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मिलिए उस शख्स से जो बच्चों को टीका लगाने के लिए चलता है 8 घंटे पैदल

मिलिए उस शख्स से जो बच्चों को टीका लगाने के लिए चलता है 8 घंटे पैदल

Monday July 01, 2019 , 6 min Read

phurpa arunachal

फुरपा



भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं हैं। ग्रामीण और पहाड़ी इलाकों में तो स्थिति और भी खस्ताहाल है। ऐसी विपरीत स्थिति में भी कुछ स्वास्थ्यकर्मी अच्छी हेल्थकेयर सर्विस मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आज हम बात करने जा रहे हैं चीन से लगे अरुणाचल प्रदेश के मागो गांव में रहने वाले श्री फुरपा की। योरस्टोरी ने फुरपा से बात करने के लिए 3 महीने तक इंतजार करना पड़ा और यह इंतजार सार्थक नजर आ रहा है।


अरुणाचल प्रदेश का तवांग जिला चीन से सटा हुआ है। इसी जिले में स्थित एक गांव है, मागो। यह गांव मुख्यधारा से एकदम कटा हुआ है। इस वजह से यहां न तो स्वास्थ्य का समुचित इंतजाम है और न ही शिक्षा की कोई व्यवस्था। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी गांव के लोगों को काफी दूर पैदल चलना पड़ता है। पास के कस्बे तक पहुंचने के लिए 36 किलोमीटर पैदल सफर तय करना पड़ता है।


परिवहन की कोई व्यवस्था न होने की वजह से फुरपा को 2013 से ट्रैक करते हुए इस गांव में आना पड़ता है ताकि वे बच्चों का टीकाकरण कर सकें। योरस्टोरी ने भी फुरपा के तवांग लौटने का इंतजार किया। वे मागो गांव में मीजा रुबेला का टीका लगाने गए हुए थे। वे हर महीने तवांग में मेडिकल सामान लेने के लिए वापस आते हैं। अभी तक उन्होंने गांव में 35 बच्चों का टीकाकरण कर दिया है। इस गांव में 75 परिवार रहते हैं। हाल ही में उन्होंने गांव के लोगों को पोलियो का भी टीका लगाना शुरू किया है।


योरस्टोरी से बात करते हुए फुरपा बताते हैं, 'जब पहली बार मैं टीकाकरण के लिए मागो गांव गया था तो काफी मुश्किल हुई थी। काफी लंबा रास्ता होने की वजह से थकान लग जाती थी। मुझे वहां पहुंचने के लिए घंटों तक का पैदल सफर करना पड़ता था।' 2011 में चिकित्सा प्रशिक्षण लेने के बाद फुरपा अपने गांव के लिए कुछ अच्छा करना चाहते थे। फुरपा अब तवांग जिले से टीके और चिकित्सा उपकरण एकत्र करते हैं। मोबाइल कनेक्टिविटी की कमी के कारण, चिकित्सा अधिकारियों ने उन्हें मागो जाने के लिए पहले से ही दवाएं और टीका उपलब्ध करवाते हैं।




phurpa arunachal

फुरपा पहाड़ों को पार करते हुए



फुरपा कहते हैं, 'मैंने स्वास्थ्य सेवा को एक ऐसे गाँव के बच्चों के करीब लाने के लिए एक चुनौती के रूप में लिया, जिसके पास सड़कें भी नहीं हैं। अब, मुझे बहुत खुशी है कि ये बच्चे खसरा और रूबेला से खतरे से बाहर हैं।' 2013 से फुरपा जिस अभियान के तहत काम कर रहे हैं, वह खसरा, रूबेला और जन्मजात रूबेला सिंड्रोम (सीआरएस) के कारण बीमारी और मौतों को कम करने के वैश्विक प्रयास का एक हिस्सा है। इस अभियान ने पांच साल से कम उम्र की बाल मृत्यु दर को कम करने और जन्मजात रूबेला सिंड्रोम को रोकने में मदद की है।


कठिन इलाके के बावजूद फुरपा के अभियान ने 100 प्रतिशत की सफलता दर हासिल की है। इसके अलावा, उन्होंने कुछ महीने पहले लुक्थम में एक टीकाकरण अभियान भी चलाया - 12 घंटे की एक और विश्वास से भरी यात्रा। इस कठिन काम के लिए फुर्पा को 25,000 रुपये का मासिक वेतन दिया जाता है।


रोजाना लंबी दूरी की ट्रेकिंग और हार न मानने के लिए बहुत अधिक प्रेरणा की आवश्यकता होती है। लेकिन फुरपा ने हार मानने से इंकार कर दिया। जब योरस्टोरी ने उनके गांव के हालात के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, 'हमारे गांव को चार साल पहले बिजली मिली लेकिन हमारे पास अभी भी किसी भी टेलीफोन या मोबाइल के लिए कोई टावर नहीं है। यहां कुछ ही घर हैं लेकिन हमारे पास सिर्फ एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय है। मेरे दो बच्चे वहां पढ़ रहे हैं जबकि मेरा तीसरा बच्चा पास के शहर के एक निजी स्कूल में पढ़ रहा है। 


भौगोलिक स्थितियां तो मुश्किल हैं ही साथ ही जबरदस्त सर्दियां होने की वजह से उनके ऑपरेशन को और भी कठिन बना दिया है। चूंकि गांव में चरवाहों का बोलबाला है जो हरियाली की तलाश में दूर तक जानवरों को लेकर चले जाते हैं इसलिए इन चरवाहों के बच्चों को टीका लगाने के लिए फुरपा को और भी अधिक दूरी तय करनी पड़ती है। तवांग के जिला चिकित्सा अधिकारी वांग्दी लामा फुरपा के जुनून की प्रशंसा करते हैं। दिलचस्प बात है कि फुरपा को सरकार की तरफ से नहीं भेजा गया था। बल्कि उन्होंने ट्रेनिंग पूरी करने के बाद खुद ही उच्च अधिकारियों से अनुरोध किया कि वे उन्हें अपने मागो जाने की अनुमति दें। वे बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को लोगों के करीब लाना चाहते थे।





खसरा और रूबेला एक जानलेवा बीमारी है और इसके भयानक परिणाम होते हैं। वैश्विक खसरा और रूबेला इनिशिएटिव का दावा है कि 2000 के बाद से, दुनिया भर में हर साल 562,000 बच्चों की मौत खसरे के कारण होती है। दूसरी ओर, रूबेला, जिसे जर्मन मीज़ल्स के रूप में भी जाना जाता है, गर्भवती महिलाओं और उनके नवजात शिशुओं को प्रभावित करता है। आंकड़ों में कहा गया है कि 100,000 बच्चे सीआरएस के साथ पैदा हुए हैं और इसकी वजह से उन्हें हृदय की समस्याओं, बहरेपन और अंधापन जैसे कई जन्म दोषों का सामना करना पड़ता है।


भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने नौ महीने से 15 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए मीजल्स-रूबेला (MR) टीकाकरण अभियान शुरू किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र के सहयोग से भारत 2020 तक इस बीमारी के उन्मूलन की उम्मीद जताई है। इस कार्यक्रम के तहत अब तक 41 करोड़ बच्चों को चरणबद्ध तरीके से शामिल किया गया है।


दूरदराज के क्षेत्रों में टीकाकरण पहल आमतौर पर हेलीकाप्टरों द्वारा की जाती है। लेकिन फुरपा ने पैदल यात्रा करने और अधिक से अधिक बच्चों तक पहुंचने में कोई संकोच नहीं किया। आश्चर्य नहीं कि उन्हें अपने प्रयासों के लिए काफी पहचान मिली है। डॉ. वांगदी के मुताबिक, 'यहां के स्थानीय लोगों के अलावा तैनात सुरक्षाकर्मियों के बच्चों को भी टीकाकरण की सुविधा मुहैया कराई गई।' 


इस साल की शुरुआत में गणतंत्र दिवस पर तवांग के जिला आयुक्त ने फुरपा को उनके सराहनीय कार्य के लिए सम्मानित किया। उन्हें अरुणाचल प्रदेश सरकार द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। दूरदराज के क्षेत्रों में टीकाकरण कार्यक्रमों की परिचालन चुनौतियों के बारे में पूछे जाने पर डॉ. वांगडी कहते हैं, 'भारत सरकार के अनुसार यदि कई बच्चों को टीका लगाया जाना है, तो यह अभियान मंगलवार और शनिवार को चलाया जाता है। यदि आबादी कम और सुलभ है, तो टीकाकरण मासिक आधार पर किया जाता है। मागो जैसे क्षेत्रों के लिए, यह केवल तिमाही आधार पर है।'


फुरपा कहते हैं, 'मुझे अपने गाँव मागो के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के अलावा कुछ नहीं चाहिए। जब तक बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध नहीं हो जाती है, तब तक मैं अपने गांव और अपने लोगों की सेवा करता रहूंगा।'