हिमाचल: महिलाओं को सम्मानित करने वाला कार्यक्रम महानाटी
कुल्लू (हिमाचल) में राजा जगत सिंह के वक्त वर्ष 1661 से लेकर आज तक बरकरार लोकोत्सव परंपरा महा नाटी ने अनवरत खास कर आधी आबादी के स्वाभिमान को ऊंचा किया है। खासकर कुल्लू दशहरा के मौके पर होने वाले ऐसे जमावड़े को इस बार चुनाव से जोड़ते हुए एक साथ 5250 महिलाओं को वोट की शपथ दिलाई गई।
हिमाचल में एक लोकप्रिय परंपरा है नाटी। व्यापक स्तर पर जब इसके आयोजन होते हैं, उसे महानाटी कहा जाता है। महा नाटी का उद्देश्य पारंपरिक कुल्लवी नाटी के संरक्षण के साथ महिलाओं को सम्मान दिलाना होता है। त्यौहारों के मौकों पर भी हिमाचल की महिलाओं के इस तरह के सामूहिक जमावड़े होते रहते हैं। अभी अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव के पांचवें दिन जिला प्रशासन और महिला, बाल विकास विभाग के सौजन्य से कुल्लू में 'नारी गरिमा' अभियान के तहत रथ मैदान में महा नाटी का आयोजन किया गया था।
इसमें घाटी की तीन हजार महिलाओं ने पारंपरिक परिधानों में एक साथ महा नाटी डाली। ढालपुर के रथ मैदान में यह लोक नृत्य देखने के लिए हजारों लोग जुटे। नाटी के माध्यम से मासिक धर्म के दौरान महिलाओं से छुआछूत को बंद करने की अपील की गई। महिलाएं पारंपरिक पट्टू, धाठू और आभूषणों के साथ कार्यक्रम में पहुंचीं। जिला कुल्लू में अभी भी कई इलाकों में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को गोशाला में रखा जाता है। इस रूढ़िवादी सोच को खत्म करने के लिए और महिलाओं की गरिमा को बरकरार रखने के लिए प्रशासन ने नारी गरिमा अभियान चलाया है।
आज छठवें चरण का लोकसभा चुनाव थम रहा है। कल 11 मई को वोटिंग के बाद उन्नीस का आखिरी एक चरण और रह जाएगा। तब तक प्रचार का सिलसिला भी चलते रहना है। आम चुनाव की इस लहर में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए सरकारी, गैरसरकारी स्तरों पर जो कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए, उनमें सबसे रोचक-रोमांचक रहा है कुल्लू (हिमाचल) का 'आसरा वोट आसरा अधिकार' की थीम पर ढालपुर के रथ मैदान में आयोजित कुल्लवी नाटी (महा नाटी), जिसे इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में शामिल किया जा चुका है।
कुल्लू जिला निर्वाचन आयोग की पहल पर अभी दो दिन पहले ही नाटी के माध्यम से वोट की लोकतांत्रिक मजबूती का संदेश दिया गया। इस लोकोत्सव में कुल्लू के दूर दराज से पारंपारिक कुल्लवी परिधानों में जुटीं पांच हजार से अधिक महिलाओं को मतदान की शपथ दिलाई गई। इस दौरान सैकड़ों महिलाओं ने एक साथ आधा घंटा तक वोटर आई कार्ड के साथ लोकनृत्य पेश कर महिला सशक्तीकरण का संदेश दिया। इस लोकनृत्य पर पहाड़ी गायकों ने अपने मधुर सुर में खास चुनावी गीत पेश किया। इससे पहले कुल्लू प्रशासन ने 2800 बच्चों को शपथ दिलाई थी। इस अवसर पर बड़ी संख्या में जिले के लोक कलाकारों, सृजनधर्मियों, प्रशासनिक अधिकारियों, समाज सेवी एवं सामाजिक सरोकार रखने वाले लोगों की उपस्थिति रही।
कुल्लू की इस रवायत को 1661 से लेकर आज तक बरकरार रखने में अब तक कई पीढ़ियां बीत चुकी हैं। वर्ष 1661 में जिले भर के कुल 365 देवी-देवताओं ने इस लोकोत्सव में शिरकत की थी। उस वर्ष राजा जगत सिंह ने सभी देवी देवताओं को निमंत्रित किया था। कुल्लू की वादियों में यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है। चुनाव हो या दशहरा मेला, नाटी परंपरा यहां के लोगों को, खासकर आधी आबादी के आपसी रिश्तों को और अधिक प्रगाढ़ कर देती है।
साढ़े तीन सौ साल पुराना कुल्लू दशहरा उत्सव आज भले ही आधुनिकता के रंग में रंग गया हो, देव रवायत पर देव समाज से जुड़े लोगों ने आंच नहीं आने दी है। आज भी इस उत्सव को देव महाकुंभ के नाम से देश और दुनिया में जाना जाता है। इस लोकोत्सव में देवता वही होते हैं, जो साढ़े तीन सौ साल पहले कुल्लू दशहरा शुरू होने के दौरान ले आए जाते रहे थे।
बस इतना फर्क रहा कि उस समय देवी-देवताओं को कंधे पर उठाने वाले कोई और, यानी आज कुल्लू वासियों के पूर्वज हुआ करते थे। इस लोकोत्सव को बचाने के लिए मेले में देवी देवताओं की हाजिरी बहुत जरूरी होती है। सरकारों की तरफ से जब से नजराना दिया जाने लगा, इस उत्सव को जीवनदान सा मिल गया है। वर्ष 2008 में लिए गए एक सरकारी निर्णय के बाद से देवताओं को स्थान और दूरी के हिसाब से नजराना की अतिरिक्त राशि प्रदान की जाती है।
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