गन्ने की जैविक खेती से जमीन और ज़िंदगी संवारता 74 साल का ये किसान
महाराष्ट्र में कोल्हापुर के जंभाली गांव के किसान नारायण और कुसुम गायकवाड़ जैविक तरीके से गन्ना उगाकर रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को दूर कर रहे हैं.
चौहत्तर साल के नारायण गायकवाड़ ने कभी नहीं सोचा था कि खेती के अपने तौर-तरीकों पर उन्हें फिर से विचार करना होगा. वे 60 सालों से भी ज्यादा समय से इस पेशे में हैं. लेकिन, मिट्टी में पोषक तत्वों की लगातार कमी और रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती कीमतों ने गायकवाड़ को जैविक खेती आजमाने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने जून 2020 से इस विधि से खेती शुरू की.
गायकवाड़ बिना रासायनिक उर्वरकों के 30 से अधिक फसलों की खेती करना जानते थे. लेकिन, उन्होंने पहले कभी रासायनिक खाद के बिना गन्ने की खेती को आज़माया नहीं था क्योंकि इसे जोखिम भरा माना जाता था. इसके अलावा, नहीं आज़माने की एक और वजह मौसम का बदलता मिज़ाज भी था, जिसमें रुक-रुक कर होने वाली बारिश के साथ-साथ बढ़ती गर्मी और ठंड भी थी.
गायकवाड़ महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के जंभाली गांव के रहने वाले हैं. मौसम के बदलते मिज़ाज के बारे में वो कहते हैं, ”मैं पिछले चार सालों से ही इसका अनुभव कर रहा हूं.”
साल 2019 के बाद से ही कोल्हापुर में रुक-रुक कर बारिश हो रही है. इस दौरान अचानक से तापमान में बढ़ोतरी हो गई, जिसका बुरा असर फसलों पर पड़ा. कोल्हापुर के शिरोल में ठंड के मौसम में तापमान तेजी से गिरा और इस इलाके के लिए यह असामान्य घटना थी.
किसानों को लगा कि रासायनिक उर्वरकों का ज्यादा इस्तेमाल करने से पैदावार अधिक होगी. और इससे गन्ने की फसल को मौसम के बदलते मिज़ाज से भी निपटने में मदद मिलेगी.
हालांकि, रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते इस्तेमाल के साथ गायकवाड़ ने महसूस किया कि बगल के खेतों में मिट्टी खारी हो रही है. वो चिंतित थे. यही नहीं, उन्हें अपना कर्ज भी चुकाना था और इसका मतलब था कि गायकवाड़ को एक-एक पाई बचानी थी. वो कहते हैं, “एक एकड़ खेत के लिए, हमें 20 हजार रुपये के रासायनिक उर्वरकों की जरूरत होती है लेकिन मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं थी.”
चिंतित गायकवाड़ के लिए नौ साल के उनके 9 वर्ष के पोते वरद किसी वरदान की तरह सामने आए. वरद ने अपने दादा को समाधान खोजने में मदद की. यूट्यूब पर ट्रैक्टर के वीडियो पंसद करने वाले वरद ने एक दिन “जैविक उर्वरक” खोजने के लिए वॉयस कमांड फीचर का इस्तेमाल किया. तुरंत ही जैविक खेती और उर्वरकों पर कई वीडियो सामने आए. गायकवाड़ ने उन्हें देखते हुए एक सप्ताह बिताया.
मन ही मन नोट बनाते हुए गायकवाड़ ने सबसे पहले एक बेकार डिब्बे में 190 लीटर पानी भरा. फिर उन्होंने दस किलोग्राम देसी गाय का गोबर, 10 लीटर गोमूत्र, एक किलोग्राम चने का आटा और गुड़ मिलाया. इसके बाद, उन्होंने अगले पांच दिनों के लिए इस मिश्रण को सूरज की रोशनी से बचाकर रखा. यही नहीं, इसे हर दिन पांच मिनट तक हिलाते भी रहे. छठे दिन उन्होंने खेत में पटवन के साथ इस जैविक मिश्रण को मिला दिया.
साल 2020-21 में उन्होंने इस प्रक्रिया को हर 20 दिनों में दोहराया. यानी अपने 1.5 एकड़ के खेत में एक साल में लगभग 18 बार. आखिर में, इस विधि से उन्हें गन्ने की दो किस्मों (Co 86032 और Co 8021) की 77 टन उपज मिली. वो इस बदलाव के नफ़े-नुक़सान की बात करते हुए कहते हैं, “अगर मैंने रसायनों का इस्तेमाल किया होता तो उत्पादन 100 टन के क़रीब होता. लेकिन गायकवाड़ को अपने प्रयासों पर गर्व है.”
वहीं, उनके खेत से बारह किलोमीटर दूर कुरुंदवाद गांव में किसान बसवंत नाइक (अनुरोध पर नाम बदला गया) ने रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करके गन्ने की खेती की. अगस्त 2019 की बाढ़ में गन्ने की 240 टन फसल खोने वाले नाइक ने सोचा कि रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल बढ़ाने से उनकी समस्या हल हो जाएगी. वो कहते हैं, “मैंने रसायनों का उपयोग दोगुना कर दिया और प्रति एकड़ 10 क्विंटल कृत्रिम उर्वरकों का इस्तेमाल किया.”
रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ाने के बाद पहले साल नाइक को बंपर फसल मिली. यह पिछली उपज की तुलना में 30 टन अधिक थी. हालांकि, जब उन्होंने 2021 में उसी प्रक्रिया को दोहराया तो नतीजे इच्छा के मुताबिक नहीं आए. उन्होंने कहा, “बाढ़ ने फिर से गन्ने की फसल नष्ट कर दी. इस बार मैंने चार एकड़ के अपने खेत में उगाई जाने वाली हर चीज खो दी.” बाढ़ का पानी कम होने के बाद मिट्टी को खारा होते देख वो हैरान रह गए.”
अनुभवी किसानों से सलाह-मशविरा करने के बाद, बसवंत नाइक के पास गन्ने की खेती छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. “क्या होगा अगर फिर से बाढ़ आ जाए? साथ ही, मेरे खेत में पर्याप्त पोषक तत्व नहीं हैं.”
नाइक की कहानी आज कमोबेश हर किसान की कहानी है. आंकड़े भी इस ओर इशारा करते हैं क्योंकि कृषि उर्वरकों की वैश्विक खपत 2019 में 190 मिलियन मीट्रिक टन को पार कर गई जो 1965 में महज 46.3 मिलियन टन थी.
मिट्टी में तेजी से खारापन बढ़ने की घटनाओं को देखते हुए नारायण गायकवाड़ और उनकी 67 वर्षीय पत्नी कुसुम को लगता है कि जैविक खेती ही इससे बचने का रास्ता है. कुसुम कहती हैं, “उत्पादन कम होता है, लेकिन एक बार जब आपका खेत पूरी तरह खारा हो जाता है तो आपको एक भी फसल नहीं मिलेगी.” यही नहीं, कोल्हापुर के शिरोल क्षेत्र के किसानों ने गन्ने की फसल के मुरझाने के बढ़ते मामलों के बारे में बताया है. इस स्थिति में गन्ने के ऊपरी हिस्से के पत्ते भूरे-पीले हो जाते हैं.
वो कहती हैं, “हमारे गन्ने को देखिए; आपको कोई तंबीरा (विल्ट) नहीं मिलेगा. जैविक खेती के दूसरे साल में, अब गायकवाड़ 3.25 एकड़ के अपने खेत में से दो एकड़ में जैविक खेती कर रहे हैं. गायकवाड़ कहते हैं, ”अगले साल तक हम यह सुनिश्चित करेंगे कि हमारे बेटे भी पूरी तरह से जैविक खेती को अपना लें.”
इस तरह गायकवाड़ ठीक-ठाक पैसा बचा रहे हैं लेकिन, अब हर दिन उन्हें लगभग 10-11 घंटे काम करना पड़ता है. ऐसा रासायनिक उवर्रकों की जगह जैविक खाद का इस्तेमाल करने के कारण हुआ है.
गायकवाड़ कहते हैं, “यदि आप अपने मवेशियों का इस्तेमाल महज दूध के लिए करते हैं तो ये खर्च उठा पाना नामुमकिन है. लोग गोबर जमा करने को गंदा काम कहते हैं, लेकिन मवेशी गरीबों के लिए खाद का कारखाना हैं.”
लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है क्योंकि गोबर और गोमूत्र इकट्ठा करने में समय तो लगता ही है. इसके अलावा चूंकि गायकवाड़ खरपतवार खत्म करने वाले रसायनों का उपयोग नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें दरांती का इस्तेमाल करके खुद से खरपतवार हटाना पड़ता है और इसमें बहुत समय खपाना पड़ता है. कई लोग खेतिहर मजदूरों का खर्चा नहीं उठा पाते हैं. इसलिए, अधिकांश किसान खरपतवार को खत्म करने वाले रसायनों का उपयोग बढ़ाना पसंद करते हैं जो मजदूरों का खर्च बचाता है.
गायकवाड़ कहते हैं, गांव के एक रसूखदार नेता ने 1960 के दशक की शुरुआत में मक्के और बाजरे के उत्पादन के साथ जंभाली में रासायनिक उर्वरकों की शुरुआत की. अपने चहेरे पर मुस्कान के साथ वो कहते हैं, “आखिरकार, मैंने 2020 में रसायनों का उपयोग करना बंद कर दिया.”
इस दौरान एक दर्जन से अधिक किसानों ने गायकवाड़ से संपर्क किया और जैविक खेती के उनके अनुभव के बारे में पूछा. हालांकि, उनका कहना है कि उनमें से किसी ने भी जैविक खेती को नहीं अपनाया है.
भारत में बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती होती है और इसका रकबा 12.6 मिलियन एकड़ है. वह ब्राजील के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक देश है.
शिरोल के दत्ता चीनी मिल के मिट्टी रसायनविज्ञानी रवींद्र हेरवड़े कहते हैं, “जैविक खेती की जा सकती है, लेकिन कम उपज के डर से बहुत से किसान इससे बचते हैं. लेकिन, अगर खारापन बढ़ता रहता है तो कुल मिलाकर औसत उत्पादन अगले कुछ सालों में कम हो जाता है. हेरवड़े ने “शिरोल तालुका में कई खेत बंजर होने” के साथ-साथ खारेपन में बढ़ोतरी देखी है.
मिट्टी की सेहत पर जैविक खेती के प्रभाव के बारे में वो कहते हैं, “कुछ किसान जैविक खेती करने की कोशिश कर रहे हैं और नतीजे अच्छे दिख रहे हैं. वे गन्ने की बेहतर गुणवत्ता की जानकारी दे रहे हैं. यही नहीं मिट्टी के पोषक तत्वों में भी सुधार हुआ है.”
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: साल 2020 में जैविक खेती अपनाने वाले नारायण गायकवाड़ 2021 में पहली फसल से हुए गन्ने को दिखाते हुए. वो कहते हैं, “अगर हम अब भी जैविक खेती को नहीं अपनाते हैं तो बहुत देर हो जाएगी.” तस्वीर - संकेत जैन/मोंगाबे