सात साल बाद मिला इंसाफ, मां के गले से लिपट खिलखिला उठी निर्भया!
"इन सात सालों में दुनिया छोड़कर जाने के बाद भी निर्भया आज सुबह तक हर पल अपनी मां के साथ रही उसके साये की तरह, वैसे ही जैसे जन्म लेने से लेकर उसकी जिस्मानी विदाई तक मां बेटी के साथ रही और तब तक लड़ती रही उसके लिए जब तक कि बेटी को न्याय नहीं मिल गया। दरअसल ये लड़ाई सिर्फ निर्भया की नहीं थी, मां की उस कोख की भी थी, जिसमें नौ महीने रखकर मां ने बेटी को बड़े नाज़ों से जन्म दिया था।"
16 दिसंबर 2012 की रात जितनी काली, घनी, बद्सूरत और दर्दनाक थी, उतनी ही खामोश सन्नाटे से घिरी हुई थी आज की सुबह। 20 मार्च 2020 सुबह साढ़े पांच बजे निर्भया ने एक हल्की मुस्कान अपने चेहरे पर बिखेरी, मां के पल्लू को अपने सर पर ओढ़ा, उसे गले से लगाया और धीरे से मां के कानों में कहा, "मां अब मैं सो सकती हूं, जा तू भी आराम कर। सात साल चली इस लंबी लड़ाई ने तेरे पांवों का रंग और आकार ही बदल दिया..." और मां ने हल्की थपकी के साथ आज बेटी को भी अलविदा किया।
बेटियां ऐसी ही होती हैं, दुनिया छोड़ने के बाद भी मां के आसुओं की परवाह करती हैं। इन सात सालों में दुनिया छोड़कर जाने के बाद भी निर्भया आज सुबह तक हर पल अपनी मां के साथ रही उसके साये की तरह, वैसे ही जैसे जन्म लेने से लेकर उसकी जिस्मानी विदाई तक मां बेटी के साथ रही और तब तक लड़ती रही उसके लिए जब तक कि बेटी को न्याय नहीं मिल गया। दरअसल ये लड़ाई सिर्फ निर्भया की नहीं थी, मां की उस कोख की भी थी, जिसमें नौ महीने रखकर मां ने बेटी को बड़े नाज़ों से जन्म दिया था।
बेटियां घर की रौनक होती हैं और ये बात सिर्फ एक मां ही समझती है। वो नन्हीं उंगलियां जो मां का हाथ थामे चलना सीखती हैं, पिता की डांट खाते हुए मां के दुपट्टे में छिप जाती हैं, कॉलेज से आते ही सीधे रसोईं में घुसती हैं ये जानने के लिए नहीं कि खाने में क्या है, बल्कि मां के पसीने भरे बदन से लिपट कर दिन भर का हाल सुनाने को बेचैन उंगलियां मां की कलाईयों में फंसी चुड़ियों पर होले से गिरती हैं और मां के माथे पर लगी बिंदी को ठीक करते हुए कहती हैं, "लाल रंग तुम पर जंचता है..." लेकिन जब वही उंगलियां मां का हाथ थामे दर्दभरे बदन के साथ मां को आखरी बार देखती हैं, तो जो महसूस करती होगी मां उस तकलीफ को बयां करना इंसानी शब्दों का काम नहीं।
हर बेटी के लिए उसकी मां दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत होती है। माँ चाहे जितनी बूढ़ी हो जाये, उसके चेहरे पर चाहे जितनी झुर्रियां पड़ जायें, आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा भी चढ़ जाये, वो लिपस्टिक लगाये ना लगाये, रंगीन कपड़े पहने ना पहने, लेकिन अपनी बेटी के लिए वो जब तक इस दुनिया में रहती है, तब तक हिरोईन होती है। बेटियां जब छोटी होती हैं, माँ को तैयार होते देख घंटों-घंटों उनमें अपना भविष्य जीना पसंद करती हैं और मां के बाहर जाते ही उसकी लिप्सटिक अपने होंठो पर रगड़, दुपट्टा सर पर डाले पूरे घर में दौड़ लगाती हैं। जैसे जैसे बड़ी होती हैं बेटियां वो अपने आप ही मां बनती जाती हैं और मां बेटी बन जाती है। ये प्राकृतिक है। इसमें कोई कुछ कर नहीं सकता। बेटियों को मां बनना कोई नहीं सीखाता, लेकिन वो बचपन से ही मां होती हैं। अपने शब्दों में अपनापन लिए, जो भी शख्स उनके करीब आता है, वो उसकी मां बन जाती हैं, फिर वो रिश्ता चाहे पिता के साथ एक बेटी का हो, भाई के साथ एक बहन का हो, पति के साथ पत्नि का हो, प्रेमी के साथ प्रेमिका का हो या फिर मां के साथ बेटी का हो। बेटियों का हर रिश्ते में मां बन जाना, बेटियों का पसंदीदा होता है।
जिस तरह मां बेटी को नाज़ो से पाल कर बड़ा करती है उसी तरह एक उम्र के बाद बेटियां मां के नाज़ उठाती है। मेरी मां आज भी जब मिलती है और मैं खाना खाने से इंकार कर देती हूं, तो वो मेरे दो बच्चों की माँ हो जाने के बाद भी निवाले बना बना कर मेरे मुंह में डालती है और कहती है, "कितनी दुबली हो गई हो, अपना खयाल नहीं रखती बिल्कुल।" मैं रोती हूं, तो वो रोती है, मैं हंसती हूं तो वो हंसती है। मेरी हंसी और आंसुओं का मतलब जाने बगैर वो मेरे हर पल के एक-एक पल में मेरे साथ होती है खामोशी से ढेर सारे सवाल अपनी आंखों में लिए हुए... निर्भया के नाज़ भी उसकी मां ने खाने की प्लेट लेकर उसके पीछे पीछे भाग कर तब तक उठाये होंगे जब तक उसने आखरी सांस नहीं ली होगी। अपनी बेटी को अपनी आंखों के सामने दम तोड़ते हुए देखना कितना दर्दनाक होता होगा, ये सिर्फ मां का मन जानता है। इसे ना तो दुनिया का कोई कानून समझ सकता है और ना ही दुनिया। मां की मोहब्बत के सामने दुनिया भर के व्यावहारिक और वास्तविक तर्क दम तोड़ देते हैं, हार मान जाते हैं, क्योंकि वो जानते हैं यहां वो नहीं टिक पायेंगे।
मुझे आज भी याद है, 16 दिसंबर 2012 की वो कड़काती सुबह। मैं उसी साल अक्टूबर में बेंगलोर शिफ्ट हुई थी। उन दिनों बेंगलोर का मौसम बहुत सुहाना हुआ करता था। जितनी खूबसूरत सुबहें उससे भी ज्यादा खूबसूरत शामें, लेकिन उन खूबसूरत सुबहों और शामों का क्या, जब दुनिया के किसी कोने में एक लड़की, एक औरत या एक बच्ची के साथ वो सबकुछ हो रहा हो, जिसकी कल्पना करना भी रूह की आत्मा को खरोंच कर रूह के बदन से उसको अलग कर देने जितना दर्दनाक हो। सारे अखबार, सारे न्यूज़ चैनल देखते ही देखते निर्भया से भर गये। कईयों ने उसकी कहानी को बेचा, तो कईयों ने सचमुच उसमें इंसानियत को बचाये रखा। मेरे जैसी औरतें, बहुत कर सकती थीं तो सोशल मीडिया पर पोस्ट डाल कर समाज के प्रति अपने गुस्से को ज़ाहिर कर सकती थीं, लेकिन उससे होता क्या? सालों लंबी लड़ाई थी, जिसे यूं ही खतम होना नहीं था, वक्त लगना था... फिर भी बहुत वक्त लग गया उसे न्याय मिलने में। सात साल चली इस लंबी लड़ाई ने हर दिन हर मां और हर बेटी को कई बार ये सोचने पर मजबूर किया, कि "क्या ऐसी ही दुनिया की कल्पना की थी हमने अपने लिए?"
इस दुनिया को होना तो गुलमोहर के फूलों की तरह रंगीन चाहिए था, लेकिन दुनिया के दो ही रंग हैं, या तो काला या सफेद और ये वही रंग है जो कभी बद्सूरत हो जाता है, तो कभी-कभी गुलमोहर के रंगीन फूलों पर बिखर उन्हें रंगहीन बना देता है। ऐसा बताया जा रहा है, कि फांसी से पहले दोषियों को अपनी मौत का डर इतना सताया कि वे सारी रात सो नहीं सके। फांसी पर लटकाये जाने से पहले दोषियों ने फांसी से बचने के लिए अपने सभी कानूनी विकल्पों का इस्तेमाल किया, लेकिन उन्हें कहां मालूम था कि ये लड़ाई सिर्फ उस लड़की की नहीं थी, जिसे सात साल पहले उन्होंने सड़क पर छोड़ दिया था तड़पता हुआ मरने के लिए। ये एक मां की कोख की लड़ाई थी, जिसे वो नौ महीने, नौ साल तक नहीं, बल्कि सात जन्मों में दो और नये जन्म जोड़कर नौ जन्मों तक लड़ सकती थी। ये लड़ाई हार जीत की नहीं थी, मुक्ति की थी। मां लड़ी और मुक्त हो गई उन सभी कर्ज़ों से जो एक बेटी जीते जी उस पर हर पल चढ़ाती है, वो मुक्त हो गई उस दर्द से उस तकलीफ से जिसे बेटी के जाने के बाद भी उसने इन सात सालों में हर वक्त अपने भीतर महसूस किया।
सात साल बाद मिले लंबे इंसाफ के बाद आज मां भावुक हो गई। उसने दोषियों की फांसी के बाद बेटी की तस्वीर को गले लगा लिया और तस्वीर सामने रख उससे मन ही मन बात की। ये मां आज कोई जश्न नहीं मनायेगी, कोई खुशी नहीं मनायेगी, क्योंकि बेटी के जाने का दर्द उसकी आखरी सांस के साथ ही जायेगा। लेकिन उसे खुशी है इस बात की कि उसकी जिस बेटी ने तड़प-तड़पकर उसकी आँखों के सामने दम तोड़ा उसे आज इंसाफ मिल गया।
मां कहती है,
"इस फांसी के बाद हमारे बेटों को सिखाना पड़ेगा कि ऐसा करोगे तो ऐसा ही इंसाफ मिलेगा। आज का दिन हमारे देश की बच्चियों के नाम है। देर से ही सही लेकिन न्याय मिला। हमारी न्यायिक व्यवस्था, अदालतों को धन्यवाद। इस केस में जिस तरह से एक-एक पिटिशन डाली गई, तो हमारे कानून की कमियां भी खुलकर सामने आईं और उसी संविधान पर सवाल उठे, लेकिन एक बार फिर हमारा विश्वास मजबूत हुआ और देश की बच्चियों को इंसाफ मिला। मेरी बच्ची इस दुनिया में अब कभी वापिस नहीं आने वाली, निर्भया को इंसाफ मिला। आगे भी अपनी इस लड़ाई को जारी रखूंगी। आगे भी लड़ती रहूंगी, ताकि एक और निर्भया न बने।"
बेटी को याद करते हुए मां कहती है,
"मुझे अपनी बेटी पर गर्व है कि उसके नाम से देश ने सलाम किया। यह हमेशा दुख रहेगा कि आज वह होती तो डॉक्टर के नाम से पहचानी जाती, लेकिन अब मैं 'निर्भया की मां' के नाम से जानी जाती हूं। मैं सभी परिवारों से कहना चाहूंगी कि अगर ऐसा कुछ होता है तो उसे सपोर्ट करें, उसका साथ दे और दोषियों को फांसी तक पहुंचायें। हम जल्द ही एक पिटिशन डालेंगे, जिसमें कानूनी प्रक्रिया को सुधारने के लिए गुहार लगाएंगे, ताकि लोगों को लंबी कानूनी प्रक्रिया से न गुज़रना न पड़े और तुरंत न्याय मिले।"
मां खामोश है, लेकिन सुकून में है... मैं खामोश हूं, लेकिन सुकून में हूं... देश की तमाम बेटियां और माँऐं खामोश हैं, लेकिन सब सुकून में हैं, कि न्याय मिल गया! मुक्ति मिल गई! फिर भी लड़ाई खत्म नहीं हुई है, लंबी चलेगी और सबको लड़ना होगा, तब जाकर हर घर की निर्भया निर्भय होकर दहलीज के बाहर कदम बढ़ा पायेगी।