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उत्तराखंड में भांग की फसल पर फोकस जीपी हेम्प एग्रोवेशन स्टार्टअप

उत्तराखंड में भांग की फसल पर फोकस जीपी हेम्प एग्रोवेशन स्टार्टअप

Friday October 25, 2019 , 7 min Read

"अभी तक सिर्फ विदेशों में भांग से विभिन्न प्रॉडक्ट तैयार करने पर शोध होते रहे हैं लेकिन अब उत्तराखंड का एक स्टार्टअप भी इस दिशा में कदम बढ़ा चुका है। यमकेश्वर ब्लॉक के कपल नम्रता और गौरव कंडवाल ने भांग की फसल पर फोकस जीपी हेम्प एग्रोवेशन स्टार्टअप शुरू किया है। वे भांग के के बीजों से तैयार औषधियां, साबुन, बैग, पर्स आदि बाजार में उतारने के साथ ही अब उससे ईंटें भी तैयार कर रहे हैं।"    

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भांग की खेती (सांकेतिक फोटो)


उत्तराखंड राज्य में 3.17 लाख हेक्टेयर भूमि बंजर है। यहां सिंचाई के साधन न होने, बंदरों, सुअर व अन्य जंगली जानवरों के कारण सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन बढ़ रहा है। ऐसे में यमकेश्वर ब्लॉक के कपल नम्रता और गौरव कंडवाल ने भांग की खेती पर फोकस जीपी हेम्प एग्रोवेशन स्टार्टअप्स शुरू किया है। वे भांग के के बीजों और रेशे से दैनिक उपयोग की वस्तुएं तैयार कर रहे हैं। भांग का नाम आते ही अक्सर लोगों के जहन में सिर्फ नशे का ख्याल आता है लेकिन भांग सिर्फ नशे के लिए ही नहीं बल्कि कई अन्य तरह से भी उपयोगी है।


भांग पर रिसर्च अभी तक सिर्फ विदेशों में ही होती रही है लेकिन बदलते दौर के साथ अब उत्तराखंड के युवा भी भांग की उपयोगिता को समझने लगे हैं। यही कारण है कि अब इसे लेकर लोगों में जागरुकता बढ़ने लगी है। फिलहाल, भांग के बीजों से यमकेश्वर के आर्किटेक्ट दंपति रामबाण औषधियां, साबुन, लुगदी के बैग, पर्स आदि बाजार में उतार चुके हैं। पिछले दिनो वे भांग पर आधारित अपने उत्पादों को लेकर आईआईएम के उत्तिष्ठा-2019 में भी पहुंचे। वे उत्पादों की ऑनलाइन मार्केटिंग भी करते हैं। उनके समूह में आठ लोग हैं। 


नम्रता बताती हैं कि भांग का पूरा पेड़ बहुपयोगी है। इसके बीजों से निकलने वाले तेल से औषधियां बनती हैं। इस तेल को एनाया नाम दिया गया है, जिसका अर्थ केयर करना है। इसका उपयोग खाद्य तेल के रूप में भी किया जा सकता है। इसके अलावा अन्य जड़ी-बूटियों के मिश्रण से तैयार तेल जोड़ों के दर्द, स्पाइनल पैन, सिरोसिज जैसे असाध्य बीमारियों के उपचार में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके पौधे की लुगदी से साबुन भी तैयार किया जा रहा है। भांग के रेशे से धागा बनाकर हस्तशिल्प कारीगरों की ओर से बैग, पर्स, कंडी या अन्य उपयोग की वस्तुएं उत्पादित की जा रही हैं।


कंडवाल दंपति बताते हैं कि भांग के रेशे से ही नोटबुक भी बनाई जा रही है। खास बात यह है कि भांग से निर्मित उत्पादों को सात से आठ बार तक रिसाइकिल किया जा सकता है लेकिन उनके प्रॉडक्शन की शुरुआत छोटे पैमाने पर होने के कारण इसमें मुनाफा कम पड़ रहा है। देश में जल्द ही भांग के पौधों से बनी ईंटों से बनाए घर और स्टे होम नजर आएंगे। यमकेश्वर के इस आर्किटेक्ट दंपति ने इस दिशा में भी काम शुरू किया है। इससे न केवल लोगों को सस्ते दामों में ईंटें मिलेंगी बल्कि युवाओं को रोजगार के साधन भी उपलब्ध होंगे।





नम्रता और उनके पति गौरव का मानना है कि इस दिशा में काम करने से पहाड़ से होने वाले पलायन को रोका जा सकता है। पहाड़ों में भांग के पौधे बड़े स्तर पर मिल जाते हैं। इसलिए कच्चे माल की कमी नहीं है। वे भांग की लकड़ी, चूने और पानी से ईंट बना रहे हैं, जो समय के साथ-साथ कार्बन डाई आक्साइड को सोख लेती हैं। भांग की ईंट और लकड़ी के पार्टीशन से बने भवन टिकाऊ होने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण के लिए भी अनुकूल साबित होते हैं। मध्यप्रदेश में भांग से बनी ईंट का उपयोग किया जा रहा है। नम्रता बताती हैं कि भांग आधारित उद्योग उत्तराखंड के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। आर्किटेक्ट दंपति का कहना है कि भांग की खेती के लिए बेहद कम पानी और समय की जरूरत होती है। 


वह बताते हैं जो ईंटें उनके यहां बनाई जा रही हैं, वह एंटी वैक्टीरियल के साथ ही भूकंप रोधी भी हैं। काम को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने उत्तराखंड हैंप एसोसिएशन बनाई है, जिसमें करीब 15 लोग जुड़े हैं। नम्रता ने बताया कि अब तक उनकी टीम ने भांग के रेशे से साबुन, तेल, डायरी, झोला और घरों के निर्माण में प्रयोग होने वाले ब्लाक तैयार करने में कामयाबी हासिल की है। इन उत्पादों का ऑनलाइन प्रचार प्रसार भी किया जा रहा है, जिसका सकारात्मक परिणाम सामने आया है। आर्किटेक्ट गौरव कंडवाल और नम्रता पहले दिल्ली में रहते थे। नम्रता मूलत: कंडवाल और गौरव भोपाल के रहने वाले हैं। काफी शोध के बाद उन्होंने पहाड़ पर बहुतायत में उगने वाले भांग के पौधों को सकारात्मक रूप से रोजगार का जरिया बनाने का निर्णय लिया। इससे न सिर्फ भांग के प्रति लोगों का नजरिया बदलेगा बल्कि पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन पर भी रोक लग सकेगी। एक साल की मेहनत के बाद दंपत्ति ने न सिर्फ स्वरोजगार का जरिया ढूंढा बल्कि भांग के पौधों से ईंट और अन्य सामान बनाने का काम शुरू किया। 


गौरव ने बताया कि गांवों में रोजगार पैदा करने के लिए एक से 10 लाख रुपए तक में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाई जा सकती है। पॉलिथीन का इस्तेमाल खत्म करने के लिए भांग के पौधे की भूमिका अहम हो सकती है। इसके रेशे से बायो प्लास्टिक तैयार किया जा सकता है। इससे बनी पॉलिथीन या बोतल फेंक देने पर महज छह घंटे में नष्ट हो जाती हैं। अभी भांग के रेशे से तैयार उत्पादों की कास्ट थोड़ा ज्यादा है। वृहद स्तर पर इसका उद्योग लगाया जाए तो इसके उत्पाद काफी सस्ते और पर्यावरण के लिहाज से अनुकूल भी होंगे। उन्होंने बताया कि इस समय ऋषिकेश में भांग के रेशे से तैयार टीशर्ट, बैग, ट्राउजर आदि नेपाल से आयात हो रहा है। यह प्रदेश में ही तैयार होने लगे तो बेहद सहूलियत होगी।





यमकेश्वर के कंडवाल गांव का युवा दंपति इसी की एक नजीर पेश कर रहा है। इस दंपति ने भांग से तरह-तरह के प्रोडक्ट बनाने शुरू कर दिए हैं। जैसे कि ये दोनों भांग के बीज से साबुन, रेशे से धागा, कपड़े और बैग इत्यादि चीजें बना रहे हैं। वहीं, इसके साथ ही भांग के पौध से बड़े-बड़े ब्लॉक्स बनाए जा रहे हैं, जो आजकल भवनों के निर्माण के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। इसके अलावा भांग से कई और तरह की वस्तुएं भी बनाई जा सकती हैं जोकि दैनिक जीवन में प्रयोग की जा सकती हैं।


आर्किटेक्ट गौरव दीक्षित ने बताया कि भांग के पौधे का इस्तेमाल पहले भी किया जाता रहा है। उन्होंने बताया कि एलोरा की गुफाओं में भी भांग के पेंट से ही पुताई की गई थी जो कि आजतक भी खराब नहीं हुई है। दरअसल एलोरा की गुफाओं से पहले अजंता की गुफाएं बनाई गई थीं, जहां पर बनाई गई मूर्तियों में कुछ ही सालों में फंगस लग गई थी, जिसे देखते हुए एलोरा की गुफाओं में मूर्ति बनाने से पहले भांग से पेंटिग की गई, यही कारण है कि आज भी एलोरा की गुफाओं में बनी मूर्तियां सुरक्षित हैं।


गौरव का कहना है कि भांग से बायोप्लास्टिक तैयार कर प्रदूषण पर भी रोक लगाई जा सकती है। बायोप्लास्टिक को आसानी के प्रयोग किया जा सकता है। गौरव अपने गांव में भांग के ब्लॉक बना रहे हैं, जिससे वे घर बनाकर होमस्टे योजना शुरू करने पर विचार कर रहे हैं। गौरव ने कंडवाल गांव में एक लघु उद्योग लगाया गया है, जहां पर भांग से साबुन, शैंपू, मसाज ऑयल, ब्लॉक्स इत्यादि बनाए जा रहे हैं। उनका कहना है कि इन्हें बनाने के लिए यहां बड़ी संख्या में महिलाओं को रोजगार दिया जा रहा है और महिलाएं अपने ही गांव में रोजगार पाकर खुश हैं।