भारत में सैकड़ों भाषाएं, लाखों जैव प्रजातियां और जानवर हो रहे विलुप्त
लगभग पंद्रह हजार वैज्ञानिकों के एक समूह 'ग्लोबल असेसमेंट' ने लगातार तीन साल तक समीक्षा, रिसर्च और उस पर चिंतन मनन में पाया है कि दुनिया की लगभग दस लाख अभूतपूर्व प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। दूसरी तरफ भाषा विज्ञानियों के रिसर्च से पता चला है कि पिछले साढ़े पांच दशक के भीतर ही भारत ने अपनी 220 भाषाओं को खो दिया है। मातृ भाषाओं की मौत की सबसे बड़ी वजह बना है ग्लाबलाइजेशन।
विश्व मानवता के लिए आज यह विषय कितना गैरजरूरी हो चुका है कि सत्ताजीवी शक्तियों की मनमानी, अकादमिक प्रतिष्ठानों की उपेक्षा और आधुनिक चकाचौंध में सराबोर होते रहने की व्यस्ताओं के कारण दुनिया की हजारों भाषाएं मर रही हैं, लगभग दस लाख जैव प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। पिछले साढ़े पांच दशक के भीतर ही भारत ने अपनी 220 भाषाओं को खो दिया है। मातृ भाषाओं की मौत की सबसे बड़ी वजह बना है ग्लाबलाइजेशन।
लोग जहां जा रहे हैं, वहीं की भाषा के हो जा रहे हैं। यद्यपि ताज़ा भारतीय अनुसंधान में 1100 में से 850 भाषाएं तो मिल चुकी हैं, फिर भी सैकड़ों लापता हैं। भाषा रिसर्च-पब्लिकेशन सेंटर पीपुल लिंगुइस्टिक वड़ोदरा (गुजरात) के अनुसार 1962 में हमारे देश में 1100 भाषाएं बोली जाती थीं लेकिन उनमें से सैकड़ों विलुप्त हो चुकी हैं। खोखली आधुनिकता की विडंबना देखिए कि भारत समेत पूरे विश्व में बंजारों, आदिवासियों, पिछड़े समाजों की भाषाएं लगातार नष्ट हो रही हैं।
यह कितने हैरत की बात हो सकती है कि आज लाखों लोग अपने मूल भाषा स्रोत ही भूल चुके हैं। भारत में अपनी भाषाएं को चुके ज्यादातर लोग बंजारा समुदाय के हैं। हिंदी के प्रथम समांतर कोश (थिसारस) लेखक अरविंद कुमार ने हिंदी भाषा को समृद्ध किया है। वह सवाल उठाते हैं कि हिंदी ने आखिर क्यों अपनी खिड़कियां बंद कर ली हैं। आज हिंदी ही नहीं, भारत की ही कई दूसरी भाषाओं के सामने यह सवाल ज़्यादा बड़ा है कि क्या वे हिन्दी के सामने अपना अस्तित्व बचा पाएंगी? आज क्यों पंजाबी को अंग्रेज़ी से ज़्यादा हिन्दी से ख़तरा है? भाषाएँ संस्कृति और विचार का वाहक होती हैं। अन्य भाषाओं से दूर रहने का परिणाम होगा, अपनी ही संस्कृति और विचार का संकुचित होते-होते खत्म होने की कगार पर पहुंच जाना।
भाषा के प्रश्न के साथ ही दुनिया में विलुप्त होने की कगार पर खड़ी दस लाख प्रजातियों का सवाल भी आज हमे घेरे हुए है। हाल ही में यूनाइटेड नेशन की एक रिपोर्ट से पता चला है कि दुनिया की लगभग दस लाख अभूतपूर्व प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। रिपोर्ट के हवाले से निष्कर्ष निकला है कि वैश्विक आर्थिक और वित्तीय सिस्टम का व्यापक परिवर्तन ही पारिस्थितिक तंत्र को खींच सकता है जो पूरे विश्व के लोगों के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जो इस समय पतन के कगार पर हैं। इस निष्कर्ष को अमेरिका, रूस और चीन सहित 130 देशों ने अपना समर्थन दिया है। जातियों की विलुप्ति का यह नुकसान इंसान की गतिविधियों का सीधा परिणाम है और दुनिया के सभी क्षेत्रों में यह पूरी मानवता के लिए खतरा है। पचास देशों के लगभग डेढ़ सौ लेखकों के एक सम्मेलन में मंथन हुआ है कि कई दशकों में पृथ्वी के लगभग आठ मिलियन पौधे, कीट और जानवरों की प्रजातियों में से एक मिलियन तक के विलुप्त होने का खतरा है।
इतनी बड़ी संख्या में प्रजातियों के विलुप्त होने की वजह मुख्यतः औद्योगिक खेती और मत्स्य पालन को माना गया है। पिछले 10 मिलियन वर्षों की तुलना में इस समय सौगुना अधिक प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। लगभग 15 हजार वैज्ञानिकों के समूह ग्लोबल असेसमेंट ने लगातार तीन साल तक इस घातक हालात की समीक्षा और उस पर चिंतन मनन किया। समीक्षा के केंद्र खाद्य-फसलों के लिए जरूरी कीटों के खत्म होने से लेकर कोरल रीफ्स का समर्थन करने वाली मछली का पक्ष रखने वाले खतरों की सूची तक विचारणीय रही है, जो तटीय समुदायों और औषधीय पौधों का नुकसान पहुंचा रहे हैं। विलुप्त होने वाली जैव प्रजातियों में चालीस प्रतिशत से अधिक उभयचर प्रजातियां, 33 प्रतिशत मूंगा और एक तिहाई से ज्यादा समुद्र स्तनधारी जीव हैं। कीट प्रजातियों के बारे तस्वीर स्पष्ट नहीं है लेकिन एक अनुमान है कि कीट प्रजातियों की 10 प्रतिशत प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर हैं।
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