महिलाओं को अधिकार और बराबरी देने वाले आजाद भारत के सात कानून
जिस न्याय, समता और बराबरी की बुनियाद पर आजाद भारत के संविधान की आधारशिला रखी गई थी, उसे जमीनी हकीकत में बदलने का काम किया इन कानूनों ने.
यूं तो पूरी मानवता का इतिहास ही विकास की सतत यात्रा है, लेकिन महिलाओं की आजादी और बराबरी की यात्रा सबसे लंबी और संघर्षपूर्ण है. आजादी की लड़ाई में जब हर जाति, धर्म, वर्ग की स्त्रियों को आंदोलन में शिरकत करने के लिए बुलाया जा रहा था, भारत में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति से जुड़े कुछ तथ्य इस प्रकार थे-
1. महिला शिक्षा महज 1.8 फीसदी थी.
2. देश के बड़े लॉ और मेडिकल कॉलेज में महिलाओं का दाखिला प्रतिबंधित था.
3. सती और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं सिर्फ आर्थिक और सामाजिक रूप से गरीब परिवारों तक ही सीमित नहीं थीं.
आजादी के बाद भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बदलाव आने में काफी वक्त लगा. हालांकि स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी, एकसमान पारिश्रमिक और सुरक्षा जैसे पैमानों पर यदि महिलाओं की मौजूदा स्थिति का आंकलन करें तो बहुत संतोषजनक तस्वीर नहीं उभरती, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पिछले 75 सालों में हमने कोई प्रगति नहीं की है.
दुनिया के बाकी हिस्सों में जहां औरतों को मतदान के अधिकार लिए सौ साल लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी, आजाद भारत के संविधान में पहले दिन से महिलाओं का यह अधिकार सुरक्षित रखा गया. 6 दिसंबर, 1946 को जब संविधान सभा का गठन हुआ तो कुल 296 सदस्यों वाली सभा में 15 महिलाएं थीं. राजकुमारी अमृत कौर, हंसा मेहता, दुर्गाबाई देशमुख, अम्मू स्वामीनाथन, बेगम ऐजाज रसूल, सुचेता कृपलानी, पूर्णिमा बनर्जी, रेनुका रे, एनी मसकैरिनी, कमला चौधरी, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, लीला रॉ और मालती चौधरी जैसी महिलाएं संविधान सभा के सदस्यों में शामिल थीं.
26 जनवरी, 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ तो भारत के प्रत्येक नागरिक के समान अधिकारों को सुनिश्चित किया गया. धर्म, जाति, वर्ग आदि के साथ-साथ लिंग के आधार पर भी किसी भी तरह के भेदभाव को असंवैधानिक करार दिया गया.
संविधान में जिस न्याय, समता और बराबरी की बातें थीं, उसे 36 करोड़ की तत्कालीन आबादी वाले देश पर लागू करना कोई आसान काम नहीं था. संविधान वह मूल भावना थी, जिस पर एक आजाद लोकतांत्रिक देश की नींव रखी गई थी. लेकिन उस विचार और भावना को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए लंबे सांस्कृतिक आंदोलन के साथ-साथ जरूरत थी ठोस कानूनों की. कानून, जो महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक बराबरी को, अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकें. किसी तरह का भेदभाव होने पर महिला के पास न्यायालय का सुरक्षा कवच हो.
आजाद भारत में बनाए गए इन सात कानूनों ने महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
1. हिंदू मैरिज एक्ट 1955 (हिंदू विवाह अधिनियम 1955)
यह कानून आने से पहले विवाह से जुड़े नियम और परंपराएं स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग थे. हिंदुओं की विवाह व्यवस्था में पुरुषों के लिए बहुत सारे लिखित और अलिखित विशेषाधिकार सुरक्षित थे, जबकि स्त्रियों के पास कोई अधिकार नहीं था. हिंदू मैरिज एक्ट ने पहली बार साफ शब्दों में विवाह से जुड़े नियमों को परिभाषित करते हुए उसमें महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार दिए. अब एक महिला के पास भी पुरुष की तरह तलाक लेने, दूसरा विवाह करने, तलाक की स्थिति में अपना आर्थिक अधिकार सुरक्षित रखने का कानून था. साथ ही इस कानून में बाल विवाह को गैरकानूनी घोषित करने के साथ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए एक से अधिक विवाह को अमान्य करार दिया गया.
2. हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956 (हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956)
यह शायद भारतीय स्त्रियों के सशक्त होने की दिशा में सबसे लंबी और सबसे मुश्किल लड़ाई है. भारत में लड़कियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा देने की कोई परंपरा नहीं है. बेटे पिता की संपत्ति के वारिस होते थे और बेटियों को विवाह में दहेज के नाम पर जो दिया जाता, वही उनका हिस्सा होता था. 1956 में बने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने इस भेदभाव को समाप्त करते हुए लड़कियों को पिता की संपत्ति का समान उत्तराधिकारी घोषित किया.
हालांकि सांस्कृतिक लड़ाई अब भी लंबी थी. कानून बनाने भर से जमीनी हकीकत नहीं बदलने वाली थी. लेकिन अब लड़कियां अपने इस अधिकार के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती थीं. इस देश के न्यायालय गवाह हैं कि 1956 के बाद से भारतीय न्यायालयों में फैमिली प्रॉपर्टी में अपना हिस्सा मांगने वाली लड़कियों के मुकदमों का ग्राफ लगातार ऊपर की ओर ही बढ़ा है.
दो साल पहले 2020 में इस कानून में एक और महत्वपूर्ण संशोधन हुआ. उत्तराधिकार कानून के तहत पहले लड़कियां सिर्फ पिता की अर्जित संपत्ति की समान अधिकारी थीं, लेकिन 2020 में हुए बदलाव के बाद उन्हें परिवार की पैतृक संपत्ति में भी समान अधिकार दे दिया गया. यानि अब सिर्फ पिता के शहर के घर और बैंक बैलेंस ही नहीं, बल्कि गांव के पुश्तैनी घर और जमीन में भी लड़कियों का बराबर का हिस्सा है.
3. हिंदू अडॉप्शन एंड मेन्टेनेंस एक्ट 1956 (हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956)
इस कानून ने अविवाहित महिलाओं को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया. साथ ही तलाक के बाद महिला के पति से गुजारा-भत्ता लेने के अधिकार को सुनिश्चित किया.
4. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 (विशेष विवाह अधिनियम, 1954)
यह देश की रूढि़वादी सोच और परंपरा को तोड़ने और आधुनिक भारत के निर्माण की दिशा में बना एक महत्वपूर्ण कानून था. यह कानून महिाओं को अंतर्जातीय विवाह, प्रेम विवाह का अधिकार देता है. इस कानून के मुताबिक कोई भी महिला, जिसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है, वह अपनी इच्छा से किसी भी जाति या धर्म के व्यक्ति के साथ प्रेम विवाह कर सकती है. स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 महिला के बुनियादी संवैधानिक को सुनिश्चित करता है.
5. डॉउरी प्रोहिबिशन एक्ट 1961 (दहेज निषेध अधिनियम 1961)
1961 में जब यह कानून बना, भारत में दहेज के कारण महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार और यहां तक कि हत्या का ग्राफ भी काफी बढ़ा हुआ था. इस कानून ने दहेज लेने और देने दोनों को कानूनन जुर्म करार दिया.
6. मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971)
यह कानून 1972 में लागू हुआ, जिसके तहत गर्भपात या अबॉर्शन को महिला के बुनियादी संवैधानिक अधिकारों में शुमार किया गया. इस कानून के मुताबिक कोई भी महिला, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, उसे अपनी स्वतंत्र मर्जी से गर्भपात करवाने का अधिकार है. इस कानून में 1975 और फिर 2021 में संशोधन किया गया. 2021 में हुए संशोधन में गर्भपात की समय सीमा बढ़ाकर 24 सप्ताह कर दी गई.
7. सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ विमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रॉहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट, 2013 (कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013)
2013 में बने इस कानून का मकसद कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करना था. इसके पहले 1997 में सु्प्रीम कोर्ट ने इस संबंध में कुछ गाइडलाइंस जारी की थीं, जिसे विशाखा गाइडलाइंस कहा जाता है, लेकिन तब यह कानून नहीं था. 2013 में बने कानून के बाद 10 से अधिक कर्मचारियों वाले किसी भी दफ्तर में पॉश कमेटी बनाना अनिवार्य कर दिया गया.