पर्यावरण के लिए काम कर रहे केबीसी विनर सुशील कुमार, अभी तक लगा चुके हैं 80,000 पौधे
अगर आपको 5 करोड़ रुपये मिलें तो आप क्या करेंगे? आप भी कहेंगे कि अच्छा घर, कार खरीदेंगे, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाएंगे, घरवालों का ध्यान रखेंगे। कम ही लोग होंगे जो मिले पैसों से समाज/प्रकृति/पर्यावरण के लिए कुछ करना चाहेंगे। केबीसी-5 के विनर सुशील कुमार ऐसे ही लोगों में शामिल हैं।
सुशील कुमार साल 2011 में केबीसी विनर बने और उन्होंने 5 करोड़ रुपये जीते। अब वह पूरी तरह से समाज और पर्यावरण के लिए काम कर रहे हैं। वह माय चंपा नाम से अभियान चला रहे हैं। इसके तहत वह पर्यावरण और समाज के लिए अलग-अलग काम कर रहे हैं। इनमें वृक्षारोपण, गोरैयों के लिए घोंसले बनाना और बच्चों के लिए काम करना शामिल है।
मूलरूप से मोतीहारी (बिहार) के रहने वाले सुशील कुमार ने साइक्लॉजी में एम.ए. और बीएड की पढ़ाई की है। सुशील कुमार जॉइंट फैमिली के साथ रहते हैं। इनमें पिताजी, मां, दादी और 5 भाई हैं। एक भाई को छोड़कर सबकी शादी हो गई। सुशील भी शादीशुदा हैं और उनके 8 साल की बेटी है जो क्लास 1 में पढ़ती है। वह बताते हैं कि अगर आप सच में जीवन में कुछ करना चाहते हैं तो आप समाज के बारे में सोचना शुरू कर दीजिए।
पौधारोपण करना मुख्य काम
सुशील एक संगठन चलाते हैं जिसका नाम है चंपा से चंपारण तक। वह स्कूलों/कॉलेजों से बात करके घरों में पौधे लगाते हैं। अपनी इस पहल में अभी तक वह 80 हजार से अधिक पौधे लगा चुके हैं। वह जहां कहीं भी जाते हैं तो पौधा लेकर ही जाते हैं और लोगों से अधिक से अधिक पौधे लगाने की अपील करते हैं। वह किसी भी सार्वजनिक जगह पर पौधा नहीं लगाते। पौधों के लिए वह घरों का चुनाव करते हैं। इन घरों में चंपा, देसी नीम, पीपल, बरगद, पाकड़, आम महुआ आदि पौधे लगाते हैं। इसके लिए वह किसी से आर्थिक मदद नहीं लेते हैं। अगर कोई मदद करना चाहे तो उनसे भी वह केवल पौधे ही लेते हैं। वह लोगों को प्रेरित करते हैं कि वे अपने किसी खास दिन बर्थडे, एनिवर्सरी, बरसी पर पेड़ लगाएं और दिन को यादगार बनाएं।
गौरैयों के लिए घोसलें भी लगाते हैं
पौधारोपण के साथ-साथ वह गौरैयों के लिए घोसलें भी लगाते हैं। हर साल 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस मनाया जाता है। पिछले साल विश्व गोरैया दिवस को उन्होंने अपने एक दोस्त से प्रेरणा लेकर गौरैयों के लिए घोसलें बनाने की पहल की शुरुआत की। अभी तक वह 350 घोंसले लगा चुके हैं। इनमें से 20-25 घोसलों में गौरैया भी आने लगी हैं। घोसलें लगाते वक्त कुछ बातों का ध्यान रखना होता है। जैसे- वह स्थान गोरैयों के आने का हो, अच्छी ऊंचाई पर हो, बिल्ली और शिकारी पक्षियों से दूरी पर हो।
तीन भागों में बंटी है जिंदगी
योर स्टोरी से बात करते हुए सुशील बताते हैं कि उनकी जिंदगी तीन भागों में बंटी है। पहली केबीसी से पहले- इस लाइफ में उनका टारगेट बस यही था कि सरकारी नौकरी लगें और घरवालों का ध्यान रखें। दूसरी केबीसी जीतने की बाद की- इसमें लाइफ एकदम बदल गई। कई महीनों तक समझ नहीं आया कि क्या किया जाए। यह ऐसी जिंदगी थी जिसका सपना हर आम आदमी देखता है और तीसरी वह जिसमें सुशील को अहसास हुआ कि जिंदगी में कुछ पा लेना ही सबकुछ नहीं होता है। सोसायटी से कुछ लेने के बदले देना भी होता है। बस इसी बात को ठानकर वह रोज 2-3 घंटे सोसायटी के लिए देते हैं।
10 साल की मेहनत का परिणाम था केबीसी जीतना
योर स्टोरी से बात करते हुए सुशील कुमार बताते हैं, 'मैं साल 2001 में 10वीं में पढ़ रहा था। तब केबीसी की शुरुआत हुई थी। मैं जब भी शो देखता तो सोचता कि सारे जवाब तो मैं भी दे सकता हूं। बस वहीं से मैंने ट्राइ करना शुरू किया। मुझे साल 2011 में सफलता मिली। पटना में ऑडिशन दिया, फिर मुंबई गया और आगे का सबको पता है।
बच्चों की मानसिकता समझना जरूरी है
अपने आगे के प्लान के बारे में वह बताते हैं कि मैं पर्यावरण के लिए रोज 3-4 घंटे देता हूं। इसके अलावा हमारा मकसद बच्चों की मानसिकता का अध्ययन करना है। इन दिनों अपराध से जुड़ी कई खबरें आती हैं जो कि चिंताजनक हैं। हम प्रोफेसर, टीचर्स और साइकाइट्रिस्ट से मिलकर एक टीम बनाएंगे और आसपास के सभी स्कूलों में पैरेंट्स-टीचर मीट के दिन मीटिंग करेंगे। इसमें पता लगाएंगे कि आखिर बच्चे अपराध की ओर क्यों जा रहे हैं? क्या चीज है जो बच्चों को अपराध की ओर ले जा रही है।
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे
अपनी बात खत्म करते हुए वह कहते हैं कि प्रकृति और पर्यावरण ने हमें बहुत कुछ दिया है। अब वक्त है प्रकृति को कुछ देने का। युवाओं को संदेश में वह कहते हैं कि पर्यावरण है तभी हम हैं। युवाओं की जिम्मेदारी है कि उसे बचाएं। आने वाला समय उन्हीं का है। अगर वे जागरूक नहीं हुए तो उन्हें भोगना होगा। अगर अब हम प्रकृति का साथ नहीं देंगे तो आगे जीना और मुश्किल हो जाएगा। अपने लिए नहीं तो कम से कम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए पर्यावरण की देखरेख करना जरूरी है। अगर समय से ऐसा नहीं होगा तो मोहम्मद रफी का वह गाना याद करके पछताएंगे, 'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे'।