वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं: गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने अपनी काव्य प्रतिभा से राष्ट्रीयता और देशभक्ति का बिगुल फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सनेही जी की आज जयंती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिखी गईं उनकी ये पंक्तियां आज भी हर भारतीय के दिल में गूंजती रहती हैं।
पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' हिंदी साहित्य के उन आचार्य कवियों में रहे हैं, जिनकी रचना-यात्रा ब्रजभाषा से आरंभ होकर प्राचीन छंद परंपरा को लगभग पचास वर्षों तक अनुप्राणित करती आ रही है। वह सनेही मंडल चलाते थे, जिसमें नए कवियों के विकसित होने का अवसर मिलता था।
जिन साहित्यकारों ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अपने-अपने तरीके से अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी, उनमें अग्रणी गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने अपनी काव्य प्रतिभा से राष्ट्रीयता और देशभक्ति का बिगुल फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सनेही जी की आज जयंती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिखी गईं उनकी ये पंक्तियां आज भी हर भारतीय के दिल में गूंजती रहती हैं-
जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
हिंदी के महाकवि गया प्रसाद शुक्ल उनके बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं- 'किताबें तैयार करने की अपेक्षा, कवि तैयार करने की ओर उनका अधिक ध्यान था। किताबें तो उनके शिष्यों ने जबर्दस्ती तैयार कर दीं।' सनेही जी अपने पद्यों की मंजूषा बनाने को जरा भी उत्सुक नहीं थे। कवि तैयार करने के लिए सनेही जी अपने पास आने वाले नए रचनाकारों की कविताओं में लगातार संशोधन करते थे। रचना पूरी तरह संपादित कर लेने के बाद उसे सुकवि में प्रकाशित करते थे। इसके साथ ही वह लगातार कानपुर में कवि-गोष्ठियां करते रहते थे। पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' हिंदी साहित्य के उन आचार्य कवियों में रहे हैं, जिनकी रचना-यात्रा ब्रजभाषा से आरंभ होकर प्राचीन छंद परंपरा को लगभग पचास वर्षों तक अनुप्राणित करती आ रही है। वह सनेही मंडल चलाते थे, जिसमें नए कवियों के विकसित होने का अवसर मिलता था।
ब्रजभाषा के सवैया, घनाक्षरी को खड़ी बोली में निखार सनेही मंडल के कवियों से मिला। कविता पर उनके रचनात्मक सरोकार हिंदी साहित्य के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना माने जाते हैं। राष्ट्रचेता काव्यधारा का उन्होंने 'त्रिशूल' नाम से नेतृत्व किया। इसी तरह से माखनलाल चतुर्वेदी ने 'एक भारतीय आत्मा' नाम से दूसरी काव्यधारा को प्रवाहित किया था। सनेही जी 'अलमस्त', 'लहर-लहरपुरी', 'तरंगी' आदि नामों से भी रचनाएं करते थे। सनेही मंडल के कवियों को समस्यापूर्ति के माध्यम से भी काव्य-रचना में समर्थ किया जाता था। वह अंतिम पंक्ति दे देते थे, उससे पहले की तीन पंक्तियां कवियों को लिखकर कविता पूरी करनी होती थी।
गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' का जन्म 21 अगस्त, 1883 को हड़हा ग्राम, उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. अवसेरीलाल शुक्ल और माता रुक्मिणी देवी थीं। सनेही जी जब केवल पाँच वर्ष के थे, पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। वर्ष 1899 में वह अपने गांव से आठ मील दूर बरहर नामक गांव के प्राइमरी स्कूल के अध्यापक नियुक्त हुए। वर्ष 1921 में गांधीजी के आंदोलन प्रभावित होकर टाउन स्कूल की हेडमास्टरी से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उसी वर्ष मुंशी प्रेमचंद ने भी सरकारी नौकरी ठुकरा दी थी। अपने बारे में सनेही जी स्वयं लिखते हैं- 'मेरा जन्म आधुनिक हिंदी के निर्माण में हुआ। भाषा में निखार आ रहा था, गद्य का विकास हो रहा था। पद्य की भाषा में एकरूपता का अभाव था, वह आंचलिकता के प्रभाव से त्रस्त थी। उसके नाना रूप थे।' अवधी, बैसवारी, पूरबी, बिहारी, मैथिली, बुंदेलखंडी, राजस्थानी आदि-आदि। फिर भी ब्रजभाषा पर पद्य का अखंड साम्राज्य था। उस समय के बड़े-बड़े कवियों का ऐसा मत था कि काव्य के लिए एकमात्र ब्रजभाषा ही उपयुक्त है। उसके माधुर्य और लोच पर कविगण लुब्ध थे किंतु साथ ही गद्य की भाषा के अनुरूप पद्य की भाषा के निरूपण में सुकृति सत्कवि संलग्न थे। यह नवीन परिवर्तन खड़ी बोली के नाम से जाना जाता था।
'इस संबंध में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का अथक श्रम और प्रयत्न श्लाघनीय है, जिन्होंने गद्य-पद्य रचना के लिए योग्य व्यक्तियों को प्रेरित, प्रोत्साहित किया। उस समय उर्दू सरकारी भाषा थी। ...मैंने मौलवी हामिद अली से फारसी का अध्ययन किया। साथ ही अपने ही ग्राम के लाला गिरधारी लाल से काव्य-रीति का विधिवत अध्ययन किया। लाला जी ब्रजभाषा के सुकवि थे। साथ ही हिंदी, उर्दू, फारसी के ज्ञाता भी थे।
मैं ब्रजभाषा के आचार्य भिखारीदास 'दास' के इस मत से सर्वथा सहमत रहा हूं कि-
शक्ति कवित्त बनाइबे की, जेहिं जन्म नछत्र मैं दीनीं विधातें, काव्य की रीति सिखै सुकवीन सों, देखै-सुनै बहु लोक की बातें, 'दास' जू जामें यकत्र ये तीन, बनै कविता मनरोचक तातें, एक बिना न चलै रथ जैसे, धुरंधर-सूत कि चक्र निपातैं।
'काव्य में मेरी बाल्यकाल से यही अनुरक्ति रही है। ... मैंने किसी दूसरी आकांक्षा को कभी प्रश्रय नहीं दिया। मेरी धारणा है कि
सागर-मंथन से निकला अमी पी गए देव, न बूंद बचा बस, वासुकी वास पताल में है, सुधा-धाम शशांक को चाय गये शश, जीवनदायक कोई नहीं, यहां खोज के देखिए आप दिशा दस, है तो यही कविता रस है, नहीं और कहां वसुधा में सुधारस। सनेहीजी की प्रमुख कृतियां हैं - प्रेमपचीसी, गप्पाष्टक, कुसुमांजलि, कृषक-क्रन्दन, त्रिशूल तरंग, राष्ट्रीय मंत्र, संजीवनी, राष्ट्रीय वीणा (द्वितीय भाग), कलामे-त्रिशूल, करुणा-कादम्बिनी और सनेही रचनावली। 20 मई 1972 को उनका निधन हो गया था-
जब दुख पर दुख हों झेल रहे, बैरी हों पापड़ बेल रहे, हों दिन ज्यों-त्यों कर ढेल रहे, बाकी न किसी से मेल रहे,
तो अपने जी में यह समझो, दिन अच्छे आने वाले हैं , जब पड़ा विपद का डेरा हो, दुर्घटनाओं ने घेरा हो,
काली निशि हो, न सबेरा हो, उर में दुख-दैन्य बसेरा हो, तो अपने जी में यह समझो, दिन अच्छे आने वाले हैं।
जब मन रह-रह घबराता हो, क्षण भर भी शान्ति न पाता हो, हरदम दम घुटता जाता हो, जुड़ रहा मृत्यु से नाता हो,
तो अपने जी में यह समझो, दिन अच्छे आने वाले हैं। जब निन्दक निन्दा करते हों, द्वेषी कुढ़-कुढ़ कर मरते हों,
साथी मन-ही-मन डरते हों, परिजन हो रुष्ट बिफरते हों, तो अपने जी में यह समझो, दिन अच्छे आने वाले हैं।
बीतती रात दिन आता है, यों ही दुख-सुख का नाता है, सब समय एक-सा जाता है, जब दुर्दिन तुम्हें सताता है,
तो अपने जी में यह समझो, दिन अच्छे आने वाले हैं।
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