कवि विजय किशोर मानव के सृजन में प्रेम का अर्द्धसत्य
प्रतिष्ठित कवि विजय किशोर मानव अपने सम्मोहक गीतों और धारदार गज़लों के लिए हिंदी कविता-साहित्य में अपना अलग स्थान रखते हैं। दशकों तक हिंदी पत्रकारिता में प्रतिष्ठित रहे मानव मूलतः कानपुर (उ.प्र.) के रहने वाले हैं। 'दैनिक जागरण', 'हिंदुस्तान' में वह दशकों तक पत्रकारिता के शीर्ष दायित्व निभाते रहे हैं। कानपुर से जब वह दिल्ली पहुंचे तो आज तक वहीं के होकर रह गए हैं।
'आज कहने को नवगीत की पाठशालाएं हैं, पर दिल से निकलने वाले गीत कितने कम लिखे जाते हैं। तुकबंदियों ने गीत की गरिमा गिरा दी। उमाकांत मालवीय, ओम प्रभाकर, नरेश सक्सेना सरीखे गीत लिखने वाले बाद में कम ही हुए।
विजय किशोर मानव कहते हैं कि आज समय बदल रहा है। प्रेम की किसी एक ऋतु और उससे जुड़े लोकाचार से मुक्त हो रहे हैं लोग। अब तो हर ऋतु प्रेमपगी रहती है। काम, कर्म और मेधा सब एक ही समय में उपस्थित हैं। सृजन में कैसी लीन होती है सृष्टि। हर कोई प्रेम करना चाहता है। रचना चाहता है। पूरी सृष्टि जैसे फिर से स्वयं को जनना चाहती है। प्रेम खत्म नहीं होता क्योंकि सृष्टि के उद्गम में ही प्रेम है। यह वर्जनाएं नहीं मानता, इसे किसी से भय नहीं। प्रेम का हो-हल्ला आज जितना है, उतना प्रेम समाज में दीखता नहीं। मन को बहुत भाने वाली ये बातें, अर्धसत्य हो गयी हैं। ठीक-ठीक कहें तो आधे से भी कम सच। मानव जी का सत्तर अस्सी के दशक में कविसम्मेलन के मंचों पर यह गीत काफी लोकप्रिय रहा, एक तरह से गीत का मुहावरा बन गया था -
बौने हुए विराट हमारे गांव में।
बगुले हैं सम्राट हमारे गांव में।
घर-घर लगे धर्मकांटे लेकिन,
नक़ली सारे बांट हमारे गांव में।
हर मछली को सुख के आश्वासन
मछुआरे हैं घाट हमारे गांव में।
मुखिया का कुरता है रेशम का
भीड़ पहनती टाट हमारे गांव में।
सुबह पीठ मिलती है छिली हुई
चुभती है हर खाट हमारे गांव में।
रात शुरू होकर दिन-भर चलते
चक्की के दो पाट हमारे गांव में।
दिन-भर खटकर सोना आधे पेट
ऐसा बंदरबांट हमारे गांव में।
मानव कहते हैं कि मन गाने को है, उम्र का कोई फर्क नहीं, सबके भीतर कुछ बज-सा उठता है. हवा में राग-रंग जैसे घुल से गये हों। आधुनिक शब्द-बिम्बों से लबरेज गीतों से कहीं अधिक, मस्ती में डुबोते हैं लोकगीत। लोकगीतों में मादक रंगों का उल्लास, सौंदर्य, श्रृंगार समाया रहत है। भाषाएं प्रेम को खुद पर लाद लेती हैं और रात-रात भर स्वरों में ठुमकती हैं। असल में लोक ही है, जो भाषा को और परम्पराओं को जीते रहने के लिए हर मूल्य पर आमादा रहता है। बदलाव के दौर में अनेक बार इसे रूढ़ि कहा जाता है लेकिन, यह भी सच है कि वही रूढ़ि या ज़िद कह लें, या फिर संस्कार है, जो धरती के किसी भी कोने में आपको अपनी जड़ों से जोड़े रखते हैं। किसी ठूंठ के गर्भ में बची ज़रा सी सरसता भी, हरियाली के रूप में छलक पड़ती है। कैसी कारीगरी हो जाती है। तन से मन तक रेशा-रेशा गमकने लगता है। क्षितिजों पर से जैसे जीवन उगने लगता है। हमारे देश की यह विशेषता रही है कि उसके बड़े शहरों में पीढ़ियों से भी रहते आ रहे परिवारों में लोक की परम्परा का सूत्र हल्के-फुल्के बदलाव के साथ बचा मिल जाता रहा है। हमें तो आज भी ठीक से याद है कि हमारे गांवों और छोटे मंझोले शहरों कभी खाने में भी रंग बरकरार रहता था-
गाँव छोड़ा
शहर आए
उम्र काटी सर झुकाए
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में।
माँ नहीं सोई
भिगोकर आँख रातों रात रोई
और हर त्योहार बापू ने किसी की
बाट जोही
मीच आँखे सो नहीं पाए
बाँध कर उम्मीद
पछताए
हाँ हुजूरी में सलामों में
खो गए बेटे निजामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में।
घर नहीं कोई
यहाँ दरबार हैं या हैं दुकानें
जो हँसी लेकर चले उस पर पुती हैं
सौ थकानें
कामयाबी के लिये सपने
बेच डाले रात दिन
अपने
सिर्फ कुछ छोटे छदामों में
खो गए रंगीन शामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में।
कवि-आलोचक ओम निश्चल के शब्दों में 'संवदेना के सबसे महीन तार जब दिल को छूते हैं तो गीत का जन्म होता है। ऋतुराज पुरस्कार से सम्मानित विजय किशोर मानव हिंदी गीत के ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने गीत के पुरोधाओं की संगत में रचना सीखा है तथा गीत की विगत चार दशकों की रचना यात्रा के सतत साक्षी रहे हैं। उनके गीत 'नवगीत दशक तीन' एवं 'नवगीत अर्धशती' में शामिल हैं। 'आंधी में यात्रा', 'राजा को सब क्षमा है' कविता संब्रह, 'आंखें खोलो' ग़ज़ल संग्रह एवं गीत के अनूठे संग्रह 'गाती आग के साथ' के कवि मानव अपने अनूठे एवं सम्मोहक वाचिक के लिए भी जाने जाते हैं। गीतों में सज कर बिम्ब किस तरह शब्दों में लहरों-जैसा कंपन पैदा करते हैं, यह मानव के गीतों को पढ़ते हुए जाना जा सकता है।
'उन्हें सबसे पहले 1978-79 के आसपास लखनऊ में देखा। सुंदर, सुडौल, छरहरे। आकाशवाणी की कवि गोष्ठियों के सरताज संचालक। प्रोड्यूसर सनीलाल सोनकर के प्रिय कवि। जिस पैस्टोरल इमेजरी की सराहना अज्ञेय जी ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतों के लिए किया करते थे, वैसी ही अलक्षित इमेजरी उनके गीतों में होती। तब वे युवा थे तो उनके बिम्ब भी वैसे ही युवा आमों में बौर की तरह रसीले हुआ करते। फिर ऐसे गीत भी उन्होंने लिखे कि गिरिजा कुमार माथुर के शब्दों में कहने का मन हो आए। छाया मत छूना मन। होगा दुख दूना मन। वे तब दैनिक जागरण (कानपुर) के साहित्य संपादक हुआ करते थे। सो गीतकारों के लिए लगभग आराध्य। गीत के अधिष्ठाता। जागरण में तब छपने वाला वह गीत दुर्लभ ही हुआ करता। छपते ही गली-गली उसकी चर्चा होती।
'आज कहने को नवगीत की पाठशालाएं हैं, पर दिल से निकलने वाले गीत कितने कम लिखे जाते हैं। तुकबंदियों ने गीत की गरिमा गिरा दी। उमाकांत मालवीय, ओम प्रभाकर, नरेश सक्सेना सरीखे गीत लिखने वाले बाद में कम ही हुए। पर उनके बाद की पीढ़ी में विजय किशोर मानव ने वह मुकाम हासिल किया कि गीत को फिर से उच्च आसन पर बिठा सकें। हम जैसे गीत प्रेमियों को, जिन्हें नई कविता की मॉडर्न सेंसिबिलिटी ज्यादा रास आती थी, का भी एक मन गीत की स्वर लहरियों में डूबता उतराता रहता। मानव हमारी पीढ़ी के हीरो रहे हैं। उन्हीं दिनों का उनका लिखा एक पद आज भी भूलता नहीं-
'धूप तिरछी
सुबह नदी छूती
हिलती लहरों में ऐसे दिखती है,
जैसे कोई शकुंतला
लेटी अपने दुष्यंत को
खत लिखती है।'
'धूप का ऐसा रोमांटिक चित्र शायद ही कहीं मिले। तीस सालों से ज्यादा का समय हुआ, पर यह गीत स्मृति के दुकूल में लिपटा ही रहा। अरसा हुआ, उन्हें गीत लिखे हुए। लिखे भी तो ज्यादा से ज्यादा एक या दो बंद। बिल्कुल ठाकुरप्रसाद जी की टेक पर। पर कौल यह कि हो तो सम्यक वरना चंद्रसेन विराट बनने की जरूरत नहीं। फिर वे कविता की दिशा में मुड़े। ‘आंधी में यात्रा’ और ‘राजा को सब क्षमा है’ जैसे संग्रह आए। ग़ज़लों का एक संग्रह भी। हमें लगा, गीतों का यह राजकुंवर इसी उम्र में तथागत हो चला। अब गीत का क्या होगा। हमें रह रह कर ठाकुरप्रसाद सिंह याद आते। उनका गीत याद आता-
'पात झरे।
फिर फिर होंगे हरे।
पात झरे। कोयलें उदास
मगर फिर फिर वे गाएंगी।
नए नए चिह्नों से राहें भर जाएंगी।
खुलने दो कलियों की
ठिठुरी ये मुट्ठियाँ।
माथे पर नई-नई सुबहें मुस्काएँगी।
गगन-नयन फिर-फिर होंगे भरे।'
'पर यह अच्छा हुआ कि उनका लिखना बंद नहीं हुआ। हां गीत के तमाम सारथी अवश्य एक एक कर मंचों की भेंट चढ़ते गए। मानव जी ने मंच का वैसा वरण नहीं किया। वे गोष्ठियों के कवि बने रहे। आज न कैलाश गौतम हैं, न उमाकांत मालवीय, न नईम, न शंभुनाथ सिंह। रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, किशन सरोज का जमाना भी देखते देखते बीत गया। कुछ स्वर छिटके बिखरे जरूर हैं जैसे बुद्धिनाथ मिश्र और यश मालवीय, पर बस मंच पर यह याद दिलाने के लिए कि भई सब कुछ अस्त नहीं हुआ है। ऐसी दुर्भिक्ष की वेला में मुझे वे आचार संहिताएं ध्यान में आती हैं कि गीत कैसे लिखे जाने चाहिए। 'पांच जोड़ बांसुरी' शीर्षक संचयन के वे पांच लेख पांच कसौटियां हैं, जिनका पालन किया गया होता तो गीत के स्वर्णिम दिन अभी विदा नहीं होते। कहने को आज भी लोग गीत लिख रहे हैं, पर गीत की जैसे पूरी ऋतु ही मुरझा गयी है।
गीत की इस प्रतिकूल वेला में मानव याद आते हैं। मुझे लगता है वे फिर गीत का गांडीव उठाएं और नए जमाने के नए गीत लिखें। अरसा हुआ, उन्होंने कुछ गीत मुझे भेजे थे। गीत के लिए उन्मन मन को राहत देने के लिए। वे मेरे चित्त के किसी कोने अंतरे में ठिठके रहे। आज वह पोटली खुली तो मन खिल उठा। पतझर के बाद टहनियों में आए पल्लव की तरह जन्म लेते उल्लास में इन गीतों की नमी भी शामिल है, इसमें संशय नहीं। देखिए क्या लिखते हैं मानव -
ताल भरता सूखता हर साल,
पर यही है अब नदी का हाल।
एक तो पानी बहुत कम
दूसरे लोहू घुला,
प्यास का मारा शहर कहता-
कि जो भी है पिला,
मुस्तकिल डाले हुए हैं जाल
ताल भरता सूखता हर साल,
पर यही है अब नदी का हाल।
विजयकिशोर मानव बताते हैं कि रचनात्मक दृष्टि पैदा करने वाला कच्चा माल जुटाने का साधन, जो दुनिया भर के लेखकों ने इस्तेमाल किया, वह कहां है, वह क्या है, जो छूट गया है, जहां, साहित्य और कलाओं का सीझना होता था, वह जगह थी, छोटे-छोटे गांवों से लेकर कस्बों और बड़े-बड़े शहरों तक में बिना किसी औपचारिकता के होने वाली बैठकें। बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर, आगरा, पटना भोपाल, देहरादून, दिल्ली, फर्रुख़ाबाद, बांदा, उन्नाव, रायबरेली और झांसी, सागर, ग्वालियर ये सारी जगहें ऐसी थीं जहां किसी बड़े का घर, स्टेशन, किताबों की कोई दूकान, कोई चाय या कहवाघर (काफी हाउस) कोई बड़ा सरकारी दफ्तर या कोई पार्क, कोई फुटपाथ, इन अड्डों के बहाने गुलज़ार रहा करता था।
आ़जादी के करीब चार दशकों बाद तक ऐसी अड्डेबाजी करीब-करीब हर जगह थी। तेजी से बदलती हुई दुनिया और उसके साथ उसी तेजी से बदलता हुआ आदमी, उसका आसपास, पूरा परिवेश और परंपराएं सारी परंपराएं समाज में दो तरह से प्रकट होती है, एक औपचारिक और दूसरी नितांत अनौपचारिक, अनगढ़ और इतनी मंद और अस्पष्ट कि होने पर भी ध्यान से देखने पर ही ऩजर आती हैं। ये मिटती हैं तो खबर होने तक उनका पूरा कायाकल्प हो चुका होता है। कई बार तो ये लगभग समाप्त ही हो चुकी होती हैं।
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