इन लड़कियों की धड़कन में पहले विकास का परचम, फिर सरफ़रोशी की तमन्ना
आज की लड़कियों के बारे में सही कौन बोल रहा, मशहूर लेखिका तसलीमा नसरीन या पत्रकार वुसअतुल्लाह ख़ान! सचाई दोनों के कथन में है लेकिन अलग-अलग तरह की। वह सचाई दोनो ही से पता नहीं चलती, जो उनकी बातों से बहुत बड़ी और जरूरी है। और वह है, आजकल जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आसमान छू रहीं लड़कियां।
पत्रकार वुसअतुल्लाह खान तो भी, एक संभावनाशील सच से हमारा सामना कराते हैं, लेकिन तसलीमा नसरीन की बातें तो हमेशा की तरह किसी बेहतर ऑब्शन की बजाए एक निगेटिव, सेंसेनल अप्रोच से रू-ब-रू कराती हैं। वुसअतुल्लाह ख़ान अपने 'वुसत का ब्लॉग' में बताते हैं कि इस बार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की याद में लगने वाले लाहौर के मेले में हर साल की तरह इक़बाल बानो की गाई नज़्म ही सुनाई पड़ने की बजाए राम प्रसाद बिस्मिल अज़ीमाबादी की 98 वर्ष पुरानी नज़्म 'सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है' गूंजती रही।
वुसअतुल्लाह आगे बताते हैं कि सोशल मीडिया में नई पीढ़ी के लिए उत्साह का निशान बन चुकीं उरूज औरंगज़ेब की आवाज़ इस मेले की भीड़ में सबसे जोशीली और ऊंची रही। उरूज औरंगज़ेब की नारे लगते वीडियो वायरल हो रही है। जैसे यमन में जब 2011 में अरब स्प्रिंग की लहर आई तो अली अब्दुल्ला सालेह की तानाशाही को चैलेंज करने वालों में तवक्कुल किरमान आगे-आगे थीं। तवक्कुल को इसी वर्ष नोबेल सम्मान भी मिला।
आगे वह बताते हैं कि इसी तरह की लड़कियों में शुमार हो चुकी हैं जेएनयू में तीन वर्ष पहले सरकारी दख़लअंदाज़ी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाली शहला रशीद। दिसंबर 2017 में ईरान में हिजाब की सरकारी ज़बरदस्ती के ख़िलाफ़ जो प्रदर्शन हुए, उसमें विदा महाविद की तस्वीर सबसे ज़्यादा वायरल हुई। पिछले अप्रैल में सूडान की राजधानी ख़ार्तूम में सेना के हेडक्वॉर्टर के सामने धरना देने वाले नौजवान जत्थे की लीडर रहीं आला सलह। इसी तरह पाकिस्तान में मानवाधिकारों से जुड़ी वकील आसमा जहांगीर को 'सबसे दलेर मर्द' कहा जाता है। अब उरूज औरंगज़ेब, जलीला हैदर और ग्रेटा थनबर्ग जैसी लड़कियों को देखकर लगता है कि जो परिवर्तन हमारी नस्ल न ला सकी, शायद इक्कीसवीं शताब्दी के ये लड़के-लड़कियां ले आएं और हम उन्हें ही क़ामयाब देखकर थोड़ा सा ख़ुश हो लें।
अब आइए, तसलीमा नसरीन की बातों से वाकिफ़ होते हैं। वह कहती हैं - सिर्फ बांग्लादेश की लड़कियां नहीं, एशिया और अफ्रीका के और भी अनेक देशों की लड़कियां घरेलू नौकरानी का काम करने के लिए पश्चिम एशिया के देशों में जाती हैं। इथियोपिया की एक लड़की शावला से कुवैत का एक परिवार रोज उन्नीस घंटे काम लेता था। तंजानिया की आतिया कमाने के लिए ओमान गई तो वहां के लोग उसे पीटते थे। बलात्कार भी होता था। फिलीपींस की एक लड़की का शव एक खाली फ्लैट के फ्रीजर में मिला।
सऊदी अरब से जो हजारों लड़कियां बांग्लादेश लौटीं, उनमें से 86 फीसदी को वेतन नहीं मिला, 61 फीसदी को शारीरिक अत्याचार झेलना पड़ा, 24 फीसदी लड़कियों को भूखे रहना पड़ा और 14 प्रतिशत के साथ बलात्कार हुए। सऊदी अरब से लौटने वाली इन घरेलू कामगारों में नूरी बेगम भी हैं। बांग्लादेश लौटते ही उन्होंने उस दलाल पर मुकदमा किया, जिन्होंने उसे लालच देकर सऊदी अरब भेजा था। वहां दो महीने काम करने पर भी जब उन्हें वेतन नहीं मिला, तो वह उस घर से निकल भागीं।
अब फर्क देखिए, वुसअतुल्लाह, तो भी बताते हैं कि किस तरह लड़कियां परचम उठा रही हैं लेकिन तसलीमा लड़कियों के साथ ज्यादती वाले घटनाक्रमों के ब्योरे भर पेश करती हैं, जो एक भयानक सच तो है लेकिन जलवायु आपदा पर पूरी दुनिया में ललकार रहीं सोलह साल की ग्रेटा थनबर्ग जैसी लड़कियों का जिक्र उनके लिए प्रसंगेतर है। ग्रेटा की तरह अन्य लड़कियां ही समाज की प्रेरणा स्रोत हैं, उनसे एक ऐसी नई पीढ़ी तैयार होने का बेहतर विकल्प दिखता है, जिससे समाज को नई दिशा ही नहीं मिलती बल्कि विश्वभर की आधी आबादी खुद को गौरवान्वित और मजबूत महसूस करती है।
तसलीमा खुद भी एक नए परचम की तरह हैं लेकिन उनकी चर्चाओं के विषय ज्यादातर जिस्मानी बातों के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाकर रह जाते हैं। दिल्ली के निर्भया कांड की जोरदार मुखालफत भी जरूरी है और आज के वक़्त में पहली बार किसी सैन्य विंग की कमान संभाल रही लड़की अथवा मुंबई में जानवरों का हेल्थ केयर स्टार्टअप चला रहीं देवांशी की भी बात करनी होगी। ऐसी लड़कियां तरक्की के नए नए आयाम स्थापित करने के साथ ही आधी आबादी को समानांतर एक बड़ी ताकत बना रही हैं।