यूपी के इस गांव की लड़कियों पर बनी फिल्म को मिली ऑस्कर में एंट्री
जब लड़कियों का कोई समूह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए खुद सेनेटरी पैड बनाकर बेचने, महिलाओं को जागरूक करने लगे और उनके इस काम पर फोकस डॉक्यूमेंट्री 'पीरियड- एंड द सेंटेंस' ऑस्कर के 91वें एकेडमी अवॉर्ड्स में शॉर्टलिस्ट हो जाए, फिर तो उन्हें अपनी इस बेमिसाल कामयाबी पर फ़क्र क्यों न हो! यह फिल्मी नहीं, एक सच्ची दास्तान है, जो देश की आधी आबादी को नई राह दिखा रही है।
इस बार ऑस्कर के 91वें एकेडमी अवॉर्ड्स में एक इंडियन डॉक्यूमेंट्री 'पीरियड- एंड द सेंटेंस' (शॉर्ट फिल्म) का भी नाम जुड़ गया है। इसे ऑस्कर्स के शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री कैटेगरी में दुनियाभर की नौ और शॉर्ट डॉक्यूमेंट्रीज़ के साथ नॉमिनेट किया गया है। उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश के लिए ये फ़ख्र की बात है कि ये डॉक्युमेंट्री यूपी के हापुड़ के पास काथीखेड़ा गांव में कुछ महिलाओं के एक समूह पर फोकस है। ये महिलाएं लो-कॉस्ट मशीन से सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाती हैं। इस समूह में शामिल सात महिलाएं रोजाना कम से कम छह सौ पैड बनाती हैं। इस समूह का नाम है 'ऐक्शन इंडिया' एनजीओ।
सुमन के घर में उनका कार्यस्थल है, जानवरों के बाड़े से सटी दो कमरों वाली एक छोटी सी फैक्ट्री, जिसमें वे लकड़ी की लुगदी से इको-फ्रेंडली सैनिटरी नैपकिन बनाती हैं। इस समूह में काम करने वाली लड़कियां शुरुआत में लज्जा के कारण अपने घर वालों को इस काम के बारे में नहीं बताती थीं। छह नैपकिन वाले एक पैकेट से उन्हें तीस रुपए यानी कुल छह सौ पैकेट के 18,000 रुपए के पैड तैयार हो जाते हैं। महिलाओं की घर बैठे हर महीने दो हजार रुपए की कमाई हो जाती है। इस समूह में काम करने वाली एक लड़की राखी तो इसी कमाई से एमए की पढ़ाई की फीस दे रही है। आगे चलकर वह लेक्चरर बनना चाहती है। इसी तरह बीएससी कर रही आर्शी डॉक्टर बनना चाहती हैं।
बिहार की राजधानी पटना के नज़दीक स्थित एक गाँव में सैनिटरी पैड बनाने का काम तो बंद हो गया है और उससे जुड़ी महिलाएँ बेरोज़गार हो गई हैं लेकिन इस काम ने गाँववालों और इस काम से जुड़े लोगों की सोच पर गहरा असर डाला है। महिलाओं और गाँववालों के अंदर इस विषय को लेकर संकोच और शर्म कम हुई है। कभी पैड बनाती रहीं फुलवारीशरीफ के नीरपुर गांव की धनवंती और हीरामनी अब गोबर के उपले बनाकर बेचती हैं। वे सैनिटरी नैपकिन की पैकेजिंग करती थीं। आठ नैपकिन का एक पैकेट तैयार करने पर उन्हें 50 पैसे मिलते थे।
वे बताती हैं कि जब नैपकिन पहली बार देखा तो सब औरतें उसको छू–छू कर हंसती थीं और जब प्रशिक्षण देने वाले पानी भरे गिलास में नैपकिन डुबोते थे, तो उनको लाज आती थी लेकिन दो माह में ही शर्म का ये दायरा सिमट गया था। ऑस्कर के लिए शॉर्टलिस्ट हुई शार्ट फिल्म ‘पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस’ की कहानी हापुड़ के एनजीओ 'ऐक्शन इंडिया' से जुड़ी महिलाओं के समूह पर भले केंद्रित हो, यह आम भारतीय महिला के संघर्षों की दास्तान लगती है। उस समूह में काम कर रही तेईस वर्षीय स्नेहा पुलिस में भर्ती होना चाहती हैं। उन्होंने अपने घर वालो को बता रखा है कि वह एक डाइपर फैक्ट्री में नौकरी करती हैं। अब तो वह महिलाओं को इस दिशा में जागरूक करने लगी हैं। अब उन्हे अपने घर वालों से भी इस काम में मदद मिलती है।
'पीरियड- एंड द सेंटेंस' डाक्यूमेंट्री बनने की दास्तान भी कुछ कम फिल्मी नहीं है। दो साल पहले यह डाक्यूमेंट्री जिला गाजियाबाद के काथीखेड़ा गांव (हापुड़) में शूट की गई थी। सेनेटरी पैड बनाने वाली इन महिलाओं के बारे में जब लॉस एंजिलिस शहर (अमेरिका) के एक स्कूल की दस छात्राओं और उनकी इंग्लिश टीचर को पता चला कि हापुड़ में कई लड़कियां पीरियड्स की वजह से स्कूल छोड़ देती हैं तो उन्होंने पैड मेकिंग मशीन के लिए फंड डोनेट किया। अपनी टीचर मेलिसा बर्टन की मदद से उन्होंने एनजीओ गर्ल्स लर्न इंटरनैशनल ऐंड ऐक्शन इंडिया के साथ पार्टनरशिप की।
उसके बाद उन्होंने पड़ोस के सुधना गांव में एक दूसरी यूनिट की स्थापना भी की है। जहां सात महिलाएं काम कर रही हैं। दो और यूनिट की प्लानिंग है लेकिन सैनिटरी पैड बनाने के बाद भी महिलाओं को कपड़े के बजाय पैड का इस्तेमाल करने के लिए मनाना काफी मुश्किल काम है। फ्लाइ टीम डोर-टु-डोर डिलिवरी करती है। उन्होंने अपने साथ आशा और आंगनबाड़ी की महिलाओं को भी जोड़ रखा है। अब तो हापुड़ के महिला समूह में काम करने वाली स्नेहा, आर्शी, राखी आदि के लिए ऑस्कर की शॉर्टलिस्ट में जगह मिल जाने पर बहुत गर्व और रोमांचक होता है।
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