जो करता था कभी दिहाड़ी मजदूरी आज अपने काम से हज़ारों कमाने के साथ-साथ दे रहा है दूसरों को रोजगार भी
"नौकरी तो नौकरी ही होती है, उससे चाहे जितनी कमाई हो, सिरहाने कोई न कोई बड़ा हर वक्त अड़ा-खड़ा रहता है, मनमर्जी का ठिकाना तो बस अपना काम। इसी संकल्प से रीवा के नंदलाल सिंह के दिन बहुर गए। दिहाड़ी मजदूरी छोड़ अपनी फैक्टरी से वह खुद तो हर माह 50 हजार कमा ही रहे, दस और लोगों को वह रोजी-रोटी दिए हुए हैं।"
मन में दृढ़ इच्छा-शक्ति हो, अथक परिश्रम का माद्दा हो तो इंसान अपनी कामयाबी से भले अमीर न बन पाए, घर-गृहस्थी चलाने के लिए उसे किसी के आगे हाथ फैलाने की नौबत नहीं आ सकती है। एक वक्त में दिहाड़ी मजदूरी के भरोसे जीवन की गाड़ी खींचने वाले रीवां (म.प्र.) के नंदलाल सिंह का जीवन ऐसे ही पुरुषार्थ की जीती-जागती नज़ीर है। अपने अत्यंत जटिल जीवन से उबरने के लिए उन्हे शुरू में थोड़े पैसे का जुगाड़ और हाड़तोड़ मेहनत जरूर करनी पड़ी लेकिन हिम्मत से जूझते हुए आखिरकार उन्होंने अपना जीवन खुशहाली की राह पर मोड़ ही लिया।
उनकी इस श्रमसाध्य सफलता में मददगार बना प्राइम मिनिस्टर एम्प्लायमेंट जनरेशन प्रोग्राम (पीएमईजीपी) और यूनाइटेड बैंक का रूरल सेल्फ एम्प्लायमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट। किसी तरह भागदौड़ कर सबसे पहले पीएमईजीपी से उन्हे अपनी स्टील फैब्रिकेशन यूनिट लगाने के लिए बीस लाख रुपए की सहायता राशि मंजूर हुई। उसके बाद उन्होंने यूनाइटेड बैंक, रीवा से (ईडीपी) आंत्रप्रेन्योरशिप डिव्हेलपमेंट प्रोग्राम का प्रशिक्षण लिया। उसके बाद चल पड़ी उनकी 'माँ दुर्गा आयरन एंड स्टील फैब्रिकेशन' यूनिट। इस तरह एक साल के भीतर ही नंदलाल सिंह इस फैक्ट्री से हर महीने कम से कम पचास हजार रुपए की कमाई करने लगे।
नंदलाल सिंह मात्र दसवीं क्लास पास हैं। मामूली स्कूली शिक्षा के बाद वह दिहाड़ी मजदूरी करने लगे। बाद में वह एक फेब्रिकेशन वर्कशॉप में काम करने लगे। वहीं उनके एक दोस्त ने खुद के स्टार्टअप के लिए एक सरकारी स्कीम के बारे में बताया तो वह पैसे के जुगाड़ में बैंकों के दरवाजों पर दस्तक देने लगे। आज कल बैंकों की भीतरी करतूतें जिस तरह की देखने को मिलती हैं, नंदलाल सिंह को भी उससे काफी समय तक दो-चार होना पड़ा। उनकी दरख्वास्त इस टेबल से उस टेबल पर चक्कर काटती रही लेकिन वह अपने इरादे पर अडिग बने रहे।
इस दौरान वह ये सोचकर हैरान होते रहे कि आखिर केंद्र सरकार जब पीएमईजीपी योजना के माध्यम से युवाओं के स्वरोजगार को बढ़ावा देना चाहती है तो ये बैंक उन्हे मदद देने से इस तरह क्यों कतरा रहे हैं! सरकार तो चाहती है कि गांवों, कस्बों अथवा छोटे शहरों के लोग खुद अपे छोटे-मोटे कारोबार शुरू कर अपना जीवनयापन आसान करें, खुद अपनी कमाई का साधन बनाएं, साथ ही अपने साथ दो-चार और लोगों की रोजी-रोटी का ठिकाना बनें लेकिन यहां जैसे कुएं में भांग पड़ी है। मामूली से काम के लिए बैंकों के चक्कर पर चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। नंदलाल सिंह पर चाहे जो भी बीती, उन्होंने ठान लिया था कि पीछे नहीं हटेंगे, देखते हैं कि आखिर उन्हे कब तक ये फालतू की परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।
नंदलाल बताते हैं कि वह तो हाईस्कूल से आगे भी अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते थे लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के कारण उन्हे रोजी-रोजगार की तलाश में निकलना पड़ा। इतनी कम पढ़ाई पर ठीकठाक नौकरी भी तो मिलने से रही। सो, मेहनत-मजदूरी कर थोड़ी बहुत कमाई करने लगे मगर उससे घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचना दिनोदिन मुश्किल होने लगा। जब वह रीवां के उस छोटे से वर्कशॉप में नौकरी कर रहे थे, उनके मन में उथल-पुथल मची रहती थी। उनका दिमाग एक ही बात पर लगा रहता था कि वह खुद का कोई उद्यम क्यों न शुरू कर लें।
जैसे ही वर्कशॉप के दोस्त ने उन्हे प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के बारे में बताया, अनायास उन्हे जैसे अपने मन की मुराद पूरी होती दिखी। उसके बाद से ही वह सरकारी कार्यालयों और बैंकों के चक्कर काटने लगे। दफ्तरों से उनका प्रोजेक्ट कई एक बार अस्वीकार दिया गया। किसी तरह सम्बंधित अधिकारी उन्हे लोन देने पर सहमत हुए। जिला उद्योग केन्द्र से उनको हरी झंडी मिल गई। आज वह पचास-साठ हजार रुपए तो हर महीने कमा ही रहे हैं, उनकी यूनिट 'माँ दुर्गा आयरन एंड स्टील फैब्रिकेशन' से दस और लोगों की भी रोजी-रोटी चल रही है।