अपने इलाके के सैकड़ो फटेहाल बच्चों को मुफ़्त में पढ़ाते हैं मनोज कुमार
बीएचयू से ग्रेजुएशन के बाद पीएम नरेंद्र मोदी की कर्मभूमि पर सैकड़ों निर्धन बच्चों के भविष्य के सपने बुन रहे मनोज कुमार भयानक अभावों के बीच वर्षों से कभी खेतों के किनारे तो कभी पेड़ों के नीचे रोजाना अपराह्न तीन बजे से शाम छह बजे तक स्कूल चला रहे हैं। पत्नी अनिता गरीब लड़कियों को मुफ़्त में सिलाई-कढ़ाई सिखाती हैं।
कभी खेतों के किनारे जमीन पर तो कभी पेड़ों के नीचे सैकड़ों गरीब-वंचित बच्चों को जोड़-जुड़ाकर उनके भविष्य का अंधेरा छांटने में जुटे मनोज कुमार यादव की कोशिशें हमारे देश की दोमुंही बजट-शिक्षा प्रणाली, अट्टालिकाओं में खिलखिलाते कॉन्वेंट स्कूलों, ऊंची पगार वाले आधुनिक गुरुजनों, सिर्फ गाल बजाने वाले शिक्षाविदों, चिंतकों की दशा-दिशा पर एक झन्नाटेदार तमाचा है।
बीएचयू से ग्रेजुएशन के बाद निर्धन, बेसहारा नौनिहालों के सपने बुन रहे मनोज कुमार पिछले डेढ़ साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सरज़मीं पर वाराणसी की सदर तहसील के अपने गांव ऊगापुर में लाख अभावों के बावजूद अपने संकल्प से कत्तई डिगे नहीं हैं। इस दौरान उन्हे तमाम कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। आज भी कमोबेश वैसे ही हालात से जूझते आ रहे हैं।
मनोज की अत्यंत संसाधनहीन पाठशाला में ऐसे बच्चों की संख्या तो पांच से बढ़कर ढाई सौ तक पहुंच चुकी हैं लेकिन विडंबना ये है कि उनमें ज्यादातर मासूम ऐसे परिवारों के होते हैं, जिनमें किसी के मां-बाप इस दुनिया में नहीं तो कोई बकरी चराता है, कूड़ा बीनता रहा है, कोई घुमक्कड़ नट समुदाय से आता है। मनोज कुमार की पत्नी अनिता यादव अपने गाँव की गरीब लड़कियों को स्वावलंबी बनाने के लिए मुफ़्त में सिलाई-कढ़ाई सिखाती हैं।
मनोज कुमार का साहस और संकल्प तो देखिए कि अपनी मां के नाम से 'प्रभावती वेलफेयर एंड एजुकेशनल ट्रस्ट' के बैनर तले वह समाज और सिस्टम से कोई मदद न मिलने के बावजूद अपने कठिनतर समय में पत्नी अनीता यादव एवं एक सहयोगी के साथ अपने मिशन पर डटे हुए हैं। इस समय उनके स्कूल के संपर्क में वैसे तो ढाई सौ से अधिक बच्चे हैं लेकिन रोजाना की उपस्थिति औसतन सौ-सवा सौ बच्चों की ही हो पाती है।
मनोज ने जब निर्धन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था, शिक्षा सत्र की शुरुआत जुलाई में घर-घर जाकर वह बच्चों को पढ़ाने की गुहार लगाते तो खाते-कमाते ज्यादातर परिवारों के अभिभावक कहते कि वहे वहां अपने बच्चे को पढ़ने के लिए नहीं भेजेंगे क्योंकि दूसरी बिरादरी के बच्चे वहां उन्हे मारते हैं।
मनोज के स्कूल की क्लास इसलिए अपराह्न तीन बजे से शुरू होती है कि इसी साल एक बार बीएसए ने उनके स्कूल को कोई मदद देने की बजाय उल्टे इल्जाम लगा दिया था कि आपके कारण हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चे क्लास में नहीं आ रहे हैं। आपके स्कूल को तो वैसे भी कोई मान्यता नहीं है।
मनोज कुमार का गांव ऊगापुर केंद्रीय कौशल विकास मंत्री डॉ. महेन्द्रनाथ पांडे के चंदौली लोकसभा क्षेत्र में है। मनोज कहते हैं कि अपने मिशन के लिए पीएम मोदी से गुहार लगाना तो दूर, अपने प्रतिनिधि पांडेय जी से भी मुलाकात हो पाना असंभव लगता है। मीडिया के साथ भी उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
उनके स्कूल के गरीब बच्चों के कार्यक्रमों को कोई कवरेज नहीं दी जाती है। बड़े अखबारों के कुछ रिपोर्टर खबर छपवाने की बात पर पैसा मांगने से भी परहेज नहीं करते हैं। अब तक सिर्फ सोशल मीडिया के अलावा, पंजाब केसरी और राष्ट्रीय सहारा ने उनके स्कूल से सम्बंधित एक-दो समाचारों को किंचित स्थान दिया है।
मनोज कुमार यादव किस तरह के अभावों के बीच अपने मिशन को आयाम दे रहे हैं, इसका अंदाजा इतने से ही लग सकता है कि पिछले डेढ़ साल से वह एक ही कपड़ा पहन कर टीचिंग में लगे हैं। पैसे के भयानक अभाव में वह न अपने, न अपनी पत्नी के लिए कोई नया कपड़ा खरीद सके हैं। इधर-उधर से अथवा मामूली खेती से जो भी जुट जाता है, सब निर्धन बच्चों की किताब-कापी आदि पर खर्च हो जाता है। पढ़ाई के इस काम में मदद तो दूर, जान-पहचान वाले तक उन्हे पागल कहने से बाज नहीं आते हैं।
मनोज कुमार बताते हैं कि स्कूल के शुरुआत के दिनों से ही सिर्फ उनकी मां प्रभावती हौसलाआफजाई करती आ रही हैं। वह चूंकि बचपन से ही पढ़ाई में तेज-तर्रार थे तो माता-पिता ने कभी उनकी पढ़ाई नहीं रुकने दी। उनकी मां एक स्कूल में बच्चों के लिए मिड डे मील बनाती हैं। उसी आमदनी के बूते उन्होंने अपने बेटे को बीएचयू से ग्रेजुएशन कराया है। शिक्षा के मिशन में मनोज कुमार बीएचयू के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय को अपना आदर्श मानते हैं। वह कहते भी हैं कि महामना की राह का ही वह अनुकरण कर रहे हैं।
मनोज कुमार बताते हैं कि ग्रेजुएशन के बाद जिन दिनो वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे थे, उनके पिता दुर्घटना में घायल हो गए। कर्ज लेकर उनका इलाज कराना पड़ा। फिर बहनों के हाथ पीले करने पड़े। उसके बाद महीनो खाने के लिए घर में सब्जी तक नसीब नहीं हुई। सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी धरी रह गई। तभी से जिंदगी गरीब नन्हे मासूमों की दुनिया की होकर रह गई है। अपना स्कूल शुरू करने से पहले कुछ साल तक उन्होंने एक निजी स्कूल में टीचिंग कर अपने सारे कर्ज उतारे।
वह बताते हैं कि उनसे लोग बातें तो बड़ी अच्छी-अच्छी करते हैं, स्कूल चलाने में मदद के बड़े बड़े वायदे करते हैं लेकिन बाद में फोन तक रिसीव नहीं करते हैं। जयपुर के एक सज्जन तो उनसे महीने भर तक मदद का आश्वासन देकर उनके स्कूल की गतिविधियों की वीडियो मंगाते रहे, बाद में खामोशी साध गए। पता नहीं उन सब वीडियो का उन्होंने क्या किया।
इसी तरह अमेरिका की एक महिला ने उनके स्कूल को अपने एनजीओ में शामिल कर मदद का सपना दिखाया। मुंबई के एक व्यक्ति ने खूब शाबासी सुनाते हुए हर महीने उनके स्कूल को पांच हजार रुपए देने का ढांढस दिया, लेकिन वे सब सिर्फ कहने-सुनने की बातें थीं।
कोई मदद करे, न करे, गरीब बच्चों का भविष्य संवारने का मनोज का मिशन न आज तक थमा है, न आगे थमने वाला है। उन्हे यकीन है कि उनकी तपस्या कभी न कभी जरूर रंग लाएगी। अब तक चला है, आगे भी उनका स्कूल इसी तरह रोजाना अपराह्न तीन बजे से शाम छह बजे तक चलता रहेगा।
मनोज कहते हैं कि उनसे संपर्क के लिए कोई भी व्यक्ति उनके मोबाइल नंबर 9451044285 पर संपर्क कर सकता है।