दौरान जमा की गई पूंजी को लगाया और इन बेनाम कलाकारों की मदद से कुछ साडि़यों, दुपट्टों, टी-शर्ट इत्यादि पर आदिवासी कला के कुछ नमूने तैयार करवा लिये। इसके बाद वे कई दिनों की मेहनत के बाद तैयार करवाये गए सामान को लेकर दिल्ली आईं और कुछ पुराने साथियों के सहयोग से गुड़गांव के एपिकसेंटर में अपनी पहली प्रदर्शनी आयोजित की।
पहली ही प्रदर्शनी हिट रही और लोगों ने ‘‘छत्तीसगढ़ आदिवासी समूह द्वारा हस्त कढ़ाई’ का लेबल लगे इन सामनों को बहुत पसंद किया। ‘‘हमारे द्वारा तैयार करवाई गई साडि़यों को बहुत पसंद किया गया और 8 हजार रुपए प्रति पीस के हिसाब से सारी साडि़या बिक गईं। इसके अलावा बाकी चीजों को भी काफी पसंद किया गया और लगभग सारा सामान बिक गया। इस प्रदर्शनी के बाद 36 रंग और आदिवासी कला के प्रचार के हमारे मिशन को काफी सफलता मिली।’’
इस प्रदर्शनी के बाद मुंबई और बैंगलोर के कुछ बड़े स्टोर 36 रंग के साथ आए और इन कलाकारो द्वारा तैयार किये सामान को अपने यहां बेचने के लिये तैयार हो गए। इस दौरान नीति की जानकारी में आया कि अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ की जेलों में बंद कैदियों को पुनर्वास के कार्यक्रम के तहत कढ़ाई के लिये प्रशिक्षण दिया गया है। वे जाकर बिलासपुर सेंट्रल जेल के अधिकारियों से मिली और 10 कैदियों से आदिवासी कढ़ाई की 500 टीशर्ट तैयार करवाईं। कुछ समय बाद उन्होंने प्रदर्शनियों में आदिवासी कलाकारों द्वारा तैयार किये सामान के साथ कैदियों द्वारा तैयार की गई इन टीशर्टों को भी रखा तो लोग अचरज में पड़ गए। ‘‘लोग यह देखकर हैरान थे कि कैदी भी इतना अच्छा और शानदार काम कर सकते हैं।’’
36 रंग को शुरू करने के बाद पहले वर्ष में नीति ने ऐसी 500 टीशर्ट बेचीं और अगले साल 700। चूंकि इनका सारा सामान कारीगरों द्वारा हाथ से तैयार किया जाता है इसलिये इसके डिजाइनों में दोहराव की कोई गुंजाइश नहीं होती और यही वह बात जो इनके काम को दूसरों से अलग करती है।
अक्टूबर 2011 में वह एक प्रदर्शनी के सिलसिले में यूएई गईं जहां इनके सामान को बहुत पसंद किया गया। कुछ समय बाद ही नीति ने दुबई में ग्लोबल विलेज के नाम से एक स्टोर शुरू किया जहां छत्तीसगढ़ की इस प्राचीन कला के कद्रदानों की कोई कमी नहीं है। नीति बताती हैं कि उनके द्वारा तैयार करवाए गए कपड़ों में साड़ी सबसे अधिक लोकप्रिय है और सबसे ज्यादा बिक्री भी इसी की है।
‘‘साड़ी के अलावा हमारे द्वारा बनाए गए जालीदार कुर्ते और हाथ से कढ़ाई की गई टीशर्ट की भी बाहर के बाजारों में काफी मांग है। मेरी मानसिकता सामाजिक कार्यकर्ता वाली नहीं हे लेकिन इन कारीगरों की मदद करके मुझे संतुष्टि मिलती है और इन लोगों की आर्थिक मदद हो जाती है। हालांकि दिल्ली में मेरे पास पैसा और ग्लैमर दोनों थे लेकिन मैं कुछ चुनौतीपूर्ण ओर रोचक करना चाहती थी और मुझे लगता है कि मैंने 36 रंग के द्वारा अपनी मंजिल पाई है।’’
वर्तमान में नीति रायपुर और दुबई में एक रिटेल स्टोर चलाने के अलावा मारवाही कढ़ाई की कला के विस्तार के लिये एक रूरल सेंटल संचालित कर रही हैं और छत्तीसगढ़ की आदिवासी कलाओं के प्रचार-प्रसार के लिये प्रयासरत हैं।