अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ छत्तीसगढ़ के नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में मूलभूत शिक्षा से वंचित बच्चों की मदद कर रहा यह इंजीनियर
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों, सुकमा और बीजापुर, विकास के लिहाज से बाक़ी ज़िलों से काफ़ी पीछे हैं। पिछले कुछ सालों में माओवादियों की हिंसक गतिविधियों के चलते, करीबन 40 हज़ार बच्चों ने अपनी स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ दी। ग़रीबी और ऊपर से रोज़ अपनी जान बचाने के संघर्ष ने इन बच्चों को शिक्षा के मूलभूत अधिकार से ही वंचित कर दिया।
ऐसे विपरीत हालात में आशीष श्रीवास्तव ने सूरत-ए-हाल को बदलने की कोशिश की और उनकी कोशिश रंग लाई। आशीष पेश से इंजीनियर थे। दिल्ली में अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने देशभर में घूमना शुरू किया। अपनी यात्राओं के दौरान वह दंतेवाड़ा भी गए और वहां के हालात ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। उन्होंने देखा कि नक्सल हिंसा के चलते, उस क्षेत्र में रहने वाले बच्चों की शिक्षा पर बहुत ही बुरा असर पड़ा।
इस परिदृश्य को बदलने के उद्देश्य के साथ आशीष ने 2015 में शिक्षार्थ नाम के एनजीओ की शुरुआत की। यह गैर-सरकारी संगठन छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ज़रूरतमंद बच्चों की मदद कर रहा है।
यह एनजीओ पहले से स्थापित सरकारी स्कूलों के माध्यम से ही इन बच्चों को शिक्षित कर रहा है, लेकिन संगठन ने स्कूलों के करिकुलम और पढ़ाने के तरीक़ों को पहले से बेहतर बनाया है। हाल में, शिक्षार्थ सीधे तौर पर 3 हज़ार बच्चों को लाभान्वित कर रहा है। सुकमा और बीजापुर क्षेत्रों में क्षेत्रीय अधिकारियों की मदद से संगठन ने करीब 25 हज़ार बच्चों तक अपनी मुहिम का लाभ पहुंचाया है।
मीडियम से बात करते हुए आशीष ने कहा, “हमने एक रहवासी स्कूल से शुरुआत की थी, जहां पर 500 स्टूडेंट्स पढ़ते थे। इसके बाद इन बच्चों को 5 स्कूलों में विभाजित कर दिया गया।” संगठन ने क्राउडफ़ंडिंग से अपने ऑपरेशन्स की शुरुआत की थी और अभी तक एनजीओ अपने कार्यक्रमों के माध्यम से परोक्ष रूप से करीबन 30 हज़ार बच्चों तक पहुंच चुका है।
इन क्षेत्रों में शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए, संगठन ने अपने प्रयासों से 85 प्राइमरी स्कूलों को फिर से खुलवाया और संगठन को उम्मीद है कि 2019 तक यह आंकड़ा 100 तक पहुंच जाएगा।
एनजीओ देशभर से ऐसे युवाओं का चुनाव करता है, जो समाज में बदलाव के लिए कुछ करना चाहते हैं। संगठन ऐसे युवाओं को इन ज़रूरतमंद बच्चों की मदद के लिए फ़ेलोशिप देता है। इस फ़ेलोशिप प्रोग्राम के तहत, चुनिंदा लोगों को सुकमा और बीजापुर के बच्चों के साथ एक साल का समय बिताना होता है। हाल में , 2019 के फ़ेलोशिप प्रोग्राम में 15 स्वयंसेवक इन क्षेत्रों में काम कर रहे हैं।
आशीष बताते हैं कि इस मुहिम में उनका सफ़र बिल्कुल भी आसान नहीं रहा है। एफ़र्ट्स फ़ॉर गुड के साथ हुई बातचीत में आशीष ने कहा, “गांव वाले आसानी से शहर वालों पर भरोसा नहीं करते और उनके साथ खुलकर बातचीत भी नहीं करते। इसके अलावा भाषा और बोली की समस्या से भी संचार में बाधा आती है, जिससे काम और मुश्किल हो जाता है। इसके बावजूद भी मैंने प्रयास जारी रखा।”
पढ़ाई की शैली में किए गए बदलावों के बारे में बात करते हुए आशीष बताते हैं, “हमने अपने बचपन में ‘ए फ़ॉर ऐरोप्लेन’ और ‘बी फ़ॉर बॉल’ पढ़ा था, लेकिन इन बच्चों ने अपने जीवन में हाईवे ही नहीं देखा, ऐरोप्लेन तो दूर की बात है। इस वजह से परंपरागत पढ़ाई के साथ ये बच्चे तालमेल ही नहीं बैठा पाते। इस बात को ध्यान में रखते हुए हमने ‘ए फ़ॉर ऐपल’ को ‘ए फ़ॉर ऐरो’ बना दिया। ऐरो या तीर, ये बच्चे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देखते रहते हैं और इसलिए वह इन चीज़ों को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं।”
एक और उदाहरण देते हुए आशीष बताते हैं कि इन बच्चों से इतिहास के किसी विषय पर निबंध लिखने के लिए नहीं कहा जाता, बल्कि इनसे इनके स्थानीय त्योहारों आदि विषयों पर निबंध लिखने के लिए कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में यह बड़ा बदलाव लाने वाले आशीष मानते हैं कि विकास का मतलब होता है, सभी तक शिक्षा और भोजन पहुंचाना न कि सड़कों का जाल बिछाना।