पुलवामा आतंकी हमले में शहीद नसीर अहमद को याद रखेगा देश
देशभक्ति जात-पांत, सम्प्रदायवाद की कायल नहीं होती है। भारत का हर सैनिक हिंदू हो या मुसलमान, देश की आन-बान-शान है। वीर अब्दुल हमीद के पदचिन्हों पर चलने वाले ऐसी ही नई शख्सियत हैं पुलवामा के शहीद नसीर अहमद। और हमारे देश में ऐसा ही एक गांव है धनूरी, जहां के 17 मुस्लिम फौजी देश पर कुर्बान हो चुके हैं।
तिरंगे पर मर मिटने वाला सच, कठोर सच, आंखें गीली, सीना गर्व से चौड़ा कर देने वाला सच है कि भारत का हर सैनिक हिंदू हो या मुसलमान, देश की आन-बान-शान है। पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद जहां पूरा देश एकजुट होकर इस हमले के विरोध में खड़ा नज़र आ रहा है, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इस दुखद घड़ी में भी साम्प्रदायिक बातें करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। ऐसी सिरफिरी बातें करने वालों को पता नहीं है कि उसी कश्मीर में कभी शहीद अब्दुल हमीद ने पाकिस्तानी फौजियों के दांत खट्टे कर दिए थे। आज उसी पुलवामा की सरज़मीं पर शहीद हुए हैं जम्मू के लाल नसीर अहमद।
हमारे ही देश में राजस्थान का गांव है धनूरी, जहां के तमाम मुस्लिम फौजी अपनी अटूट देशभक्ति के जिंदा सुबूत हैं। राजौरी (जम्मू) की थान्नामंदी तहसील के गांव दोदासन बाला निवासी नसीर अहमद अपना जन्मदिन 13 फ़रवरी को मनाने के एक दिन बाद ही बुखार में होने के बावजूद पुलवामा के आतंकी हमले के दौरान शहीद हो गए। नसीर सीआरपीएफ़ की 76वीं वाहिनी में थे। हमले के दौरान वह जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीआरपीएफ़ के काफ़िले में कमांडर के रूप में मुस्तैद थे।
नसीर अहमद की शहादत पर उनके इस छोटे से गाँव के लोग बताते हैं कि यहां के अनेक लोगों ने आतंकियों के ख़िलाफ़ लंबी लड़ाई लड़ी है। आतंकवादियों से जूझते हुए अब तक इस गाँव के कम से कम पचास लोग क़ुर्बानी दे चुके हैं। 22 साल से सीआरपीएफ़ में नौकरी कर रहे नसीर अपने परिवार के साथ जम्मू में ही रह रहे थे। उनके बच्चे जम्मू के ही स्कूल में पढ़ते हैं। नसीर की शहादत के बाद उनकी पत्नी शाज़िया कौसर कुछ वक्त के लिए गम से जरूर विचलित हुईं, लेकिन उनकी बड़ी बेटी फलक और बेटे काशिफ़ इससे बेख़बर से रहे कि उनके अब्बा अब कभी लौट कर नहीं आएंगे। नसीर के बचपन में ही उनके माता-पिता का इंतकाल हो गया था। उनके बड़े भाई सिराजुद्दीन ने उनका पालन-पोषण किया। पुलिसकर्मी सिराजुद्दीन अपने भाई को याद करते हुए कहते हैं कि नसीर ने अपना फ़र्ज़ पूरा किया है। यद्यपि स्वयं वह नहीं चाहते थे कि नसीर भी वर्दी वाली नौकरी करे लेकिन शुरू से ही उसके अन्दर देशभक्ति का ज़ज्बा था।
46 वर्षीय शहीद नसीर के पुलिसकर्मी भाई सिराजुद्दीन बताते हैं कि छोटी सी उम्र में भाई के चले जाने से वह दुखी भले हैं, उसके किए पर उन्हें गर्व है। उन्हें अब नसीर के छोटे-छोटे दो बच्चों को अभी पढ़ाना है, पालना है, लंबा सफर तय करना है। सरकार को हिम्मत दिखानी चाहिए ताकि फिर ऐसा हादसा न हो। सेना का काफ़िला अपने रास्ते जा रहा था। उससे किसी को कोई लेना-देना नहीं था, फिर भी अचानक हमला कर हमारे जवानों को मार दिया गया। ये तो हद है। मेरा भाई देश के लिए क़ुर्बान हो गया है। मेरी सरकार से बस इतनी अपील है की उनके बच्चों की मदद की जाए क्योंकि वे दोनो अभी बहुत छोटे हैं। नसीर ने शहादत का जाम पीकर दुनिया को अलविदा कह दिया।
आज हम राजस्थान के झुंझुनूं जिला मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित गांव धनूरी का भी यहां इसलिए जिक्र कर रहे हैं कि यहां सर्वाधिक परिवार कायमखानी मुस्लिमों के हैं। पूरे गांव की आबादी लगभग साढ़े तीन हजार है। इस गांव को आदर्श सैनिक गांव और फौजियों की खान के नाम से भी जाना जाता है। धनूरी ने देश को छह सौ फौजी दिए हैं, जिनमें से तीन सौ वर्तमान में देश की रक्षा के लिए विभिन्न जगहों पर तैनात हैं और तीन सौ रिटायर हो चुके हैं। उनमें अधिकांश फौजी मुस्लिम समुदाय से हैं।
इस गांव के कई मुस्लिम परिवार तो ऐसे हैं, जिनकी चार-चार पीढ़ियां सेना में रहकर देश का मान बढ़ा चुकी हैं। पहले, दूसरे विश्व युद्ध से लेकर भारत-चीन युद्ध (1962), भारत-पाक युद्ध (1965), सन् 1971 के युद्ध और करगिल युद्ध (1999) तक में यहां के 17 बेटों ने देश के लिए शहादत दी है। इस गांव में शहीद मेजर महमूद हसन खां के नाम पर एक स्कूल भी है। इस गांव के मोहम्मद इलियास खां, मोहम्मद सफी खां, निजामुद्दीन खां, मेजर महमूद हसन खां, जाफर अली खां, कुतबुद्दीन खां, मोहम्मद रमजान खां, करीम बख्स खां, करीम खां, अजीमुद्दीन खां, ताज मोहम्मद खां, इमाम अली खां, मालाराम बलौदा आदि वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं।
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