प्रशासन हो या चिकित्सा, महिला आईएएस डॉ आकांक्षा के पास है दोनों मर्ज़ की दवा
"कोई बड़ी सफलता, जीवन में संकल्पों के भी नए-नए दरवाजे खोलने लगती है, जैसेकि कभी एमबीबीएस करने के बाद वाराणसी की डॉ आकांक्षा भास्कर जब आईएएस बनीं, एक अस्पताल के मुआयने के दौरान परेशान मरीजों का इलाज करने लगीं। सिलसिला आज भी थमा नहीं है। गांव वाले तो उन्हे डॉक्टर ही समझते हैं।"
वर्ष 2015 को याद करिए। वाराणसी की डॉ आकांक्षा भास्कर। अब वह प्रशासनिक अफसर हैं, फिलहाल, उस पर बात बाद में। अभी 2015 की बात पहले। उस साल उन्होंने अपनी कठिन साधना से आईएएस परीक्षा में 76वां रैंक हासिल कर माता-पिता के साथ वाराणसी का भी मान बढ़ाया था। उस समय वह दिल्ली में थीं। उनके घर पर बधाई देने वालों का तांता लग गया था। उनके माता-पिता पेशे से चिकित्सक।
माता-पिता का सपना था कि आकांक्षा डॉक्टर बनें, तो बेटी ने भी पहला कदम उसी पायदान पर रखा लेकिन मंतव्य तो किसी और मंजिल का था। वह आईएएस बनने का ख्वाब देख रही थीं, जो 2015 में पूरा हुआ। डॉ आकांक्षा कहती हैं कि उन्होंने अपने बचपन का ख्वाब पूरा किया। वह अब आईएएस हैं लेकिन पुरुलिया के आदिवासी ग्रामीणों की नजर में सेवाभावी चिकित्सक।
डॉ आकांक्षा भास्कर ने सिविल सर्विसेज की परीक्षा में मेन सब्जेक्ट मेडिकल लिया था। पिता डॉ. भानू शंकर पांडेय कहते हैं कि बिटिया ने 24 साल की उम्र में अप्रैल 2014 में कोलकाता के आरजीकार मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर अपने बचपन के सपने से पहले मेरे सपनों को पंख लगाए थे।
हालांकि, उन्होंने ठान लिया था कि अब वह अपना सपना भी पूरा करेंगी। दिल्ली जाकर सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू की।
महज सात महीने के अंदर ही उसने अपने ख्वाब को आईएएस बनकर पूरा कर दिखाया।
जीवन में व्यक्ति चाहे जितनी तरह की सफलताएं हासिल कर ले, उसके भविष्य का हर मोड़ उसकी हर तरह की शिक्षा का हमेशा कायल रहता है। डॉ आकांक्षा भास्कर इस समय रघुनाथपुर (प. बंगाल) में एसडीओ के पद पर रहते हुए इसी बात को चरितार्थ कर रही हैं।
प्रशासनिक अधिकारी होते हुई भी उनकी मेडिकल की पढ़ाई भी पुरुलिया के ग्रामीणों के काम आ रही है। डॉ आकांक्षा कहती हैं कि सिविल सेवा में आने से पहले बहुत कुछ कर बदलने का जज्बा होता है। एक आईएस अगर कहे कि वह देश को बदल देगा तो ये बात थोड़ी बेमानी सी लगती है लेकिन जो पीड़ित इंसाफ पाने के लिए उसके पास आते हैं अगर वह उनकी प्रॉब्लम सुनकर उसे दूर कर दे तो देश के हालात काफी बेहतर हो सकते हैं।
इस समय वह प्रशासन और चिकित्सा दोनो तरह के कामो में हाथ बंटाकर वैसी ही भूमिका निभा रही हैं और आगे भी निभाते रहने के लिए वह कृतसंकल्प हैं।
डॉ आकांक्षा भास्कर बताती हैं कि पिछले दिनो वह अपने कार्यक्षेत्र में मुआयने के दौरान जब पुरुलिया के गांव संतुरी में वहां के अस्पताल का हालात जानने पहुंचीं तो वहां न तो अपेक्षित मेडिकल स्टाफ, न ही बाकी ज़रूरी सुविधाएँ दिखीं। पीड़ितों की हालत उनसे देखी नहीं गई तो उनके अंदर का चिकित्सक जाग उठा।
उन्होंने तय किया अब वह स्वयं भी उनके इलाज में जुट जाएं और लगे हाथ जुट भी गईं। उन्होने सोचा कि इन विवश मरीज़ों से जुड़ने के लिए उनके इलाज से अच्छा काम और क्या हो सकता है। उस दिन उन्होंने संतुरी के उस अस्पताल में लगभग चार दर्जन बीमारों का इलाज ही नहीं किया बल्कि उनके लिए दवाओं का तुरंत इंतजाम भी करा दिया।
उस दिन से डॉ आकांक्षा भास्कर प्रशासनिक दायित्व संभालने के साथ ही अपने इलाके के लोगों का इलाज भी करने लगी हैं। हां, इतना जरूर है कि प्रशासनिक कामों के दबाव के कारण सिर्फ अवकाश के दिनो में मरीजों तक उनकी पहुंच संभव हो पाती है।
अब तो ज्यादातर आदिवासी ग्रामीण उन्हे प्रशासनिक अधिकारी नहीं, बल्कि एक महिला चिकित्सक के रूप में भी जानने लगे हैं। वह कहती हैं, पहले भी गांवों में चिकित्सा करती रही हैं, इसलिए कोई परेशानी महसूस नहीं होती है। उन्होंने तो एक वक़्त में संतुरी के अस्पताल जैसी ही एक गांव की हालत देखकर प्रशासनिक सेवा में जाने का दृढ़ संकल्प लिया था। उन दिनो वह चिकित्सक थीं।