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मद्रास आईआईटी की फातिमा लतीफ की आत्महत्या ने दिया नई बहस को जन्म

मद्रास आईआईटी की फातिमा लतीफ की आत्महत्या ने दिया नई बहस को जन्म

Tuesday November 19, 2019 , 4 min Read

हर साल लाखों असफल छात्रों और उनके अभिभावकों के लिए शिक्षा का समांतर तंत्र निरंतर फैलता हुआ एक दानवी बाजार बन चुका है। ज्यादा से ज्यादा अंकों की मारामारी एक डरे हुए समाज की नई संरचना कर रही है। कोल्लम (केरल) निवासी मद्रास आईआईटी की छात्रा फातिमा लतीफ की आत्महत्या ने छात्रों की अकाल मौतों पर नई बहस का जन्म दे दिया है। 

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पहली फोटो में फातिमा, दूसरी फोटो में विरोध प्रदर्शन करते छात्र


डेवलेपमेंट स्टडीज के एमए इंटिग्रेटड कोर्स के प्रथम वर्ष की केरल की छात्रा फातिमा लतीफ की आत्महत्या के ताज़ा मामले ने एक बार फिर बीटेक, एमटेक, पीएचडी कर रहे छात्रों की खुदकुशी के सवाल को सुर्खियों में ला दिया है। कोल्लम की रहने वाली फातिमा ने इसी साल जुलाई में आईआईटी मद्रास में एडमिशन लिया था। इसी बीच दिल्ली आईआईटी की एक छात्रा की हॉस्टल में संदिग्ध हालात में हुई मौत ने इस सवालिया सिलसिले को बहस का रूप दे दिया है। हाल के वर्षों में कोचिंग हब कहे जाने वाले कोटा (राजस्थान) छात्रों की आत्महत्याओं के कारण भी सुर्खियों में है। पिछले साल वहां कुल उन्नीस छात्रों ने मौत को गले लगा लिया।


एक बात और गौरतलब है कि एनसीईआरटी, सीबीएसई जैसे केंद्रीय शिक्षा बोर्डों के अलावा विभिन्न राज्यों के अपने शिक्षा बोर्डों के 10वीं, 12वीं के परीक्षा परिणामों में 100 फीसदी परसेंटाइल वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ी है, साथ ही इंजीनियरिंग, मेडिकल और स्नातक कोर्सों में दाखिलों की होड़ भी। उनकी सफलताओं का मीडिया बखान कम अंकों वाले या अनुत्तीर्ण छात्रों पर गलत असर डाल रहा है। 12वीं के बाद करियर-केंद्रित प्रतियोगिताओं का दबाव भी छात्रों को बर्बाद कर रहा है।


कठिन प्रवेश परीक्षा, कम सीटें, बड़ी उम्मीदें, अलगाव, उपेक्षा, पक्षपात, जातीय पूर्वाग्रह और नौकरी के अवसरों में आती गिरावट, बाजार की डांवाडोल हालत, प्लेसमेंट के लिए कंपनियों की शर्ते, घर परिवार और समाज के आग्रह- छात्रों के लिए अत्यन्त मानसिक और शारीरिक दबाव का वातावरण बना रहे हैं। अकेले कोचिंग की मंडी बन चुके राजस्थान के कोटा शहर का ही हाल जानें तो वह अब आत्महत्याओं का गढ़ बनता जा रहा है। वहां शिक्षा के बजाय सपने बेचने का कारोबार तमाम युवाओं को मौत के मुंह में धकेलने लगा है।




कोटा एक तरफ जहां मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं में बेहतर परिणाम देने के लिए जाना जाता है, वहीं छात्रों की आत्महत्याओं के बढ़ते मामलों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। कोटा पुलिस के अनुसार वर्ष 2018 में 19 छात्र, 2017 में सात छात्र, 2016 में 18 छात्र और 2015 में 31 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया। वर्ष 2014 में कोटा में 45 छात्रों ने आत्महत्या की थी, जो 2013 की अपेक्षा लगभग 61.3 प्रतिशत ज्यादा थी।


मनोविश्लेषकों का कहना है कि उच्च शिक्षा, दाखिले से लेकर डिग्री हासिल करने तक एक भीषण संघर्ष और यातना का एक बीहड़ दौर बन चुका है। इस बीच सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी भूमंडलीय दुष्चक्र का एक कोना बन चुका है। फेक न्यूज, सूचना अतिवाद और सोशल मीडिया ट्रायल ने मानो देखने सुनने समझने के रास्ते बंद कर दिए हैं। इसी साल मई में मुंबई के एक सरकारी अस्पताल में मेडिकल की छात्रा पायल तड़वी ने आत्महत्या कर ली थी। उसके सीनियरों पर आरोप था कि उन्होंने उस पर जातिगत ताने कसे, उसका उत्पीड़न किया।


2016 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने जान दे दी। इस साल अप्रैल में तेलंगाना में एक के बाद एक 19 छात्रों ने माध्यमिक परीक्षा में कम अंक आने या फेल हो जाने पर आत्महत्याएं कर लीं। पिछले दस वर्षों में आआइटी में आत्महत्या के 52 मामले सामने आ चुके हैं। सबसे ज्यादा 14 मौतें आईआईटी मद्रास में हुई हैं।


राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2016 में 9474 छात्रों ने आत्महत्या की, 2015 में 8934 जबकि 2014 में ये संख्या 8068 बताई गई। 2015 में आत्महत्या करने वालों में उच्च शिक्षा वाले छात्रों की संख्या 1183 थी।





मनोविश्लेषकों का कहना है कि 12वीं के नतीजे आने के बाद अखबारों में ताबड़तोड़ कोचिंग संस्थानों और निजी स्कूलों के इश्तिहार आने लगते हैं। आधे पेज से लेकर दो तीन पेज के इन विज्ञापनों में अपने संस्थान के सफलतम छात्रों की अंगूठा आकार की फोटो चिपकाकर ये अपना गुणगान करते हैं। कई बार तो एक ही अखबार में प्रतिस्पर्धी संस्थानों के विज्ञापन ऊपर नीचे या आमने सामने छपे दिखते हैं।


इसके अलावा अखबार के साथ आने वाले पर्चे, परिशिष्ट और पैंफलेट हैं और फिर सड़कों पर बैनर, बोर्ड, वॉल राइटिंग भी होती ही है। अखबार हो या टीवी, सब सफल परीक्षार्थियों के गुणगान से भरे रहते हैं। इंटरव्यू छापे जाते हैं, दिखाये जाते हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन जाता है कि मानो कम अंक वाले छात्र समाज से बहिष्कृत हों।


शिक्षा का ये एक समांतर तंत्र है, निरंतर फैलता हुआ एक दानवी बाजार- जिसमें से होकर हैरान परेशान विद्यार्थी और गुमसुम मां-बाप गुजर रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा अंकों की ये मारामारी एक डरे हुए समाज की नई संरचना कर रही है।