हिम्मतवर पिता न होते तो कैसे कामयाब हो पातीं ये गरीब बेटियां!
रांची की खिलाड़ी सुषमा के लिए मजदूर पिता छोटेलाल हॉकी स्टिक के पैसे न होने पर बांस की स्टिक जुगाड़ते रहते। हिमाचल की सृष्टि को उनके पिता ने छोटे से सैलून की कमाई से टीम की कप्तानी तक पहुंचा दिया है। मधुबनी में तो पिता ने चारपाई पकड़ ली तो बेटी प्रिया फर्राटे से दौड़ाने लगीं उनका ऑटो रिक्शा।
यह तीन ऐसी बेटियों की ताज़ा दास्तान है, जिनके पिता श्रमजीवी हैं, जिन्होंने अपने अथक श्रम, अपनी मेहनत-मजदूरी और प्रेरणा से अपनी बेटियों की कामयाबी का मार्ग प्रशस्त किया है। ऐसे पिताओं में एक हैं केरसई, बासेन, कारवारजोर (रांची) की सुषमा कुमारी के मजदूर पिता छोटेलाल बड़ाइक, दूसरे मधुबनी (बिहार) की सड़कों पर अपने बीमार पिता रमेश प्रसाद जायसवाल का ऑटो रिक्शा दौड़ा रहीं प्रिया और सिरमौर (हिमाचल) के गांव माजरा में छोटा सा सैलून चला रहे पिता की हॉकी खिलाड़ी पुत्री सृष्टि।
जूनियर नेशनल हॉकी खेल चुकीं सुषमा को पेनाल्टी शूटआउट में गोल मारने की महारत हासिल है। खिलौना भी पापा, बिछौना भी पापा, जब सीने से लगता है प्रतिबिंब अपना सा तो पापा के दिल को कोई सपना सा लगता है। बेटियों को खुश करने के लिए वे खुद खिलौना बन जाते हैं। उन्हे अगर नींद आ जाए तो खुद उनकी जिंदगी में बिछौने की तरह बिछ जाने से भी वे पीछे नहीं हटते हैं।
श्रमिक पिताओं की ये तीनो बेटियां तो जैसे अपनी मेहनत-मशक्कत, विवेक और सफलता से हर दिन ही 'फॉदर्स डे' की तरह मनाती हैं। झारखंड के रांची जिला मुख्यालय से चालीस किलोमीटर दूर केरसई प्रखंड के बासेन पंचायत स्थित कारवारजोर गांव की सुषमा के हौसलों को तमाम विपरीत परिस्थितियां कमजोर नहीं कर पाई हैं। उनके पिता छोटेलाल बड़ाइक पेशे से मजदूर हैं।
एक वक़्त था, जब हॉकी स्टिक के पैसे न होने पर पिता छोटेलाल सुषमा के लिए बांस की स्टिक का इंतजाम किया करते। उन्होंने अपनी बेटी की राह में गरीबी को कभी आड़े नहीं आने दिया। होनहार बेटी को भी वर्ष 2016 में पंद्रह साल से भी कम उम्र में सीनियर झारखंड महिला टीम में चुन लिया गया। सैफई (उ.प्र.) में आयोजित 5वीं हॉकी इंडिया सीनियर नेशनल चैंपियनशिप के सेमीफाइनल सुषमा के ही शूटआउट ने पहली बार झारखंड टीम को फाइनल में पहुंचाया।
सुषमा इस समय सिमडेगा (रांची) क्षेत्र के केरसई इलाके में रहकर नए-नए कीर्तिमान बना रही हैं। पिता छोटेलाल बताते हैं कि बेटी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हे कई बार ज्यादा मजदूरी करनी पड़ी है। आज उन्हे अपनी बेटी की कामयाबी पर गर्व होता है। सुषमा ने शुरुआती शिक्षा उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय करंगगुड़ी से प्राप्त की है। वहीं के फादर बेनेदिक्त कुजूर ने सुषमा को हॉकी की एबीसीडी सिखाई। उसके बाद 2012 में सुषमा का सिमडेगा में आवासीय हॉकी सेंटर के लिए चयन हो गया। उसके बाद से तो सुषमा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसने अपनी टीम को कई पदक दिलाए। सुषमा ने ही सबजूनियर नेशनल 2014 के सेमीफाइनल में पेनाल्टी शूटआउट में गोल कर पहली बार झारखण्ड टीम को उपविजेता का तमगा दिलाया।
सिरमौर (हिमाचल) के करीब दो हजार की आबादी वाले सृष्टि के गांव माजरा में तो जैसे हर युवा का दिल हॉकी के लिए ही धड़कता रहता है। इस गांव में अल सुबह खेल के मैदान में अभ्यास के लिए युवाओं का हुजूम उमड़ पड़ता है। इसी गांव की ओर से सीता गोसाई और गीता गोसाई नेशनल खेल चुकी हैं। गांव माजरा में सृष्टि के पिता का एक छोटा सा सैलून है। इसी सैलून की आमदनी से घर का खर्च चलता है। पिता की आमदनी इतनी नहीं रही कि वह बेटी की हर इच्छा पूरी कर पाते।
इस वजह से हॉकी में सृष्टि की गहरी अभिरुचि का सम्मान करते रहने के लिए कई बार उनको दूसरों की मदद लेनी पड़ी। मसलन, कोच उसे फूड सप्लीमेंट लेने के लिए कहते तो पिता को इधर-उधर लोगों के सामने हाथ फैलाना पड़ता ताकि उसका हौसला कम न हो। ऐसे में सृष्टि को अपने सीनियर्स से मदद मिल जाया करती। अब तो सृष्टि पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़ी होकर अपने पिता का सैलून और बड़ा कराने के सपने देखती हैं। सृष्टि बताती हैं कि जब वह अपने गांव की लड़कियों को मैदान पर हॉकी खेलने जाते देखतीं तो हॉकी थामने के लिए उनका भी मन मचल उठता।
आखिरकार, एक दिन वह भी उसी टोली में शामिल हो चलीं। अपने गांव के उस छोटे से ग्राउंड में उन्हें भी हॉकी की ट्रेनिंग मिलने लगी। दूसरे साल में ही उनका स्टेट टीम में चयन हो गया। अब तक वह तीन स्कूली नेशनल और दो सब जूनियर नेशनल खेल चुकी हैं। अब तो वह एक नेशनल टूर्नामेंट में अपनी टीम का कप्तान भी रह चुकी हैं। पुरुष सीनियर हॉकी टीम के कप्तान मनप्रीत सिंह उनके रोल मॉडल हैं। सृष्टि गायन और डांस में भी रुचि रखती हैं।
मधुबनी (बिहार) की प्रिया जायसवाल का भी घरेलू जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। उनके पिता रमेश प्रसाद जायसवाल ऑटो रिक्शा चलाकर पूरे परिवार का भरण-पोषण करते रहे लेकिन एक दिन वह इतने अस्वस्थ हो चले कि फिर ऑटो चलाने की हिम्मत नहीं जुटा सके। रोजमर्रा में कोई कमाई न होने से घर की रोजी-रोटी थम गई। जब कुल आठ लोगों के इस परिवार को कहीं से किसी तरह की मदद का कोई रास्ता नहीं सूझा तो बीस साल की प्रिया का हौसला पूरे परिवार के काम आया। पिता की स्टेयरिंग प्रिया ने संभाल ली।
वह मधुबनी की सड़कों पर ज्यादातर पुरुष चालकों के बीच बेझिझक अपने पिता का ऑटो रिक्शा दौड़ाने लगीं। शुरुआत में जब वह अपना ऑटो रिक्शा लेकर निकलतीं, कुछ लोग फब्तियां कसने से बाज नहीं आते थे। पुरुष सवारियां उनके ऑटो में बैठने से कतराती भी थीं कि पता नहीं कैसे चलाएगी। प्रिया को सबसे ज्यादा पुरुष ऑटो चालक ही परेशान करते लेकिन उन्होंने किसी बात का तनाव न लेते हुए चुपचाप अपनी ऑटो की कमाई से परिवार की आर्थिक स्थिति तो थामी ही, पिता रमेश प्रसाद जायसवाल के जरूरी दवा-इलाज में भी कोई लापरवाही नहीं बरती। अब तो अन्य पुरुष चालकों और सवारियां का नजरिया उनके साथ सामान्य सा रहने लगा है।