सिर्फ़ तीन हफ़्ते में इस अंग्रेज ने खींची थी भारत के बंटवारे की रेखा
लम्बी लड़ाई के बाद भारत आज़ाद हो रहा था. आज़ादी की ख़ुशी पर बंटवारे के दुःख का साया था. सिर्फ़ तीन हफ़्ते में खींच दी गयी थी वह रेखा जिसने एक देश के दो टुकड़े कर दिए. इस काम के लिए आख़िरी वायसराय माउंटबेटन ने सिरिल रैडक्लिफ़ को चुना.
दूसरे विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद 1945 के चुनाव में ब्रिटेन की लेबर पार्टी को जीत मिली. लेबर पार्टी ने अपने चुनावी वादों में कहा था कि उसकी सरकार बनी, तो ब्रितानी उपनिवेशवाद को खत्म किया जाएगा यानी भारत सहित ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम कई देशों को आज़ादी दी जाएगी. लेबर पार्टी की सरकार बनते ही ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली ने 20 फरवरी, 1947 को हाउस ऑफ कॉमन्स में घोषणा कर दी कि उनकी सरकार ने 30 जून, 1948 से पहले सत्ता का हस्ताांतरण कर भारत छोड़ने का फैसला किया है.
'माउंटबेटन प्लान'
भारत को आज़ादी देने की पूरी कार्रवाई के लिए आखिरी वायसराय के तौर पर ब्रिटिश हुकूमत ने फरवरी 1947 में माउंटबेटन को नियुक्त किया. माउंटबेटन ने एक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसे ‘माउंटबेटन प्लान’ के नाम से भी जाना जाता है. प्रस्ताव था कि ब्रिटिश हुकूमत 30 जून 1948 को सत्ता भारत को हस्तांतरित करे. जून 1948 में आज़ादी देने के माउंटबेटन के प्रस्ताव का विरोध हुआ. जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच भारी मतभेद थे और देश में दंगे होने शुरू हो गए थे. इन हालात और भारतीय नेताओं का विरोध देखते हुए तारीख बदली गई.
भारत को आज़ादी तय किये गए साल से एक साल पहले मिली. 31 मई, 1947 को माउंटबेटन लंदन से सत्ता के हस्ताांतरण पर मंजूरी लेकर नई दिल्ली लौटे थे.
2 जून, 1947 को उन्होंने एक मीटिंग की जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता शामिल थे. इस बैठक में विभाजन की योजना पर मोटे तौर पर सहमति बनी थी.
अगले दिन 3 जून, 1947 को शाम क़रीब सात बजे सभी प्रमुख नेताओं ने दो अलग देश बनाने पर अपनी सहमति का औपचारिक एलान कर दिया. सबसे पहले लॉर्ड माउंटबेटन बोले. उसके बाद हिंदी में नेहरू बोले, "पीड़ा और यातना के बीच भारत के महान भविष्य का निर्माण हो रहा है." उसके बाद मोहम्मद अली जिन्ना ने सहमति में अपनी बात रखी. विभाजन की सहमति रेडियो से अनाउंस हो रही थी.
दिल्ली में 4 जून, 1947 को माउंटबेटन ने एक ऐतिहासिक पत्रकार सम्मेलन को संबोधित किया. जैसे ही वायसराय ने पहले के समय से लगभग एक साल पहले सत्ता हस्ताांतरण योजना की घोषणा की, उसके बाद कई प्रश्न पूछे गए. सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न जनसंख्या के स्थानांतरण के बारे में था. वायसराय का उत्तर था: "व्यक्तिगत रूप से मैं कोई दिक्कत नहीं देखता, स्थानांतरण के कुछ उपाय स्वाभाविक रूप से आएंगे... लोग अपने आप को स्थानांतरित कर लेंगे...."
माउंटबेटन कितने गलत साबित हुए. विभाजन के फलस्वरूप 1.3 करोड़ लोग अपनी जड़ों से उखड़ कर विस्थापित होने के लिए बाध्य कर दिए गए थे.
उसी प्रेस कॉन्फ्रंस में, स्वतंत्रता की तारीख की घोषणा करने के प्रश्न पर वायसराय चुप रह गए. उन्होंने तारीख सोची ही नहीं थी तब तक. सवाल बना हुआ था- तारीख़ कौन-सी होगी? माउंटबेटन ने तारीख उसी वक़्त तय की. बाद में माउंटबेटन ने अपने इस निर्णय के बारे में बताते हुए कहा था कि उन्होंने 15 अगस्त की तारीख इसलिए चुनी थी क्योंकि यह वही तारिख वही थी जब 1945 में दुसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जापान ने आत्मसमर्पण किया था.
अगला कदम सबसे मुश्किल था. देश का बंटवारा कैसे होगा? क्या होगा भारत और पाकिस्तान को बांटने वाली सीमाएं?
कैसे खिंची गयी बंटवारे की रेखा?
जून 1947 में माउंटबेटन ने सर सिरिल रैडक्लिफ (बैरिस्टर) को विभाजन के लिए रेखा खींचने का काम सौंपा. रैडक्लिफ को दो सीमा आयोगों की अध्यक्षता करने के लिए कहा गया - एक बंगाल के लिए और एक पंजाब के लिए. उनके पास रेखा खींचने के लिए महज तीन सप्ताह था. दो देशों के भविष्य के लिए तीन हफ़्ते का वक़्त!
दूसरी विडम्बना यह थी कि विभाजन के लिए बुलाये गए सर रैडक्लिफ पहले कभी भारत नहीं आए थे. उनके पास भारत के हिन्दू-मुस्लिम समुदायों की साझा विरासत, उनकी जीवन शैली और सदियों पुराने उनके सह-अस्तित्व की जटिलताओं को समझने का कोई तरीका नहीं था. हालांकि माउंटबेटन के अनुसार उन्होंने रैडक्लिफ को इसीलिए चुना था कि वे भारत से अनभिज्ञ थे और कोई भी उन पर पक्षपाती होने का आरोप नहीं लगा सकता था.
सर रैडक्लिफ 8 जुलाई को भारत आए और उन्होंने 12 अगस्त तक अपनी रिपोर्ट पूरी कर ली थी. रैडक्लिफ ही वो शख्स थे जिनकी खींची एक रेखा ने रातों रात एक देश के दो टुकड़े कर दिए. भारत पाक के बीच उस समय खींची गई रेखा को रैडक्लिफ लाइन के नाम से जाना जाता है.
विभाजन रेखा तय करने के अगले ही दिन रैडक्लिफ सीधे ब्रिटेन वापस लौट गए थे. बंटवारे के बाद लाखों की संख्या में लोग अपना घर छोड़ सीमा के आर-पार जाने को मजूबर हुए थे. कहा जाता है कि इस मानवीय त्रासदी को देख रैडक्लिफ कभी भारत लौटकर नहीं आए.