गरीब बच्चों की क्वालिटी एजुकेशन पर काम कर रहा यह NGO, 185 बच्चों का नवोदय विद्यालयों में कराया एडमिशन
गांधी फेलोशिप से निकले दो युवा सुरेंद्र यादव और आकाश मिश्रा ने साल 2017 में गरीब परिवारों के बच्चों का जवाहर नवोदय विद्यालयों में प्रवेश कराने के उद्देश्य से गैर-सरकारी संगठन (NGO) सेल्फ रिलायंट इंडिया (SRI) की शुरुआत की थी.
देशभर में जहां एक तरफ शिक्षा का बाजारीकरण बढ़ता जा रहा है और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई महंगी होती जा रही है. वहीं, देश में सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराने वाले सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरता जा रहा है.
ऐसे में देश के गरीब परिवार के बच्चों के सामने यह समस्या खड़ी हो जाती है कि वह अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कैसे हासिल करें. इन्हीं सब समस्याओं को देखते हुए दो युवाओं ने गरीब बच्चों को अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने की ठान ली है.
गांधी फेलोशिप से निकले दो युवा सुरेंद्र यादव और आकाश मिश्रा ने साल 2017 में गरीब परिवारों के बच्चों का जवाहर नवोदय विद्यालयों में प्रवेश कराने के उद्देश्य से गैर-सरकारी संगठन (NGO) सेल्फ रिलायंट इंडिया (SRI) की शुरुआत की थी.
पिछले पांच सालों में SRI ने सरकारी स्कूलों के 185 बच्चों को नवोदय विद्यालयों में भेजा है. इस साल हरियाणा के तीन जिलों से 53 बच्चे नवोदय विद्यालय में गए हैं. वहीं, अल्मोड़ा में 40 में से 4 बच्चे गए हैं.
YourStory ने SRI के को-फाउंडर सुरेंद्र यादव से बात की और उनसे SRI की शुरुआत करने के उद्देश्य और उसके काम के बारे में जाना.
आपको SRI शुरू करने का आइडिया कहां से आया?
मैंने वीआईटी, वेल्लोर से 2015 में इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन किया है. मेरा मानना है कि जब स्किल्ड यूथ देश की समस्याओं का समाधान करने के लिए आगे नहीं आएगा, तब तक कोई बदलाव नहीं हो पाएगा.
मैंने इंजीनियरिंग का जॉब ऑफर छोड़कर दो साल तक ग्रासरूट लेवल पर एजुकेशन के क्षेत्र में गांधी फेलोशिप के तहत काम किया है. उसमें मैंने दो साल तक झुंझनू में काम किया था. उसके बाद हमने SRI की शुरुआत की.
मैं और मेरे दोस्त आकाश मिश्रा SRI के को-फाउंडर हैं. हमारे फेलोशिप का आधा स्टाइपेंड हमें मिलता था और आधा रिजर्व कर लिया जाता था. हमने अपने स्टाइपेंड की रिजर्व राशि 1 लाख 61 हजार रुपये से संस्था की शुरुआत की थी.
SRI की शुरुआत करने का क्या उद्देश्य था?
SRI को शुरू करने का उद्देश्य गरीबी रेखा के नीचे के बच्चों को गरीबी से निकालना है. वे गरीबी का चक्रव्यूह इसलिए नहीं तोड़ पाए क्योंकि उनकी पहले की जनरेशन को अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई. अच्छी एजुकेशन दो तरीकों से मिल सकती है.
पहला या तो परिवार में कोई पढ़ा लिखा हो जो कि बच्चों की एजुकेशन देख सके. दूसरा यह है कि स्कूल में गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई हो रही हो. पूरे देश के सरकारी स्कूलों में अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पा रही है. वहीं गरीब परिवारों की प्राथमिकता शिक्षा नहीं बल्कि रोटी-कपड़ा और मकान है.
नवोदय विद्यालय में क्या व्यवस्था है?
हमने देखा कि जवाहर नवोदय विद्यालय में एक ऐसी व्यवस्था है जहां पर गरीब से गरीब बच्चों के लिए भी पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था है. यह तमिलनाडु को छोड़कर पूरे देश के सभी जिलों में मौजूद है. हर साल इन स्कूलों में 50 हजार बच्चे जाते हें. यहां पर 6वीं से 12वीं तक की पढ़ाई होती है और रहना खाना सभी वहीं पर होता है.
अभी नवोदय विद्यालयों में किस बैकग्राउंड के बच्चों को प्रवेश मिलता है?
अपने इस अभियान की शुरुआत करने के लिए हमने सबसे पहले एक रिसर्च की कि नवोदय विद्यालय में कौन से बच्चे जा रहे हैं. हमारे रिसर्च में निकलकर आया कि नवोदय विद्यालय में जाने वाले बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जिनके पास प्राइवेट स्कूलों या कोचिंग का एक्सेस है. ऐसे परिवार अपने बच्चों का वहां एडमिशन करा देते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं.
वहीं, गरीब परिवारों को नवोदय विद्यालय के बारे में पता नहीं है. अगर पता भी है तो वहां का एंट्रेंस इतना टफ है कि वे निकाल ही नहीं पाते हैं. इसका मतलब है कि जिस उद्देश्य से नवोदय विद्यालय की स्थापना की गई थी कि वहां गरीब परिवारों के बच्चे मुफ्त में रहने-खाने सहित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर सकेंगे, वह पूरा नहीं हो पा रहा है.
साल 2017 में हमने यह तय किया कि 50 हजार में से अगर 25 हजार बच्चे भी नवोदय में भेज पाए तो हम 25 हजार परिवारों को गरीबी से निकालने में कामयाब हो पाएंगे. हमने इस प्रोजक्ट का नाम देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर ‘नन्हें कलाम’ रखा. हमारा मानना है कि बच्चों में प्रतिभा बहुत है और अगर उन्हें सही दिशा मिल जाए तो वे बहुत आगे तक जा सकते हैं.
अभी आपने कितने बच्चों का नवोदय विद्यालयों में प्रवेश कराया है?
अभी हम हरियाणा में रेवाड़ी, झज्जर और मेवात में पिछले 4-5 साल से काम कर रहे हैं. इसी साल हमने उत्तराखंड के नैनीताल, देहरादून और अल्मोड़ा में 4-5 महीने के लिए पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर काम शुरू किया है. हम उत्तर प्रदेश के बलिया और बिहार के समस्तीपुर में भी संस्थाओं के साथ काम कर रहे हैं.
पिछले पांच सालों में हम सरकारी स्कूलों के 185 बच्चों को नवोदय विद्यालयों में भेज चुके हैं. जिन स्कूलों में हमने काम शुरू किया है वहां हमारे जाने से पहले केवल 8-10 फीसदी बच्चे नवोदय विद्यालयों में जाते थे. लेकिन हमारे काम शुरू करने के बाद वहां यह संख्या बढ़कर 25-30 फीसदी तक पहुंच चुकी है.
इस साल हरियाणा के तीन जिलों से हमारे 53 बच्चे नवोदय विद्यालय में गए हैं. वहीं, अल्मोड़ा में 40 में से हमारे 4 बच्चे गए हैं. हमारी कोर टीम 10 लोगों की है. हमारे कुल 40-50 फेलो हैं जो अलग-अलग स्कूलों में बच्चों को नवोदय की तैयारी कराते हैं. हम अपने सभी फेलो को स्टाइपेंड देते हैं.
इस अभियान को चलाने के लिए आपको फंडिंग कहां से मिलती है?
अभी हमें देश के अलग-अलग सोशल इनक्यूबेशन प्रोग्राम से फंडिंग मिलती है. इसमें अनलिमिटेड इंडिया, टीच फॉर इंडिया, विप्रो फाउंडेशन, स्कॉटलैंड इंडिया, पुणे इंटरनेशनल सेंटर और इंपैक्ट लिंक शामिल हैं. जो हमें सपोर्ट कर रहे हैं.
इसके साथ ही हमें कॉरपोरेट की सीएसआर फंडिंग भी मिल रही है. इसमें रिलायंस फाउंडेशन, नेरोलैक और सिरोकी जैसी कंपनियों के सीएसआर मिल रहे हैं.
हमारा पिछले साल का बजट 50 लाख रुपये था और इस साल हमने 90 लाख रुपये की फंडिंग हासिल करने का लक्ष्य रखा है. 90 लाख रुपये तक की इस फंडिंग में हम करीब 2000 बच्चों के साथ काम करेंगे और हमारा लक्ष्य है कि हम 200-250 बच्चों को नवोदय विद्यालयों में भेजेंगे.
आप बच्चों को तैयारी कब और कहां कराते हैं?
हम जिन राज्यों में काम करते हैं वहां पर सरकारों के साथ हमारा एमओयू होता है. बच्चों को हम सरकारी स्कूल में ही स्कूल की क्लास खत्म होने के बाद दो घंटे पढ़ाते हैं.
हम एक जिले में 8-10 गांव चुन लेते हैं. वहां, हम ऐसे दो स्थानीय युवाओं को चुनते हैं जो भविष्य में टीचर बनना चाहते हैं. ऐसे युवाओं को भी हम एक बेहतर टीचर बनने के लिए ट्रेनिंग देते हैं.
सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का क्या स्तर है?
अभी सरकारी स्कूलों के साथ समस्या यह है कि लोगों को विश्वास नहीं है कि सरकारी स्कूल में पढ़ाई होती है. जब सरकारी स्कूल का बच्चा नवोदय विद्यालय में जाता है तो फिर यह बताने की जरूरत नहीं रह जाती है कि सरकारी स्कूल में पढ़ाई हुई है.
ऐसे में सरकारी स्कूलों की ओर लोगों को लाने के लिए हम अपने चुने हुए गांवों के प्रभावशाली लोगों को कन्विंस करते हैं कि वे अपने बच्चों का नाम प्राइवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूलों में लिखवाएं. हम उनसे यह भी कहते हैं कि आप प्राइवेट स्कूल के 1000 रुपये के बजाय यहां 200 रुपये ही दीजिए लेकिन यहां का इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर बनाने में मदद कीजिए.
अगर टीचर की कमी है तो उस पैसे से यहां पर टीचर की कमी पूरी कीजिए. अगर पांच क्लास हैं और टीचर तीन हैं तो दो टीचर अपने पैसे से लगाइए. इस तरह हम गांव के स्कूल को नवोदय विद्यालय के स्तर का बनाने का प्रयास कर रहे हैं.
आप स्कूलों का चुनाव किस तरह करते हैं?
हम सबसे पहले शिक्षा विभाग से स्कूलों की लिस्ट लेते हैं. उसके बाद तय करते हैं कि हमें किन 10 स्कूलों में काम करना है. लोकल लीडरशिप को बढ़ाने के उद्देश्य से हम उसी गांव के युवाओं के आवेदन मंगाते हैं. उनमें से हम दो युवाओं का चुनाव करते हैं.
हमारा उद्देश्य है कि हम देशभर की अलग-अलग संस्थाओं के साथ मिलकर काम करें और गरीब बच्चों को नवोदय विद्यालय में भेजें. हम सरकारी स्कूलों को मॉडल स्कूल के रूप में विकसित करना चाहते हैं.