बेमौसम बारिश, गर्मी और कीटों से महाराष्ट्र के काजू किसान हलकान, खराब हुई फसल
विश्व स्तर पर दूसरा सबसे बड़ा काजू उत्पादक देश होने साथ ही भारत में काजू की खपत भी सबसे अधिक है. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, बेमौसम बारिश, अन्य मौसमी आपदाओं सहित कई कारणों से काजू का उत्पादन प्रभावित हुआ है. किसानों का कहना है कि काजू पर आयात शुल्क कम होने से उनका नुकसान बढ़ा है.
महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के किसान हरिश्चंद्र देसाई के पास 1,100 काजू के पेड़ हैं. लेकिन, इस मौसम में कुछ ही पेड़ों में फल लगे हैं. 65 वर्षीय देसाई, लांजा तालुका के जापड़े गांव के रहने वाले हैं. उनका अनुमान है कि इस साल उनके पेड़ों से काजू के उत्पादन में लगभग 70% की कमी आई है.
क्षेत्र के अन्य किसान भी इसी तरह की स्थिति का सामना कर रहे हैं और होने वाले आर्थिक नुकसान को लेकर सहमे हुए हैं. वे इसके लिए मौसम की स्थिति, फल में लगने वाली बीमारियां और कीटों को जिम्मेदार मानते हैं.
देसाई महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में रहते हैं, जो काजू की खेती के लिए जाना जाता है. यह इस तटीय क्षेत्र के रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग और रायगढ़ जिलों के लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत भी है. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में काजू का उत्पादन प्रभावित हुआ है. मोंगाबे-इंडिया के साथ बातचीत में देसाई कहते हैं, “जब पेड़ों पर फूल लगने का समय था तभी बेमौसम बारिश से फूल सही से नहीं खिले.”
वह कहते हैं कि लांजा में कई किसानों को अब किसी भी पेड़ से उपज नहीं मिलती है, क्योंकि कोंकण में पिछले कुछ वर्षों में मौसम की स्थिति बदल रही है.
भारत में, काजू की खेती से 15 लाख लोगों को रोजगार मिलता है, जिसमें पांच लाख से अधिक किसान शामिल हैं. महाराष्ट्र भारत का सबसे बड़ा काजू उत्पादक राज्य है.
सिंधुदुर्ग स्थित बी.एन. क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र के कार्यकारी निदेशक बीएन सावंत ने काजू उत्पादन में गिरावट के लिए बेमौसम बारिश और सामान्य से कम तापमान को मुख्य वजह बताया. “इस बार, कोंकण में अक्टूबर से जनवरी के बीच बारिश हुई. काजू के लिए, यह फूल और फल लगने का समय है. बारिश के कारण परागण नहीं हो सका और फिर अच्छी फसल नहीं हो पाई, ” सावंत ने मोंगाबे-इंडिया को बताया.
“फिर दिसंबर और जनवरी के बीच कुछ दिनों के लिए तापमान 17 डिग्री रहा. परिणामस्वरूप नुकसान अधिक हो गया,” सावंत कहते हैं.
देसाई की तरह ही एक और किसान प्रकाश तोरास्कर को भी नुकसान हुआ है. वे इसके लिए बदलते जलवायु को दोषी मानते हैं. तोरास्कर तटीय सिंधुदुर्ग जिले से है, जो महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में भी है, और देसाई के गांव से 100 किलोमीटर दूर है. तोरास्कर के पास भी काजू के करीब 1,000 पेड़ हैं. वह कहते हैं, “पिछले साल, मेरे पास आठ टन काजू (कच्चा काजू) था. इस साल, मुझे केवल 2.5 टन ही मिल सका, जिससे मेरी आय 80% घट गयी.”
क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक आर. सी. गजभिये का कहना है कि पिछले एक दशक में तापमान में वास्तव में तेजी से बदलाव आया है. “काजू को न्यूनतम तापमान 16 से 18 डिग्री सेल्सियस और अधिकतम तापमान 26 से 28 डिग्री सेल्सियस के बीच की आवश्यकता होती है. तटीय क्षेत्र में तापमान 15 डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं जाता है, लेकिन इस बार ऐसा हुआ है,” गजभिये कहते हैं. इनका कहना है कि न्यूनतम और अधिकतम तापमान के बीच एक बड़ा अंतर था, जिसके कारण फूल नहीं आए. अगर फूल आया भी तो झुलस गया और इसका असर उत्पादन पर हुआ.
भारत का उच्च काजू उत्पादन और खपत
काजू की खेती भारत के 19 राज्यों में की जाती है. भारत काजू उत्पादन के मामले में दूसरे और खपत में दुनिया भर में पहले स्थान पर है. भारत में 2020-21 के लिए कच्चे काजू का उत्पादन 6,91,000 टन और 2019-20 में 7,42,000 टन था. महाराष्ट्र, केरल, गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और ओडिशा प्रमुख राज्य हैं जहां काजू की खेती की जाती है.
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा बागवानी फसलों के क्षेत्रफल एवं उत्पादन 2021-22 के प्रथम अग्रिम अनुमान के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में काजू के क्षेत्रफल एवं उत्पादन में वृद्धि हुई है. 2021-22 में, काजू की खेती 1,166,000 हेक्टेयर क्षेत्र में की गई थी. उत्पादन का अनुमान 774,000 मीट्रिक टन था. 2020-21 में 1,159,000 हेक्टेयर में 738,000 मीट्रिक टन काजू का उत्पादन किया गया था, जबकि 2019-20 में 1,125,000 हेक्टेयर में 703,000 मीट्रिक टन काजू का उत्पादन किया गया था. हालांकि, उत्पादकता (प्रति हेक्टेयर उपज) वास्तव में घट गई है.
केरल के कोचीन शहर में काजू और नारियल विकास संस्थान के निदेशक वेंकटेश हुबली ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि पूरे देश में काजू के उत्पादन में 25% की गिरावट आई है.” फसल प्रभावित होने का मुख्य कारण बेमौसम बारिश है. नवंबर से जनवरी के बीच प्रतिकूल मौसम रहने पर किसानों को नुकसान होता है. काजू पर लगने वाले कीट के लिए 17 डिग्री सेल्सियस से नीचे का तापमान अनुकूल होता है.
मोंगाबे-इंडिया ने जिन वैज्ञानिकों से बात की, उनके अनुसार काजू एक ‘कठोर फसल‘ है, क्योंकि यह आसानी से मौसम की मार को सहन कर सकता है. हालांकि, बेमौसम बारिश इसकी सबसे बड़ी दुश्मन है और पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में ऐसी बरसात कई बार हुई है.
बेमौसम बारिश, चक्रवात से बढ़ा कीटों का संकट
सिंधुदुर्ग जिले के रहने वाले किसान महेश दिनकर सावंत का कहना है कि कोंकण क्षेत्र की जलवायु पिछले कुछ वर्षों में बहुत बदल गई है. “कोंकण में, 15 जून के बाद बारिश शुरू होगी. अब, इसकी शुरुआत मई में हो जाती है. मैं पहले से ही कीटों से परेशान था. इससे काजू के फल का काफी नुकसान हो रहा था. अब प्रकृति भी कहर ढा रही है.”
सावंत ने कई अन्य किसानों को जलवायु के अनुकूल प्राकृतिक खेती के लिए प्रशिक्षित किया है. हालांकि, बढ़ते तापमान से काजू के फूल सूख जा रहे हैं और चुनौती बनकर सामने आ रहे हैं. वे कहते हैं, “एक पेड़ से कम से कम 10 किलो काजू पैदा होना चाहिए, लेकिन अब हमें मुश्किल से दो किलो काजू ही निकल पा रहा है.” उनका कहना है कि काजू का आकार भी छोटा हो गया है.
इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों में ताउ-ते, गुलाब, शाहीन और निसर्ग जैसे चक्रवातों ने तटीय क्षेत्रों में काजू की खेती को प्रभावित किया है. पारिस्थितिकी विशेषज्ञ माधव गाडगिल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि अरब सागर के पश्चिमी तटों में कभी भी इतने तीव्र और तेज चक्रवात नहीं देखे गए.
काजू अनुसंधान निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार, भले ही भारत में काजू के क्षेत्रफल और उत्पादन (कुल उपज) में वृद्धि हुई हो, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन (प्रति हेक्टेयर उपज) में कमी आई है.
काजू और कोको विकास निदेशालय, केरल ने अपनी 2019-20 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि भारत में संगठित और असंगठित क्षेत्रों में 4,000 काजू प्रसंस्करण इकाइयां हैं, जिनकी वार्षिक क्षमता 17 लाख मीट्रिक टन कच्चे काजू की है. इसलिए, घरेलू मांग को पूरा करने के लिए, भारत अपने कच्चे माल का 54% अफ्रीकी देशों से आयात करता है.
इंटरनेशनल नट एंड ड्राय फ्रूट काउंसिल के रिकॉर्ड के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में भारत 1,82,642 मीट्रिक टन काजू उत्पादन के साथ दूसरे नंबर पर है. भारत का काजू उत्पादन दुनिया के उत्पादन का 22% है. 3,71,196 मीट्रिक टन काजू उत्पादन के साथ अफ्रीकी देश पहले स्थान पर हैं, और वैश्विक उत्पादन में उनका हिस्सा 45% है.
नीतियों पर दोबारा गौर करने की जरूरत
किसानों का कहना है कि प्रतिकूल मौसम के अलावा काजू पर आयात शुल्क कम होने से उन्हें नुकसान भी हो रहा है.
देसाई का कहना है कि पहले विदेश से आने वाले काजू पर 12 फीसदी इंपोर्ट ड्यूटी लगती थी, जिसे घटाकर 2.5 फीसदी कर दिया गया. “इस वजह से, आधे काजू जो अफ्रीकी देशों से आते हैं, उनके प्रसंस्करण की लागत 60 से 75 रुपये बैठती है वहीं स्थानीय किसान के काजू की कीमत 100 से 125 रुपये प्रति किलो पहुंच जाती है,” देसाई कहते हैं. लाभ नहीं होने के कारण रत्नागिरी और कोंकण के अन्य जिलों में बहुत कम किसान नए बाग लगा रहे हैं.
सिंधुदुर्ग में काजू प्रसंस्करण इकाई चलाने वाले उसा तोरास्कर ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि इससे न केवल किसान, बल्कि छोटे उद्योग भी घाटे में हैं. “कोंकण काजू अच्छी गुणवत्ता वाले होते हैं, लेकिन व्यापारी बाहर से आने वाले काजू को पसंद करते हैं, क्योंकि यह एक सस्ता विकल्प है और 60 से 80 रुपये में मिल जाता है.”
देश में काजू के निर्यात में भी गिरावट आई है. काजू और नारियल निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार, काजू का निर्यात 2019-20 में 67,647 मीट्रिक टन (2,867 करोड़ रुपये) से घटकर 2020-21 में 48,575 मीट्रिक टन रह गया, जिसका मूल्य 2,840.39 करोड़ रुपये है.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: सिंधुदुर्ग जिले के एक किसान महेश दिनकर सावंत ने कई अन्य किसानों को जलवायु के अनुकूल प्राकृतिक खेती करने के लिए प्रशिक्षित किया है. बढ़ते तापमान के कारण काजू के फूल सूख रहे हैं और चुनौती बनकर सामने आ रहे हैं. तस्वीर - अरविंद शुक्ला