क्या हिंदुस्तानियों के जातिवाद से अमेरिका को है खतरा?
जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने वाला अमेरिका का पहला शहर बना सिएटल.
सिएटल जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने वाला अमेरिका का पहला शहर बन गया है.
मंगलवार को सिएटल सिटी काउंसिल ने एक अध्यादेश को मंजूरी दी. इस अध्यादेश के मुताबिक अब नस्ल, धर्म और लैंगिक पहचान के साथ-साथ जाति के आधार पर भी किसी भी तरह के भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया है. साथ ही जातिगत श्रेणियों के आधार पर वंचित जाति समूहों को एक संरक्षित वर्ग के रूप में रेखांकित किया गया है. इसके लिए शहर के नगरपालिका कोड में विशेष रूप से संशोधन किया गया.
इस अध्यादेश के मुताबिक अब कानून रोजगार, आवास, सार्वजनिक आवास और अन्य क्षेत्रों में भी जाति के आधार पर किसी तरह का पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार और भेदभाव नहीं किया जा सकता. यदि किसी व्यक्ति के साथ ऐसा भेदभाव होता है तो वह जाति-उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कर सकता है.
अमेरिका के बाहर इस खबर को पढ़ रहे लोगों को यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि क्या अमेरिका में भी जाति आधारित व्यवस्था और भेदभाव है. दरअसल अमेरिकी समाज में पूर्वाग्रह और भेदभाव का आधार ऐतिहासिक रूप से नस्लीय ही रहा है, जहां दास प्रथा थी और लंबे समय तक अश्वेत गोरों के गुलाम रहे.
1861 से लेकर 1865 तक चले अमेरिकी गृह युद्ध के बाद दास प्रथा समाप्त हो गई. लेकिन उसके बाद भी नस्लीय भेदभाव को खत्म करने की प्रक्रिया तकरीबन 100 साल लंबी चली, जिसमें अमेरिकी संविधान से लेकर बराबरी को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए कठोर कानून शामिल हैं. आज उस देश के कानून में नस्लीय भेदभाव को लेकर बेहद कठोर कानून हैं.
लेकिन जाति आधारित भेदभाव का सवाल उस समाज में नया है. दरअसल सवाल नया नहीं है, लेकिन अब वहां भारतीय मूल के लोगों की आबादी बढ़ने के साथ उठने लगा है.
मंगलवार को सिएटल में नगर परिषद की जिस बैठक में इस नए अध्यादेश पर बात की जा रही थी, उसकी अध्यक्षता कर रही थीं भारतीय मूल की क्षमा सावंत. उन्होंने बहुत सहज-सरल शब्दों में कहा, "यह बहुत ही आसान सा सवाल है. क्या सिएटल में जाति के आधार पर भेदभाव को जारी रखने की इजाजत दी जानी चाहिए?" उन्होंने कहा कि यह प्रश्न जितना सरल है, उतना ही गहरा और ऐतिहासिक भी.
उस दिन उस अध्यादेश को एकमत से पारित करने वाले नगर परिषद के सभी सदस्यों ने इस बात को माना कि जातीय भेदभाव न सिर्फ गलत, बल्कि कपटपूर्ण है. यह एक सामाजिक, सांस्कृति बेईमानी है, जहां कुछ लोगों को लगता है कि सिर्फ जन्म के आधार पर ही उन्हें कुछ विशेषाधिकार मिले हुए हैं.
सिएटल में यह बड़ा फैसला यूं ही एक रात में नहीं ले लिया गया. यह लंबे समय से चल रही मांग और सोशल सर्वे के बाद लिया गया फैसला है. बड़ी संख्या में भेदभाव का शिकार हुए लोगों ने सिटी काउंसिल के पास अपनी शिकायतें और कहानियां दर्ज की. दक्षिण एशियाई समूह के लोगों के बीच सर्वे किए गए. इसके बाद काउंसिल इस नतीजे पर पहुंची की कि यह एक गंभीर समस्या है, जो अमेरिकी समाज की संरचना के लिए घातक हो सकती है.
अमेरिकी मीडिया में इस खबर की जो कवरेज है, उसमें खबर के साथ-साथ जाति व्यवस्था को व्याख्यायित करने की भी कोशिश की गई है. वो लिखते हैं कि यह मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई समूहों के बीच प्रचलित एक सोशल प्रैक्टिस है. यह एक तरह का सोशल स्ट्रक्चर है, जिसमें जाति के आधार पर कुछ लोग बाकियों से श्रेष्ठ माने जाते हैं. जातियां समाज को चार अलग वर्गों में विभाजित करती हैं. इस जातीय विभाजन में दलित सबसे निचले पायदान पर हैं और दलित समूहों से आने वाले लोगों को सतत सामाजिक भेदभाव, हिंसा और अत्याचार का सामना करना पड़ता है.
इतना ही नहीं, अमेरिकी मीडिया कास्ट सिस्टम को एक्सप्लेन करते हुए लिखता है कि हालांकि इस जाति व्यवस्था की शुरुआत प्राचीन भारत में हुई थी, लेकिन वास्तव में इसकी जड़ें हिंदू धर्म में हैं. लेकिन अब उस समाज के सभी धर्मों में यह जातीय विभाजन मौजूद है.
अमेरिकी मीडिया इंडियन कास्ट सिस्टम पर बात करते हुए बी.आर. आंबेडकर और भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी भूमिका की भी बात करता है. वे लिखते हैं कि भारत को आजादी मिलने के बाद भारतीय संविधान का निर्माण एक दलित के हाथों किया गया, जिसमें जाति आधारित भेदभाव और उत्पीड़न को समाप्त कर दिया गया. लेकिन भारतीय समाज में कास्ट सिस्टम और उसके कारण दलितों के साथ होने वाली हिंसा एक बड़ी समस्या बनी हुई है.
तो इस तरह अमेरिकी मीडिया में इस वक्त हमारे देश का गुणगान हो रहा है, जिसे लेकर दुख मनाने या उज्र महसूस करने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि वो जो लिख रहे हैं, वो सौ फीसदी सही है.
लेकिन सवाल ये है कि अमेरिका में भारतीयों की आबादी बढ़ने, राजनीति और बिजनेस से लेकर व्हाइट हाउस तक में उनकी मौजूदगी मजबूत होने के साथ अब उन्हें भी जाति आधारित भेदभाव पर सवाल करने और उसे खत्म करने की जरूरत क्यों महसूस हुई. इसका स्पष्ट कारण यही है कि अपने मुल्क से हजारों मील दूर किसी दूसरे देश में जाकर बस जाने का अर्थ ये नहीं है कि भारतीयों की जातिवादी मानसिकता खत्म हो गई है.
अमेरिका के फ्लोरिडा में एक सॉफ्टवेअर कंपनी में काम करने वाले प्रतीक कुमार के तमिल ब्राम्हण बॉस को लंबे समय तक प्रतीक की जाति को लेकर शुबहा रहा. वजह थी उनका कुमार सरनेम. लेकिन जब उन पर प्रतीक की जाति का खुलासा हुआ तो रातोंरात उनका व्यवहार बदल गया. पहले प्रतीक और उनकी पत्नी को घर पर डिनर के लिए बुलाने वाले ब्राम्हण बॉस न सिर्फ कट गए, बल्कि दफ्तर में उसका हैरेसमेंट और इनडारेक्ट डिमोशन भी शुरू हो गया. प्रतीक आखिरकार वह नौकरी छोड़कर कनैटीकट शिफ्ट हो गए.
जाति आधारित उत्पीड़न और भेदभाव की ऐसी सैकड़ों कहानियां अमेरिकी समाज में मौजूद हैं, जिसमें उत्पीड़न करने वाले कोई और नहीं, बल्कि भारतीय मूल के अपर कास्ट लोग हैं.
कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा और सिएटल जैसी जगहें, जहां दक्षिण एशियाई लोग बहुतायत में हैं, यह सवाल विशेष रूप से प्रासंगिक है. कुछ वक्त पहले कैलिफोर्निया की ही एक कंपनी सिस्को सिस्टम्स में काम करने वाले एक दलित ने आरोप लगाया था कि उसकी जाति के कारण कंपनी में उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है. कैलिफोर्निया स्टेट कोर्ट में अब इस मामले की सुनवाई होने वाली है.
सिएटल अमेरिका का एक टेक हब है, जहां बहुत सारी टेक कंपनियां हैं और दक्षिण एशियाई पॉपुलेशन अच्छी-खासी है.
सिएटल के नए नियम के बारे में बात करते हुए अमेरिकी मीडिया लिखता है कि आज भारतीय अमेरिका के सबसे तेजी से बढ़ते हुए अप्रवासी समूह है. उनकी संख्या बढ़ने के साथ अमेरिकी समाज में भी इस तरह का भेदभाव, उत्पीड़न, हिंसा और पूर्वाग्रह बढ़ सकता है जो आने वाले समय में अमेरिकी समाज के लिए खतरा हो सकता है.
वे लिखते हैं कि यहां इस बात को भी अलग से रेखांकित करना जरूरी है कि जहां अप्रवासी भारतीय और दक्षिण एशियाई लोग पहले से एक अल्पसंख्यक समूह हैं, वहीं दलित लोग अल्पसंख्यकों के बीच भी अल्पसंख्यक हैं. यह एक खास समूह के लोगों के बीच की इतनी बारीक और सटल प्रैक्टिस है कि अकसर जो जातीय समूह से ताल्लुक नहीं रखते, वे उसे ढंग से समझ भी नहीं पाते.
आखिरी सवाल ये है कि क्या अमेरिका की इस घटना में हम भारतीयों के लिए कोई संदेश है. संविधान और कानून में चाहे जो लिखा है, जमीनी हकीकत यही है कि जाति व्यवस्था की जड़ें आज भी हमारे समाज में बहुत गहरी हैं. इतनी गहरी कि अपनी धरती छोड़ दूसरी धरती पर जाने के बाद भी इसका पेड़ नए सिरे से उग आता है. जातिवाद भारत की भौगोलिक सीमाओं के भीतर फलने-फूलने वाला नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों की सोच और मानसिकता में गहरे बैठा पेड़ है.
अगर अमेरिकी इस पेड़ को काटने की कोशिश कर सकते हैं, तो हमारे रास्ते में कौन सी दीवार है ?