एक डीएम जो आगे चलकर छत्तीसगढ़ का पहला सीएम बना
हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार रखने वाले और अपने छात्र जीवन से ही मेधावी वक्ता रहे जोगी की राजनीतिक पढ़ाई मध्य प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले अर्जुन सिंह की पाठशाला में हुई थी।
नयी दिल्ली, भारतीय प्रशासनिक सेवा की अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़कर राजनीति में आए अजीत प्रमोद कुमार जोगी जिलाधिकारी से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले संभवत: अकेले शख्स थे। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के एक गांव में शिक्षक माता पिता के घर पैदा हुए जोगी को अपनी इस उपलब्धि पर काफी गर्व था और जब तब मौका मिलने पर अपने मित्रों के बीच वह इसका जिक्र जरूर करते थे।
करीब दो दशक पहले अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल करने वाले जोगी का शुक्रवार को निधन हो गया। वह 74 वर्ष के थे। कुछ दिन पहले ही उन्हें हृदयाघात के बाद रायपुर के एक निजी अस्पताल में भर्ती किया गया था।
राजनीति में आने से पहले और बाद में भी लगातार किसी न किसी से वजह से हमेशा विवादों में रहे जोगी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बहुत प्रभावित थे और पत्रकारों तथा अपने नजदीकी मित्रों के बीच अक्सर एक किस्सा दोहराते थे। उनकी इस पसंदीदा कहानी के मुताबिक अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रोबेशनर अधिकारी के तौर पर जब उनका बैच तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिला तो एक सवाल के जवाब में इंदिरा गांधी ने कहा, ‘‘भारत में वास्तविक सत्ता तो तीन ही लोगों के हाथ में है – डीएम, सीएम और पीएम।’’
युवा जोगी ने तब से यह बात गांठ बांध रखी थी। जब वह मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए तो एक बार आपसी बातचीत में उन्होंने टिप्पणी की कि हमारे यहां (भारत में) ‘‘सीएम और पीएम तो कुछ लोग (एच डी देवेगौड़ा, पी वी नरसिंहराव, वी पी सिंह और उनके पहले मोरारजी देसाई) बन चुके हैं, पर डीएम और सीएम बनने का सौभाग्य केवल मुझे ही मिला है।’’
हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार रखने वाले और अपने छात्र जीवन से ही मेधावी वक्ता रहे जोगी की राजनीतिक पढ़ाई मध्य प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले अर्जुन सिंह की पाठशाला में हुई थी। नौकरशाह के तौर पर सीधी जिले में पदस्थापना के दौरान वह अर्जुन सिंह के संपर्क में आए थे। सीधी अर्जुन सिंह का क्षेत्र था और युवा अधिकारी के तौर पर जोगी उन्हें प्रभावित करने में पूरी तरह सफल रहे थे। बाद में रायपुर में कलेक्टर रहते हुए वह तब इंडियन एअरलाइंस में पायलट राजीव गांधी के संपर्क में आए।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब जोगी इंदौर में जिलाधिकारी के तौर पर पदस्थ थे और सबसे लंबे समय तक डीएम बने रहने का रिकार्ड उनके नाम हो चुका था। जून 1986 में उन्हें पदोन्नति के आदेश जारी हो चुके थे और जोगी इंदौर जिले में उनकी विदाई के लिए हो रहे आयोजनों में व्यस्त थे जब प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें फोन कर नौकरी से इस्तीफा देने और राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने को कहा गया।
अपने एक संस्मरण में जोगी ने लिखा है कि वह बहुत धर्मसंकट में थे और अंत में पत्नी रेणु जोगी व मित्र दिग्विजय सिंह की सलाह मानते हुए उन्होंने नामांकन दाखिल करने का फैसला किया। जोगी ने लिखा है कि दिग्विजय सिंह ने उन्हें समझाते हुए न केवल राज्यसभा का प्रस्ताव स्वीकार करने की सलाह दी थी बल्कि यह भविष्यवाणी भी की थी कि राजनीति में उनका भविष्य बहुत उज्ज्वल है।
जोगी के अनुसार, दिग्विजय ने कहा था, ‘‘भविष्य में कभी प्रदेश में किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो उसका गौरव भी मुझे ही हासिल होगा।’’ यह संयोग ही था कि जब छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अजीत जोगी के नाम पर मुहर लगाई तो राज्य के नेताओं व विधायकों के बीच सहमति बनाने की जिम्मेदारी उन्होंने उस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को ही सौंपी।
कांग्रेस में आगे बढ़ने में जोगी को उनकी आदिवासी पृष्ठभूमि और नेतृत्व (गांधी परिवार) से नजदीकी का भरपूर फायदा मिला। लंबे समय तक वह गांधी परिवार के विश्वस्त नेताओं में रहे। एक समय कांग्रेस के भविष्य के नेताओं में उनकी गिनती होने लगी थी। मुख्यमंत्री बनने के पहले कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर उनका कार्यकाल आज भी याद किया जाता है। पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस के प्रवक्ताओं के तौर पर जो प्रमुख नेता पत्रकारों के बीच लोकप्रिय रहे उनमें महाराष्ट्र से पार्टी के प्रमुख नेता वी एन गाडगिल और उनके बाद जोगी ही थे।
नौकरशाह के तौर पर मिले प्रशिक्षण ने जोगी की वरिष्ठ नेताओं के बीच पहुंच आसान बनाने में काफी सहायता की और इसका पूरा फायदा उन्होंने जानकारियां हासिल करने और उन्हें सुविधानुसार मीडिया तक पहुंचाने में उठाया। प्रवक्ता के तौर पर उनकी जो राष्ट्रीय छवि बनी उसने उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाने में काफी मदद की।
जोगी जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने तब उनके सामने तीन बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्यामा चरण शुक्ल, उनके भाई विद्या चरण शुक्ल और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज थे। लेकिन इन सबका दावा खारिज कर सोनिया गांधी ने जोगी को प्राथमिकता दी। जोगी का सबसे बड़ा तर्क होता था कि ‘‘ये लोग कैसे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बन सकते हैं, इनमें से कोई भी स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा में बात नहीं कर सकता।’’ यह सही भी था। शुक्ल बंधु मूलत: उत्तर प्रदेश से थे और वोरा राजस्थान से। लेकिन, जोगी को प्राथमिकता मिलने का कारण छत्तीसगढ़ी बोलने और समझने की उनकी योग्यता नहीं बल्कि उनका गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान होना था। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी की ओर से की गई यह पहली महत्वपूर्ण नियुक्ति थी।
छत्तीसगढ़ विधानसभा के लिए पहले चुनाव 2003 में हुए और जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस यह चुनाव हार गई। मगर, जोगी को तब तक यह गुमान हो चला था कि उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता। इस दौरान हुए एक स्टिंग आपरेशन से पता चला कि वह और उनके बेटे अमित जोगी भाजपा की सरकार गिराने के लिए कथित तौर पर विधायकों को पैसे की पेशकश कर रहे थे। इस कांड के छींटे सोनिया गांधी पर भी पड़े और यहीं से जोगी व गांधी परिवार के बीच दूरियां बननी शुरू हुईं। बावजूद इसके किसी विकल्प के अभाव में कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें अगले चुनाव में भी मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया। लेकिन तब तक यह साफ हो चुका था कि न तो कांग्रेस नेतृत्व जोगी को और सहने के पक्ष में है और न ही जोगी की नेतृत्व में कोई आस्था बची है।
कांग्रेस में ठीक से बने रहने के लिए उनके पास एकमात्र सबसे बड़ी पूंजी के तौर पर सोनिया गांधी का विश्वास था और इसे गंवाने के बाद उनका जो हश्र होना था वही हुआ।
जोगी खुद को छत्तीसगढ़ के ली-क्वान यू (आधुनिक सिंगापुर के निर्माता) के तौर पर देखते थे। जोगी का मानना था कि राजनीति के क्षेत्र में दांव पेंच, कूटनीति और छलकपट के बिना सफलता प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। लेकिन, उनका मानना था कि, ली क्वान यू ने साबित किया कि इन सबके बिना भी आप सफल हो सकते हैं अगर आप कर्तव्यनिष्ठ और निष्ठावान हों तो।
मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर जोगी ने नए राज्य की आधारशिला को मजबूत करने के लिए कई दूरदर्शी फैसले लिए, लेकिन इस बीच में वह ली-क्वान यू के उन दो गुणों को भूल गए जो उनके ही शब्दों में सिंगापुर के महान नेता को बाकी राजनीतिज्ञों से अलग बनाते थे - कर्तव्यनिष्ठ और निष्ठावान होना।