जब ज्योत्सना की मशक्कत से खेतों में रुपये की तरह बरसने लगे अंगूर के गुच्छे
नासिक के गांव लोनवाड़ी की ज्योत्सना गौड़ ने उच्च शिक्षा के बावजूद अपने कठिन संघर्ष से सफलता की एक ऐसी दास्तान लिखी कि वर्ष 2018 में उनको ‘कृषिथोन बेस्ट वुमन किसान अवॉर्ड’ से राज्य सरकार ने सम्मानित किया और बार-बार चारपाई पकड़ते रहे कृषक पिता की खुशियां परवान चढ़ने लगीं।
अंगूर की बेटी अपने शब्दार्थ में नशे का पर्याय है लेकिन जब अंगूर की खेती में किसी किसान की बेटी सफलता का पर्याय बन जाए तो अनर्थ का नया अर्थ हो जाता है। जीवन की कड़वी चुनौतियों को कुछ ऐसा ही अर्थ देते हुए नासिक (महाराष्ट्र) के गांव लोनवाड़ी की ज्योत्सना गौड़ ने उच्च शिक्षा के बावजूद अपने कठिन संघर्ष से सफलता की एक ऐसी दास्तान लिख डाली कि वर्ष 2018 में उनको ‘कृषिथोन बेस्ट वुमन किसान अवॉर्ड’ से राज्य सरकार ने सम्मानित किया और बार-बार चारपाई पकड़ते रहे कृषक पिता की खुशियां परवान चढ़ने लगीं।
ज्योत्सना के पिता विजय गौड़ अंगूर की खेती से अपनी घर-गृहस्थी नैया पार लगाते रहे थे, इस इंतजार में कि बेटी बड़ी होकर उन्हे किसानी की थकान से एक न एक दिन जरूर मुक्त कर देगी लेकिन वक़्त को तो कुछ और ही मंजूर था। उनके साथ हुई दो दुखद अनहोनियों ने पूरी परिवार को गहरे दुष्चक्र में ऐसा उलझाया कि घर चलाना दुश्वार हो गया।
वैसे भी वक्त के आगे कहां किसी की चल पाती है। उसकी मार पड़े तो सबकुछ धरा रह जाता है। विजय गौंड वकील बनना चाहते थे, शादी हो गई, किसान बन गए। पत्नी डॉक्टर बनने के सपने देखा करती थीं, 12वीं के पढ़ाई थम गई। एक बेटी हुई ज्योत्सना तो उसमें अपने भविष्य के सपने देखने लगे। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल ज्योत्सना के अपने कुछ और सपने थे लेकिन उनके साथ भी वक़्त खेलने लगा।
ज्योत्सना छह साल की, भाई एक साल का, दुर्घटना में पिता के पैर की हड्डियां टूट गईं और सात महीने तक अस्पताल में पड़े रहे। मां अंगूर की खेतीबाड़ी संभालने लगीं। ज्योत्सना को भी ले जाने लगीं। बारह साल की होते-होते ज्योत्सना ने खेती के ज्यादातर गुर सीख-जान लिये। मां को मुश्किल में इससे बड़ी मदद मिली। ज्योत्सना स्कूल से लौटकर होमवर्क के बाद अपने खेतों की ओर निकल जातीं। वहीं पढ़ते-पढ़ते मां का हाथ बंटाने लगीं। इस तरह धीरे-धीरे अंगूर की खेती की पूरी जिम्मेदारी उनके मत्थे आ गई।
बात 2010 की है। एक दिन ऐसा आया कि वक़्त ने नया जख़्म दे दिया विजय गौड़ उर्वरक खरीदने बाजार गए तो दुर्घटना में दोनो पैर हमेशा के लिए गंवा बैठे। एक बार फिर पूरे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उस समय ज्योत्सना कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई कर रही थीं। पिता के चारपाई पकड़ लेने से कंप्यूटर की पढ़ाई कम, अंगूर की खेती में ज्यादा वक़्त-मशक्कत का मुश्किल समय कठिन चुनौती की तरह आ खड़ा हुआ।
अब पढ़ाई और खेती साथ-साथ होने लगी। घर से कॉलेज 18 किलोमीटर दूर, दो बार बसें बदलकर, उसके बाद दो किलोमीटर पैदल चलकर पहुंचती क्लास अटेंड करतीं, फिर उतना ही समय लौटने में भी। अब उनकी दिनचर्या बदल गई। सुबह जल्दी से उठकर कॉलेज निकल जाना और लौटकर खेतों में जुट जाना। इसी बीच उन्होंने ट्रैक्टर चलाना भी सीख लिया। कंप्यूटर में मास्टर्स पूरा करने के बाद उनको कैंपस में सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट कंपनी नौकरी तो मिल गई लेकिन डेढ़ साल बाद नौकरी छोड़कर 2017 में वह पूरा वक़्त अंगूर की खेती में लगाने लगीं।
तब तक वह बड़े हो चुके अपने भाई की पढ़ाई-लिखाई और घर खर्च के लिए भी नौकरी से इतने पैसे जुटा लिए थे कि आर्थिक तंगी की नौबत नहीं आई। उसके बाद वह पूरे छह महीने तक अंगूर की खेती में रात-दिन एक किए रहीं। अब जैसे-जैसे अंगूर के पौधे बड़े हो रहे थे, उनकी किस्मत का दरवाजा भी खुलता जा रहा था। एक सफल किसान की तरह ज्योत्सना की राह आसान होने लगी।
उनकी देखभाल, मेहनत से अंगूर की बेलें खूब छतनार हो उठीं। अब तो ज्योत्सना के पास खेती के लिए वक़्त ही वक़्त था। खेती तो संभल ही चुकी थी, उन्होंने अतिरिक्त पैसे जुगाड़ने के लिए एक स्थानीय स्कूल में टीचर की नौकरी भी कर ली लेकिन पहले खेती, बाद में नौकरी उनकी प्राथमिकता रही। जब सिर्फ उनकी मेहनत से अंगूर की पहली फसल ने निहाल किया, कमाई लाखों की हुई तो खुशी से उनके माता-पिता की आंखों में बरबस आंसू निकल आए और फिर मिला ज्योत्सना को ‘कृषिथोन बेस्ट वुमन किसान अवॉर्ड’।