क्यों किया था इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण?
भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी एक विराट उपस्थिति हैं. उनकी राजनैतिक विरासत का एक अहम हिस्सा बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फ़ैसला भी है. उस फ़ैसले को पचास साल से अधिक हो गए हैं लेकिन उसका असर आज भी बैंकों को लेकर होने वाले बहस में देखा जा सकता है.
रात 8 बजे. ठीक इस वक्त इस देश को दो बार ऐसे फैसले सुनाये गए हैं जिन्होंने इस देश की आर्थिक व्यवस्था पलट कर रख दी. देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे देश को नोटबंदी लागू करने का अपना निर्णय सुनाया था. ठीक वैसे ही 53 साल पहले साल, इंसान के पहली बार चाँद पर कदम रखने के एक दिन पहले, 19 जुलाई 1969 की रात 8 बजे ही उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में 14 प्राइवेट बैंकों को सरकारी बनाने का एलान किया था. 19 जुलाई को, और इंदिरा के इस साहसिक निर्णय को बैंकिंग ही नहीं भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ऐतिहासिक माना जाता है.
इंदिरा गांधी के इस फैसले की आज तक चर्चा होती है. लोगों और विशेषज्ञों का मत विभाजित है कि यह फैसला अच्छा था या बुरा. मत इस पर भी विभाजित है कि यह फैसला अर्थव्यवस्था के लिए लिया गया था या राजनीतिक कारणों से.
किन हालात में लिया गया था बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फ़ैसला?
अठारहवीं सदी में अंग्रेज़ी राज में शुरू हुए निजी बैंक आज़ादी के बाद भी निजी हाथों में ही रहे. पहला राष्ट्रीयकरण 1955 में हुआ जब स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को सरकार ने अपने संचालन में ले लिया.
साठ के दशक तक आते-आते कई प्राइवेट बैंक दिवालिया हो चुके थे. 1947 से 1955 के बीच 360 से ज्यादा बैंक फेल हो गये. हर साल 40 बैंक फेल हो रहे थे. अगले दशक भी यही सिलसिला चलता रहा. और तब तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए बैंकों की संख्या घटा दी. 1965 तक बैंकों की संख्या 328 से घटकर 68 हो गयी थी.
1967 में इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनीं. उन्होंने नए नए बने भारतीय लोकतंत्र के एक बहुत कठिन दौर में यह ज़िम्मेवारी सम्भाली थी. देश अभी अभी अपने दो युद्धों से निकला था. उसके तुरंत बाद लगातार दो साल यानि 1965 और 1966 में ख़राब मानसून ने देश की मुख्यतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को हिला दिया था. खाद्य पदार्थों की क़ीमतें सालाना 20 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही थे.
बैंक दिवालिया हो रहे थे, जो बचे थे वो सिर्फ ट्रेड के क्रेडिट दे रहे थे, कृषि या इंडस्ट्री के लिए नहीं. आम लोगों की परेशानी जो थी सो तो थी ही. बैंकों के दिवालिया होने से वो अपने पैसे खो रहे थे.
देश के लोगों को सरकार बेबस दिख रही थी.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विकट चुनौतियाँ थी. वियतनाम युद्ध पर भारत के स्टैंड को कोल्ड-वॉर के उस दौर में अमेरिकी ख़ेमे ने पसंद नहीं किया जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र संघ ने खाद्यान्न के लिए बाहरी मदद पर निर्भर रहने वाले भारत को टन के हिसाब से फूड लोन देने का फैसला किया जो बहुत अपमानजनक था.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को भारत एक बेबस देश की तरह दिख रहा था.
उधर कांग्रेस के बुजुर्ग नेता, ‘ओल्ड गार्ड’ एक महिला को अपना और देश का नेता स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. कांग्रेस में तब महिलाओं की संख्या भी बहुत कम थी, हर पद पर पुरुष थे. राम मनोहर लोहिया ने उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ तक कह दिया था.
कांग्रेस पार्टी के बुजुर्गों को अपनी नेता बेबस दिख रही थी.
देश की अर्थव्यवस्था के बिगड़ते हालत, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपमान और कांग्रेस पार्टी के भीतर स्वीकार्यता न होना तीनों इंदिरा के लिए बड़े चैलेंज थे. उन्हें अपनी पार्टी को, देश को और दुनिया की बड़ी ताक़तों को अपने, अपनी सरकार और अपने देश के मज़बूत होने का संदेश देना था.
ऐसे हालात में इंदिरा गांधी ने निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला लिया. इस एक फ़ैसले ने पार्टी और देश में उनकी छवि बदल दी. रूसी क्रांति के प्रमुख नेता लेनिन ने कहा था कई बार दशकों तक कुछ नहीं होता और कभी हफ़्तों में दशक बदल जाते हैं - कुछ वैसा ही इंदिरा के इस फ़ैसले के साथ हुआ.
दो साल बाद, इंदिरा ने अमेरिका और पाकिस्तान की परवाह न करते हुए बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई को खुलकर राजनैतिक और मिलिट्री समर्थन दिया और उसे आज़ाद कराकर पूरी दुनिया को एक अपना और भारत का दमख़म दिखा दिया.
1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की निर्णायक जीत के बाद एक जमाने की ‘गूँगी गुड़िया’ एक दमदार प्रधानमंत्री बनकर उभरी जिसकी धमक देश और विदेश में अगले एक दशक तक सुनाई दी.
एक हफ़्ते में बदल दिया दो सौ साल पुरानी बैंकिंग व्यवस्था को
12 जुलाई 1969 को बंगलोर में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार इंदिरा ने बैंको का राष्ट्रीयकरण करने की अपनी मंशा ज़ाहिर की. उनके इस इरादे को कांग्रेस पार्टी के भीतर और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर की सहमति नहीं मिली क्योंकि उन्होंने इसके बारे में कभी सोचा नहीं था और वह इसके लिए तैयार नहीं थे.
यह सब एक हफ्ते के भीतर करना ज़रूरी था. क्योंकि 7 दिन बाद राष्ट्रपति का चुनाव होना था और राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए कार्यकारी राष्ट्रपति वी. वी. गिरि 20 जुलाई को इस्तीफा देने वाले थे. इंदिरा राष्ट्रपति गिरि के इस्तीफे से पहले उनसे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले पर मुहर लगवा लेना चाहती थीं. इंदिरा गांधी के मुख्य सचिव पी. एन. हक्सर, आर.बी.आई. के डिप्टी गवर्नर ए. बख्शी को बैंक राष्ट्रीयकरण के लिए क़ानूनी डॉक्यूमेंट को तैयार करने के लिए कहा गया. गौरतलब है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे बड़े आर्थिक फैसले में आर.बी.आई. के गवर्नर और वित्त मंत्रालय के सचिव को नहीं शामिल किया गया.
24 घंटे के अंदर विधेयक को तैयार किया गया. इंदिरा गांधी ने 19 जुलाई की शाम कैबिनेट की बैठक बुलाई और विधेयक को मंजूरी मिल गई. कुछ ही घंटों की भीतर राष्ट्रपति गिरि की मुहर भी इस पर लग गई. फिर इंदिरा गांधी ने करीब 8:30 बजे देश को संबोधित कर देश के 14 बड़े निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का ऐलान कर दिया. 14 ऐसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिनका डिपॉजिट 50 करोड़ रुपये से अधिक था.
क्या भारत के इतिहास में और भी बड़े फ़ैसले लिए जाने हैं जो रात 8 बजे सुनाए जाएँगें?