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दोनों हाथों में तलवार और मुंह में घोड़े की लगाम...ब्रिटेन तक सुनाई दी थी जिसकी ललकार

आज जब भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साहस, वीरता, बलिदान को कैसे भूला जा सकता है.

दोनों हाथों में तलवार और मुंह में घोड़े की लगाम...ब्रिटेन तक सुनाई दी थी जिसकी ललकार

Monday August 15, 2022 , 8 min Read

‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी...’ एजुकेशन के प्राइमरी लेवल पर पहली बार सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां पढ़ी थीं. बस तभी से सिर नतमस्तक है, उसके आगे जो भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थी. सन 1857-58 की वह वीरांगना, जिसकी ललकार की गूंज ब्रिटेन तक सुनाई दी थी. जिसकी वीरता के किस्से, झांसी और बुंदेलखंड की गलियों में आज भी सुनाए जाते हैं...झांसी की रानी लक्ष्मी बाई (Lakshmi Bai, the Queen of Jhansi).

जी हां, वही नाम जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था. ब्रिटिशर्स के खिलाफ लड़ाई के जिसके शंखनाद से ब्रिटिश हुकूमत तिलमिला उठी थी और तिलमिलाती भी क्यों न... अंग्रेज तो भारतीयों को केवल गुलामी करने के लायक ही समझते थे. उनके हिसाब से तो भारत के पुरुष तक इतने सक्षम नहीं थे कि उनके खिलाफ बोल पाएं. ऐसे में एक औरत उन्हें चुनौती दे रही थी. वह भी ऐसी औरत जो अपने पति को खो चुकी थी और जिसका कोई वारिस न था.. वह उनके खिलाफ न केवल अपनी आवाज बुलंद कर रही थी बल्कि नंगी तलवार हाथ में लेकर युद्ध के लिए तैयार भी थी.

कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई जब युद्ध के मैदान में उतरती थीं, तो ऐसा लगता था मानो बिजली चमकती हुई जा रही है. दुश्मनों को अपनी तलवार से काटती हुई रानी लक्ष्मीबाई की वीरता देखते ही बनती थी. दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई रानी, मराठों का गौरव थीं तो अंग्रेजों के लिए साक्षात दुर्गा...आज जब भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साहस, वीरता, बलिदान को कैसे भूला जा सकता है. यह रानी लक्ष्मीबाई की अभूतपूर्व वीरता का ही परिणाम है कि आज जब भी हम भारत की वीर रानियों की बात करते हैं तो सबसे पहले उनकी छवि हमारे जेहन में आती है.

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Image: Wikipedia

कैसे ओजस्वी व्यक्तित्व की होंगी मालकिन

अगर कभी टाइम मशीन हाथ लगे तो जाकर देखना चाहूंगी कि कैसे ओजस्वी व्यक्तित्व की मालकिन होंगी रानी लक्ष्मीबाई...कितना बलशाली होता होगा उनका संबोधन जो हजारों सैनिकों में जोश भर देता था.. कितना जुनूनी होता होगा उनका एक-एक शब्द जिसे सुनकर सैनिक हाथों में तलवार लिए हर हर महादेव और जय भवानी के जयघोष के साथ अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध में कूद पड़ते होंगे.

और इस सबके इतर... कितने गहरे होंगे वो जख्म जो अंग्रेजों ने उन्हें दिए.. क्या वीरांगना लक्ष्मीबाई को भी कभी, एक पल के लिए ही सही, डर लगा होगा... क्या तब जब उन्होंने पहले अपने बेटे और फिर पति राजा गंगाधर राव को खो दिया... या तब जब चारों तरफ से ब्रिटिश सेना ने उनके किले को घेर रखा था...या तब जब वह अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधकर युद्ध के लिए निकल पड़ी थीं...

काशी में मराठी ब्राह्मण के यहां जन्म

मई 1857 में जहां एक ओर मेरठ में मंगल पांडे आजादी के लिए लड़ाई का बिगुल फूंक चुके थे तो दूसरी ओर लक्ष्मीबाई, अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि, अपनी झांसी न देने की सौगंध लिए हुए थीं. काशी में मराठी ब्राह्मण मोरोपंत तांबे के यहां जन्मीं रानी लक्ष्मीबाई का नाम मणिकर्णिका उर्फ मनु था. विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई पड़ा. महज 4 वर्ष की उम्र में मां को खोया, बिठूर के पेशवा बाजीराव द्वितीय से पिता जैसा और उनके बेटे नाना साहब से भाई का प्यार पाया..किसे पता था कि छबीली उर्फ मनु बड़ी होकर न केवल एक राज्य की रानी बनेगी बल्कि इतिहास में हमेशा के लिए अमर भी हो जाएगी. हां लेकिन लक्ष्मीबाई के साहस और वीरता का परिचय बचपन से ही मिलना शुरू हो गया था. हथियारों के साथ खेलना, युद्धाभ्यास उनके शौक थे. शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों में निपुण, तलबारबाजी, धनुष विद्या, घुड़सवारी और युद्धकौशल में अमिट छाप छोड़ती मनु...नाना साहब और तात्या टोपे के मार्गदर्शन में मनु घुड़सवारी और तलवारबाजी में कुशल हो गईं. सन 1842 में मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से हुआ और यहीं से शुरू हुआ मनु का मणिकर्णिका से वीरांगना लक्ष्मीबाई बनने का सफर...

रानी लक्ष्मीबाई की वह दृढ़ता..

बेटे की मृत्यु होने पर राजा गंगाधर राव और रानी लक्ष्मीबाई ने गंगाधर राव के भतीजे को गोद लिया, जो उनका दत्तक पुत्र कहलाया. अपने मृत बेटे के नाम पर उन्होंने उसका नाम दामोदर राव रखा और उसे ही अपना वारिस घोषित किया. लेकिन राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने दामोदर को झांसी का वारिस मानने से इनकार कर दिया. राजा का कोई उत्तराधिकारी न होने का हवाला देकर अंग्रेजों ने ‘डॉक्टरीन ऑफ लैप्स’ पॉलिसी के तहत झांसी को उनके सुपुर्द करने का फरमान जारी कर दिया.

कैसी होगी रानी लक्ष्मीबाई की वह दृढ़ता, जब उन्होंने अंग्रेजों से साफ-साफ कह दिया था कि वह अपनी झांसी उन्हें नहीं देंगी. कितना आक्रोश होगा उनकी आंखों में जब उन्हें अंग्रेजों की पेंशन पर गुजारा करने की पेशकश की गई होगी. मैं देखना चाहूंगी 1853 में राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद लक्ष्मीबाई ने झांसी को कैसे संभाला...उनकी राजकाज की निपुणता.

रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध के दिन..

उस वक्त में जाकर देखना चाहूंगी 1858 में अंग्रेजों और रानी लक्ष्मीबाई के आखिरी युद्ध के वो दिन, जिनमें लक्ष्मीबाई के अदम्य साहस और शौर्य का लोहा हर किसी ने माना. जब रानी अपनी छोटी सी सेना के साथ अंग्रेजों से भिड़ गईं... वह हर एक पल जब रानी की वीरता देखकर गोरों की त्योरियां चढ़ती होंगी...रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिनों तक बहादुरी से अपनी झांसी की रक्षा की. दामोदर राव को अपनी पीठ के पीछे बांधकर, घोड़े पर सवार होकर, सेना के साथ रानी मैदान में उतर जातीं. रानी लक्ष्मीबाई से झांसी हासिल करने का जिम्मा जनरल ह्यूरोज को दिया गया था. ह्यूरोज की घेराबंदी और संसाधनों की कमी के चलते युद्ध बहुत दिनों तक नहीं चल सका. ह्यूरोज ने पत्र लिख कर रानी से एक बार फिर समर्पण करने को कहा.

उनकी सेना के सरदारों ने सलाह दी कि अगर वह सलामत रहीं तो सेना जुटाकर, और राजाओं से मदद हासिल कर फिर से झांसी हासिल की जा सकती है. अपने सरदारों के अनुरोध को स्वीकार करते हुए रानी लक्ष्मीबाई झांसी के किले को छोड़कर कालपी के लिए रवाना हो गईं. देखना चाहूंगी वह दृश्य जब उन्होंने झांसी के किले से घोड़े समेत छलांग लगाई..उनकी तड़प जब उन्हें अपनी झांसी छोड़कर जाना पड़ा...कालपी की ओर रवाना होकर तात्या टोपे और नाना साहब की मदद से ग्वालियर के किले को जीता. और वह आखिरी भीषण युद्ध, जब रानी लक्ष्मीबाई जनरल स्मिथ और ह्यरोज की अगुवाई वाली सेना से घिरी हुई थीं लेकिन फिर भी साहस की कहीं कोई कमी नहीं थी....

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रानी लक्ष्मीबाई की समाधि (Image Source: Wikipedia)

क्या है मृत्यु का सच

उस भीषण युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और घोड़े की लगाम उनके मुंह में थी. अचानक पीछे से उन्हें एक दुश्मन ने गोली मारी. फिर इसी बीच उनके सिर पर तलवार से एक वार हुआ और वीर सिंहनी घायल होकर गिर पड़ी. आखिर में देखना चाहूंगी उनकी मृत्यु का सच... कुछ लोग कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई 18 जून 1858 को ग्वालियर में अंग्रेजों से भीषण युद्ध के बाद युद्धस्थल पर ही वीरगति को प्राप्त हो गईं. तो कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि उस भीषण युद्ध में वह गंभीर रूप से घायल हो गईं. विश्वासपात्र सिपाही उन्हें ग्वालियर में स्थित बाबा गंगादास की कुटिया में ले गए, यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली. रानी की आखिरी इच्छा थी कि उनका शव भी अंग्रेजों के हाथ न लगे. रानी की इस अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए घास फूस की बनी कुटिया में ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.

अंग्रेज भी हुए थे नतमस्तक

वाकई कितनी शूरवीर होंगी रानी लक्ष्मीबाई, जिनके शौर्य से प्रभावित होकर, उनकी समाधि के समक्ष ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज को भी कहना पड़ा, 'Here lay the woman who was the only man among the rebels.' ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई के लिए यह भी कहा है कि वह मिलनसार, चतुर और सुंदर थीं. वह विद्रोहियों में सबसे बहादुर और सर्वश्रेष्ठ सैन्य नेता थीं. विद्रोहियों के बीच एक मर्द. युद्ध के मैदान में उनके दुश्मनों और उस समय के राजनीतिक दिग्गजों ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि रानी लक्ष्मीबाई बहादुरी, बुद्धिमत्ता और प्रशासनिक क्षमता का एक दुर्लभ कॉम्बिनेशन थीं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के पहले वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने अपने निजी पत्रों में कहा है कि रानी लक्ष्मीबाई एक आदमी की तरह कपड़े पहनती थीं (पगड़ी के साथ), उसी की तरह सवारी करती थीं. अंग्रेजों की ओर से तो यहां तक कहा गया था कि वे भाग्यशाली हैं कि झांसी की रानी के साथ के लोग, उनके जैसे नहीं थे.

रानी लक्ष्मीबाई का युद्ध भारत की आजादी का पहला युद्ध था. बचपन से ही योद्धा रहीं लक्ष्मीबाई अपने जीवन की आखिरी सांस तक योद्धा ही रहीं. अपनी झांसी बचाने के लिए जिन्होंने अंग्रेजों के आगे घुटने न टेकने की कसम खाई. अपनी मातृभूमि पर न्योछावर होकर रानी लक्ष्मीबाई अमर हो गईं और पीछे रह गईं उनकी वीर गाथाएं, आजादी के लिए जलाई गई उनकी अलख और सीख कि औरत कमजोर नहीं है...