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देश के 10 करोड़ आदिवासियों के 'भगवान' बने नरेंद्र मोदी

दोबारा सत्तासीन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी किस तरह धरातल पर जुड़कर देश में बुनियादी बदलाव लाना चाहते हैं, उनकी तमाम हिकमतों के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण कोशिश पर तो कम ही लोगों का ध्यान गया होगा, वह है वृहद कार्ययोजना के माध्यम से देश के 27 राज्यों के लगभग 10 करोड़ आदिवासियों का आर्थिक विकास।

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सांकेतिक तस्वीर, साभार: Shutterstock

दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने आश्वस्त किया है कि जब तक देश की बागडोर उनके हाथों में होगी, जंगल में रहने वाले आदिवासियों, वनवासियों के अधिकारों और उनकी जमीनों को कोई हाथ नहीं लगा सकता है। उनकी सरकार आदिवासी समाज की पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई और जन-जन की सुनवाई के लिए पूरी निष्ठा से काम करेगी। पढ़ाई के लिए देशभर में एकलव्य स्कूलों का एक व्यापक नेटवर्क बनाया जा रहा है। आदिवासी क्षेत्रों से विश्व स्तरीय खिलाड़ी तैयार करने का अभियान चलाया जा रहा है। वनधन केंद्रों के माध्यम से वन-उपज में लगातार मूल्य वृद्धि की जा रही है।


गौरतलब है कि आजादी मिलने के 72 साल बाद भी दुरूह आदिवासी क्षेत्र बुनियादी सुविधाओं की आज भी वाट जोहते आ रहे हैं। वन संपदाओं के सहारे जीवनयापन करने वाले आदिवासी जंगलों में किसी तरह आबाद हैं। उनका एकमात्र सहारा लघु वनोपज लगभग पिछले पंद्रह वर्षों से प्रतिबंधित है। इसका दुष्परिणाम ये हुआ है कि आदिवासियों का लघु वनोपज से ही मोहभंग हो चला है और वे आजीविका के लिए ताबड़तोड़ वनों को इंधन (जलौनी) के रूप में बाजार पहुंचा रहे हैं, जिससे घने जंगल वीरान होते जा रहे हैं।


मोदी सरकार ने सत्तासीन होते ही लघु वनोपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया। इसमें इमली, महुआ, तोरा, आँवला आदि 10 लघु वनोपज शामिल थे। इस मूल्य पर वर्ष 2014-15 में लगभग 60 करोड़ की खरीद की गई। इसके बाद 2016-17 में 10 लघु वनोपज को बढ़ाकर 23 कर दिया गया। इस पर लगभग 125 करोड़ रुपए की खरीदारी की गई, जबकि यह भी पर्याप्त नहीं, सो, सरकार इस खरीद को सालाना 1200 करोड़ रुपए करने की ओर अग्रसर है। इसके लिए अब सरकार कम-से-कम 75 वनोपज को इस दायरे में ले आकर उनका न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बाजार मूल्य के बराबर करना है। अब 75 वनोपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर ग्रामीण हाट बाजारों से खरीदने की कार्य योजना तैयार की जा रही है। देश के 27 राज्यों के साथ लिखित समझौते के साथ इस योजना से देश भर के ढाई करोड़ आदिवासियों को जोड़ा जा रहा है।


वन-धन योजना के तहत देश भर में तीन हजार वन-धन केन्द्र स्थापित किये जा रहे हैं। जिला प्रशासन के माध्यम से हर केन्द्र पर लगभग तीन सौ आदिवासियों को अपनी लघु वनोपज बेचने, उनको परिष्कृत करने की व्यवस्था बनाई जा रही है। जैसे सामान्यतः तीस रुपए किलो बिकने वाली इमली बीज-रेशे निकालकर 120 रुपए किलो बेचने की योजना क्रियान्वित की जा रही है। वनोउपज भण्डारण, परिवहन, विक्रय, मूल्य संवर्धन, परिष्करण के तहत देश भर के जंगलों में रह रहे लगभग 10 करोड़ आदिवासियों में से लगभग 25 लाख आदिवासियों को इस योजना के माध्यम से उद्यमी बनाया जा रहा है। उनकी आय तीन-चार गुना बढ़ाने की कोशिश हो रही है।


आज लगभग दो लाख करोड़ रुपए का लघु वनोपज देश में उपलब्ध है, जिसके माध्यम से हर साल कम से कम तीन हजार करोड़ रुपए का व्यापार हो सकता है। अभी दो हजार रुपए की वनोपज से आदिवासी के हाथ में मात्र सौ रुपए पहुंच रहे हैं, जबकि उसे मिलने चाहिए 1200 रुपए। इसमें वैल्यू एडिशन जोड़ दिया जाए तो यह 10 हजार करोड़ रुपए तक हो जाता है। सरकार चाहती है कि अभी रोजाना बीस-पचीस रुपए कमाने वाले आदिवासी को कम से कम रोज दो सौ रुपए तक मिल जाएं। सरकार का ध्यान ऐसे लगभग ढाई लाख आदिवासी परिवारों की भी आजीविका पर है, जो लगभग पांच हजार किस्म की हस्तशिल्प कला की चीजें बनाते हैं।


सरकार उसे काठ, लोहे, मिट्टी के सामान, आभूषण आदि को ‘ट्राइब्स इण्डिया’ ब्रांड के तहत सौ दुकानों के माध्यम से लगभग 25 करोड़ रुपए तक का क्रय-विक्रय करा रही है। आगे ऐसी दुकानों की संख्या तीन हजार तक बढ़ाने की योजना है ताकि आदिवासी परिवारों की आय दोगुनी हो जाए।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता है कि सारी व्यवस्थाएं पहले की तरह सिर्फ कागजी ही न होकर रह जाएं, इसके लिए जमीनी क्रियान्वयन पर जोर देते हुए आगे देश के 27 राज्यों के लगभग पांच हजार हाट-बाजारों में उचित मूल्य निर्धारण, क्रेता समितियों को स्थायी रूप से सही मात्रा में एडवांस भुगतान, समय पर ठीक से वनोपज संग्रहण, आदिवासियों के लघु वनोपज व हस्तशिल्प का व्यापार 2000 करोड़ तक सुनिश्चित कर राज्य सरकारों, जिला कलेक्टरों के माध्यम से आदिवासियों को संपन्न बनाने की योजना है।  


वे कहते हैं, 'मैं बहुत निराश हूं कि मैं इतने में से केवल आठ से 10 बच्चों की मदद कर पाया। कई सारे बच्चों ने अपनी जान गंवा दी। मैं उस लापरवाही पर शर्मिंदा हूं जिसके कारण आग लग गई, लेकिन जिसने मुझे सबसे ज्यादा ये बात परेशान कर रही है कि घटनास्थल पर सैकड़ों लोग भीषण घटना की तस्वीरें और वीडियो लेने में व्यस्त थे।' केतन यहीं नहीं रुके, वे बच्चों को देखने के लिए अस्पताल तक गए और यह देखने की कोशिश की कि किसी को कोई मदद की जरूरत तो नहीं है।


केतन के अंदर बचपन से ही दूसरों की मदद करने का जज्बा है। 2006 में, जब सूरत बाढ़ की चपेट में था, केतन उस समय 12 साल के थे। उन्होंने अपने पिता के साथ राहत कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लिया था, खाने के पैकेट की पैकिंग की थी औऱ उन्हें बांटने के लिए भी गए थे। केतन के पिता एक स्थानीय व्यवसायी हैं।


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