मिलें देश के उन गौ सेवकों से, जिनके लिए गो सेवा है सबसे बड़ा धर्म
मथुरा की जर्मन गो सेवा व्रती फ्रेडरिक इरिन ब्रुइनिंग उर्फ सुदेवी दासी की तरह ही पंजाब में सलमा, छत्तीसगढ़ में रेणुका, महाराष्ट्र में शब्बीर सैयद और ओडिशा में गणेश प्रसाद बगड़िया पीड़ित-असहाय गायों की सेवा-सुश्रुषा कर रहे हैं। सलमा का तो संकल्प है कि वह उसी से निकाह करेंगी, जो गोसेवा में उनकी मदद करेगा।
बताया जाता है की कान्हा की नगरी मथुरा में पिछले कई दशकों से गायों की सेवा कर रहीं जर्मनी की फ्रेडरिक इरिन ब्रुइनिंग उर्फ सुदेवी दासी के 'सुरभि गो सेवा निकेतन' का मासिक खर्च लगभग 25 लाख रुपए है। संचालन के लिए उनको कुछ तो दानदाताओं से मदद मिल जाती है, बाकी खर्च वह अपने पास से करती हैं। उनको जब राष्ट्रपति के हाथों दिल्ली में पद्मश्री अवॉर्ड से नवाजा गया, मथुरा के लोग अपने लिए भी उसे अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धि मानते हैं। वह कौनहाई गांव में पांच बीघे जमीन किराए पर लेकर असहाय और बीमार गायों को आश्रय और सेवा-सुश्रुषा देती हैं।
इस गौशाला में उनके साथ लगभग अस्सी लोग काम करते हैं। ब्रुइनिंग कुछ समय से इस बात को लेकर परेशान हैं कि यदि उनके वीजा की अवधि समाप्त हो जाने से जर्मनी लौटा दिया गया तो फिर इन गायों का क्या होगा! अपनी वीजा अवधि बढ़ाने के लिए वह अभिनेत्री एवं क्षेत्रीय सांसद हेमा मालिनी से भी गुहार लगा चुकी हैं।
सुदेवी दासी जैसी और भी कई गो पालक महिलाएं आम लोगों से सम्मान पा रही हैं। मसलन, लुधियाना (पंजाब) की सलमा, रायपुर (छत्तीसगढ़) की रेणुका, बनासकांठा (गुजरात) की मर्जिया मूसा आदि। मुस्लिम महिला सलमा कहती हैं- जो करेगा गायों की सेवा, वो खायेगा मेरे रिश्ते का मेवा। लुधियाना (पंजाब) के पायल कस्बे में स्थित सलमा की गौशाला में तैंतीस से ज्यादा गाएं आश्रय पाए हुए हैं। इस गौशाला की नींव सलमा ने अगस्त 2007 में डाली थी। उन दिनो शुरुआत में सलमा एक लावारिस बूढ़ी गाय अपने घर ले आईं। फिर एक बैल ले आईं, जिसका नाम रख दिया 'नंदी'। कुछ दिन बाद दूसरी ऐसी गाय सड़क से धर ले आईं, उसका नाम पड़ा 'गौरी'।
इस तरह एक-एक कर गायों की संख्या बढ़कर 33 हो गई। इस गौशाला की गायों को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है- जगदंबा, पार्वती, मीरा, सरस्वती, राधा, लक्ष्मी, एजाजा, आंसू, जान, गुलबदन, कुमकुम, हनी आदि। इस तरह यह गौशाला साम्प्रदायिक सौहार्द्र की भी मिसाल बन गई है। गायों के साथ गहरे लगावों के कारण तैंतीस वर्षीय सलमा ने अब तक अपना निकाह नहीं किया है। अब तक लगभग छह रिश्ते तो इसलिए बनते-बनते टूट चुके हैं कि सलमा की शर्त है - वह उसी व्यक्ति से शादी रचाएंगी, जो गौशाला चलाने में उनकी मदद करेगा। जब कोई कहता है कि मुस्लिम होकर वह गौशाला कैसे चला सकती हैं, सलमा का जवाब होता है- पशु-पक्षियों का धर्म-सम्प्रदाय से क्या लेना देना।
एक ओर जहां, हमारे देश में अफसर-नेता और संचालक गौशालाओं के सरकारी अनुदान हजम कर जाते हैं, वहीं रायपुर (छत्तीसगढ़) की रेणुका सड़कों पर लावारिस घूमतीं गायों को लाकर सेवा-सुश्रुषा करती हैं। अब तो लोग उन्हे 'गाय वाली आंटी' कहते हैं। वह आधी रात को भी घायल गायों की मदद करने निकल पड़ती हैं। रायपुर शहर में दतरेंगा के पास उनकी गौशाला है। सड़कों पर घायल पड़ी गायों को यहां लाकर रेणुका उनकी देखभाल करती हैं। इस समय उनके ठिकाने पर साठ लावारिस गाएं हैं। इन लावारिसों को वक्त पर खाना देना और हिफाजत करना ही अब रेणुका की जिंदगी का पहला और आखिरी मकसद रह गया है। इस काम में उनके पुत्र राहुल भी पूरी मदद करते हैं।
रेणुका बीते लगभग डेढ़ दशकों से यह काम कर रही हैं। उन्हे याद नहीं कि अब तक कितने ऐसे लावारिसों की वह मदद कर चुकी हैं। हां, राहुल जरूर बताते हैं कि वह लगभग छह सौ ऐसे लावारिसों के डॉक्टरी चेकअप करा चुके हैं। गौशाला में मरने वाले लावारिसों का वे अंतिम संस्कार भी करते हैं। रेणुका को ऐसे लावारिसों की तकलीफ देखी नहीं जाती है। पहले वह रात बारह बजे भी गायों को खाना देने के लिए सड़कों पर निकल जाया करती थीं। लोग उन्हे पागल कहते थे, अब तारीफ करते हैं। हर महीने उनके 45 हजार रुपए गायों के चारे में खर्च हो जाते हैं। शहर के डॉक्टर पदम जैन गायों का निःशुल्क इलाज कर जाया करते हैं। सिटी के पूनम बसाईवाला और प्रवीण झलानी भी टीम भावना से सहयोग करते हैं।
बनासकांठा (गुजरात) का गांव कनोदर इसलिए सुर्खियों में रहता है कि टेक्सास (अमेरिका) की अपनी भरी-पूरी खुशहाली छोड़कर 49 वर्षीय मर्जिया मूसा दो साल पहले भारत लौट आईं और ढाई करोड़ रुपए लगाकर पांच एकड़ के फॉर्महाउस में गायों के साथ मुखी डेरी फ़ार्म' में जिंदगी बसर करने लगीं। यद्यपि यह काम शुरू करते वक्त उनका पहला मकसद व्यावसायिक था, लेकिन गायों के साथ रहते रहते उनका गहरा मानसिक जुड़ाव हो चला है। वह अपनी गायों की निगरानी के लिए 'रेडियो फ्रिक्वेंसी' पहचान प्रणाली का इस्तेमाल करती हैं।
दरअसल, मर्जिया चाहती हैं कि यहां के लोग मिलावटी दूध और उससे बने प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल न करें। उनके फ़ार्म हॉउस में दो दर्जन गाएं हैं। शुरुआत में उन्होंने गायों की देखभाल के लिए तीन महिलाओं को अपने साथ रखा था। उन्हे तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कई बार उनके सहयोगियों पर हमले हुए। उन्हे पुलिस प्रोटेक्शन लेनी पड़ी। अब तो मर्जिया सिर्फ़ गाएं ही नहीं पाल रहीं, पशुओं की बेहतर देखभाल के लिए क्षेत्र के किसानों के लिए जागरूकता अभियान भी चला रही हैं।
एक हैं बीड़ (महाराष्ट्र) में शिरूर कासार तालुका के शब्बीर सैयद, जिन्हे गो सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। पशुवध का आनुवंशिक पेशा छोड़कर शब्बीर गौ वंश का अपने बच्चों की तरह पालन करते हैं। उनका पूरा परिवार शाकाहारी हो गया है। कभी उनके पिता बुदन सैयद बूचड़खाना बंद कर गौरक्षा और गौसेवा का काम करने लगे थे। उस समय शब्बीर सैयद दस साल के थे। होश संभालते ही वह भी पिता के मिशन में जुट गए। 1972 में शब्बीर सैयद दस गाएं खरीद लाए और उनका गो सेवा अभियान शुरू हो गया। इस साल जब अधिकारी उन्हें पद्मश्री सम्मान की सूचना देने गए, वह अपने तबेले में थे।
वह बताते हैं, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने जब उन्हें पुरस्कार के लिए बधाई दी तो उन्हे लगा कि जरूर इसमें कोई खास बात होगी। इससे पहले उन्हें पद्मश्री के मायने नहीं मालूम थे। आज उनकी गौशाला में 175 गाएं हैं। वह दूध बेचते नहीं, गोबर सालाना सत्तर हजार रुपये परिवार के भरण-पोषण के लिए कमाते हैं। उनके काम में पत्नी आशरबी, बेटा रमजान, यूसुफ तथा बहू रिजवान, अंजुम भी हाथ बटाती हैं।
इसी तरह गो सेवा का व्रत निभा रही है राउरकेला (ओडिशा) की वेदव्यास गौशाला। दान के पैसे से गौशाला में बीमार, बूढ़ी गायों की सेवा की जाती है। चार दशक के लंबे इतिहास में सामाजिक सहयोग से संचालित यह गोशाला गोवंश के संरक्षण-संवर्धन की नई मिसाल पेश कर रही है। गाय में देवी-देवताओं का वास होने के धार्मिक सिद्धांत पर आस्था रखने वाले गौ भक्त इनकी सेवा के लिए दान करते रहते हैं। एक हजार से अधिक सदस्य व आजीवन सदस्य तथा दानदाताओं के सहयोग से वर्तमान में यहां 628 गायों की सेवा हो रही है। गौशाला के सुव्यवस्थित संचालन में गृहस्थी परिवार के प्रमुख एवं वेदव्यास गोशाला समिति के अध्यक्ष गणेश प्रसाद बगड़िया की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इस गोशाला में नये गोवंश के आगमन पर मिठाई बांटी जाती है। तब यहां का माहौल उत्सवी हो जाता है।