मिलिए उस शख्स से जिसने अपने सेंस ऑफ ह्यूमर की बदौलत 4 बार कैंसर को 'हराया'
अगर आपको बताया जाए कि आप कैंसर, आंख से जुड़ी परेशानी, दिल की बीमारी, मधुमेह (डायबिटीज) और उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? आप शायद हताश हो जाएंगे और अपने जीवन से घृणा करने लगेंगे। हालांकि एचआरडी ट्रेनर और चार बार कैंसर को मात देने वाले परिमल गांधी के मुताबिक, जब अचानक ढेर सारी मुसीबतों से वास्ता पड़े तो उस वक्त हंसी आपका सबसे अच्छी साथी हो सकती है। परिमल 1974 के बाद से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझते रहे हैं जिनके उपचार के लिए वह पूरी दुनिया का आधा सफर तय कर चुके हैं।
इस दौरान वह अपने भाग्य, दृढ़ संकल्प और अजनबियों की दया पर निर्भर थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा कैन सरमाउंट (Can Surmount) में अपनी जिंदगी के सभी अनुभवों और दुखों को पिरोया है। इसमें जोर देकर कहा गया है कि 'जिंदगी के इस काव्य के लिए ढेरों व्याकरण हैं जिसमें मैं जी रहा हूं।'
योरस्टोरी के साथ बातचीत में 66 वर्षीय परिमल ने पुराने दिनों को याद करते हुए बताया कि किस तरह उन्होंने तमाम मुश्किलों के बावजूद कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है।
डिस्ट्रॉफी से निपटना
डिस्ट्रॉफी - एक ऐसा डिसऑर्डर जिसमें शरीर का एक अंग खराब हो जाता है।
1953 में अहमदाबाद में जन्मे परिमल एकाउंटेंट फैमिली से ताल्लुक रखते हैं जिसमें शौकिया गायक और कलाकार भी थे। वह बड़े चाव से बचपन को याद करते हैं कि कैसे उन्होंने पियानो बजाना सीखा, अपनी बहनों के साथ कैसे बॉलरूम डांसिंग का लुत्फ उठाते थे और किस तरह से पिता के गानों की आवाज से उनकी आंख खुलती थी। सुख तो कहानियों में भी हमेशा बरकरार नहीं रहते हैं और ये तो जिंदगी थी।
परिमल को 21 साल की उम्र में द्विपक्षीय कॉर्नियल डिस्ट्रॉफी से पीड़ित होने का पता चला। यह दुर्लभ वंशानुगत विकार है जिससे आंखों की रोशनी पर बुरा असर पड़ता है। इस बीमारी ने उनके सपनों का गला घोंट दिया। परिमल बताते हैं,
'मैं वायुसेना में भर्ती होकर पायलट बनना चाहता था लेकिन आंखों की समस्या ने साफ हो गया कि मेरा सपना पूरा नहीं होगा। मैंने नेशनल साइंस टैलेंट सर्च स्कॉलरशिप जीती थी, इसलिए मैं रिसर्च केमिस्ट बनने की योजना बना रहा था। मैं केमिकल इंजीनियर बनने बाद खुद का केमिकल प्लांट शुरू करना चाहता था।'
उन्होंने केमिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी के लिए चार में से तीन साल की पढ़ाई पूरी कर ली थी जब उन्हें अंग्रेजी लिटरेचर की पढ़ाई जारी रखने के लिए इसे छोड़ना पड़ा था। वह डिस्ट्रॉफी की वजह से परीक्षा की सही तरीके से तैयारी नहीं कर पा रहे थे लेकिन उसकी पत्नी और दोस्तों ने उनकी पढ़कर तैयारी करने में मदद की। उन्होंने स्वर्ण पदक जीता।
कैंसर से आर-पार की लड़ाई
परिमल की कॉर्निया ट्रांसप्लांट की पहली कोशिश नाकाम हो गई थी। वह दूसरे प्रयास में जुटे थे तभी उन्हें हॉजकिन बीमारी का पता चला। यह एक तरह का रक्त कैंसर है जो लसीका प्रणाली में शुरू होता है। परिमल को यह बीमारी 1984 में हुई थी यानी डिस्ट्रॉफी की समस्या के 10 साल बाद। हालांकि परिमल ने अपने अंदर डर को घर करने नहीं दिया। वह कहते हैं कि उनकी जिंदगी में नकारात्मक चीजों के लिए जगह नहीं है।
उनका कहना है,
'इन सारी चीजों के लिए मेरे पास काफी व्यावहारिक दृष्टिकोण है, यह समस्या क्या है और क्या मैं इसे हल करने के लिए कुछ भी कर सकता हूं। अगर मैं नहीं कर सकता तो मुझे कोई और शख्स मिलेगा जो इसे मेरे लिए हल कर सकता है।'
हालांकि हर कोई परिमल जैसा आशावादी नहीं होता है और उनकी बीमारियों की खबर ने पूरे परिवार का हौसला तोड़ दिया। वह कहते हैं,
'यह वास्तव में काफी दुखद है कि कई कैंसर रोगियों को अपने परिजनों को सांत्वना देनी पड़ती है। मुझे जब पहली बार कैंसर हुआ तो दूसरे शहरों में रहने वाले पारिवारिक सदस्यों को वापस बुलाया गया। उस वक्त घर में अंतिम संस्कार जैसा माहौल था। मुझे यह कहते हुए उन्हें डांटना पड़ा जब मैं मर जाऊंगा तब यह सब करना। मैं अभी भी जिंदा हूं।'
देवता समान वे लोग
परिमल ने व्यावहारिक होने के नाते अपनी समस्याओं का इलाज खोजना शुरू कर दिया था। इसके बाद परिमल को ऐसे लोग मिले जिन्होंने उन्हें उनकी समस्याओं से निजात दिलाया। उन्हें इंजन ड्राइवर से नेत्ररोग विशेषज्ञ बने एक हंगरी के एक डॉक्टर के बारे में पता जो एक सम्मेलन के लिए अहमदाबाद आए थे। डॉक्टर ने परिमल को अमेरिका बुलाया और उन्हें भरोसा दिया कि उन्हें अपनी आंखों की रोशनी वापस मिल जाएगी।
हालांकि परिमल के पास इतना पैसा नहीं था कि वह अमेरिका जा सकें या फिर सर्जरी करवा सके। वह रोटरी इंटरनेशनल के सदस्य थे। इस संगठन ने उन्हें एक एक्सचेंज प्रोग्राम ऑफर किया जिसके बाद वह इलाज के लिए अमेरिका रवाना हुए।
जब रोटेरियन फैमिलीज उनकी देखरेख कर रहा था तो उनमें से एक ने देखा कि परिमल एक मैग्निफायर के साथ पढ़ रहे थे। उन्होंने जब पूछताछ की तो उन्हें परिमल की हालात और वित्तीय तंगहाली के बारे में पता चला। इसके बाद संगठन ने एक 'परिमल गांधी फंड' बनाया और दो दिनों के भीतर ही सर्जरी के लिए 8,000 डॉलर की फीस इकट्ठा हो गई। लेकिन यह उनकी हैरानी भरे खुशियों के सिलसिले का अंत नहीं था।
परिमल बताते हैं कि अस्पताल पहुंचने के बाद क्या हुआ,
'गुजरात के एनेस्थेसियोलॉजिस्ट डॉक्टर महेंद्र पटेल थे। उन्होंने मुझसे कहा कि देखो, आप मेरे छोटे भाई जैसे हैं। हम दोनों एक ही राज्य से भी हैं। मैं आपसे फीस नहीं लेने वाला हूं। मैंने आपसे सिर्फ 1,000 डॉलर लूंगा।' उनके पीछे खड़े डॉक्टर जॉन अल्पा मुस्कुरा रहे थे। डॉक्टर पटेल ने कहा कि डॉ. अल्पा इसलिए मुस्कुरा रहे हैं कि क्योंकि वह भी कोई फीस नहीं लेने वाले हैं।'
इसके बाद परिमल का मुफ्त में ट्रांसप्लांट हुआ और उनके पास अमेरिका में कैंसर का इलाज कराने के लिए भी पर्याप्त पैसा भी बचा गया था। परिमल बताते हैं,
'मेरी मदद के लिए अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग लोग आए थे और उन्होंने मेरे लिए जो किया वह किसी भी उम्मीद से ज्यादा होगा। मैंने 1984-85 में अपनी चचेरी बहन से संपर्क किया जो ह्यूस्टन में थीं। वह घर में अपने पति, तीन बच्चों और पति की तीन बहनों के साथ रहती थीं। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे हैरानी होती है कि उन्होंने कैसे एक और शख्स को अपने घर में रखा होगा और उस शख्स का इलाज भी चल रहा था। हर वक्त उल्टी आने और भय के माहौल के बीच भी वह मेरे साथ खड़ी थीं।'
खुशियों की तलाश
लेकिन परिमल को चारों ओर से मिलने वाला प्रेम और सहयोग 1994 और 2004 में कैंसर को फिर से आने से नहीं रोक पाया। उन्हें 2018 में ब्लेडर के कैंसर का पता चला। अब अंतिम अल्ट्रासाउंड में इसकी उपस्थिति का कोई संकेत नहीं है। उन्हें 2010 में कार्डियक बाईपास सर्जरी भी करानी पड़ी और उन्होंने अपने मधुमेह और उच्च रक्तचाप की देखरेख भी जारी रखी। इतनी सारी मुश्किलों के बावजूद किस चीज के सहारे परिमल आगे बढ़े रहे हैं?
इस सवाल का जवाब देते हुए वह कहते हैं,
'मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर! इसके बिना मैं वह जिंदगी नहीं जी सकता था जिसे मैंने जी है। मैं इन चीजों को गंभीरता से नहीं लेता हूं। मैं खुद को सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर के हाथों में सौंपकर सारी बीमारियों से पार पाऊंगा।'
परिमल की खराब सेहत भी उन्हें सफर से नहीं रोक पाई जो उन्हें काफी पसंद है।
उन्होंने पूरे भारत के साथ यूरोप, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के कई हिस्सों की यात्रा की है। एचआरडी ट्रेनर के रूप में उनका काम भी परिमल को व्यस्त रखता है। उन्होंने खुद को पब्लिक स्पीकिंग के लिए प्रशिक्षित किया जिससे उन्हें दूसरों को सिखाने का अवसर मिला। परिमल ने फॉर्च्यून 500 कंपनियों के लिए विश्व स्तर पर एक लाख से अधिक प्रतिभागियों और 1,500 प्रशिक्षकों को ट्रेनिंग दी है। इनमें मेक्सिको के पूर्व राष्ट्रपति विसेंट फॉक्स क्वासादा और उनका कैबिनेट भी शामिल है। उन्होंने लगातार बीमारियों और उपचार काम छोड़ने से मना कर दिया।
परिमल कहते हैं,
'यह मेरे ऊपर निर्भर है कि मैं अपनी जिंदगी को जीने लायक रखूं। यह काम अस्पताल नहीं करते हैं। वे सिर्फ यह सुनिश्चित करते हैं कि आपकी मृत्यु न हो। मुझे जिंदा तो मेरा काम रखता है।'
अगर उन्हें मौका मिले तो क्या वह अपने जीवन के बारे में कुछ बदलेंगे? परिमल साफ इनकार करके कहते हैं कि उनकी जीवन की चुनौतियों ने ही बताया कि वह कौन हैं।
वह इस मंत्र के साथ अपनी जिंदगी जीते हैं कि 'आप सिर्फ हाड़-मांस का शरीर नहीं हैं बल्कि उससे कहीं ज्यादा हैं।'
वह अपनी आत्मकथा कैन सरमाउंट में लिखते हैं,
'जिंदगी ने मेरे रास्ते में कई चुनौतियां पेश करती है जिन्हें मैं किसी एतराज के स्वीकार करता हूं। मैं तो अपने सभी संसाधनों का उपयोग करके उनके साथ कुश्ती करता हूं। मैं अपने जीवन में जो कुछ करना चाहता हूं कि उन्हें करते हुए इन चुनौतियों से लड़ना सीख लिया है। मैं चुनौती से कभी नहीं पूछता कि वह मुझे ही क्यों, बार-बार क्यों, इतना क्यों परेशान करती हैं। मैं इन्हें प्रसाद, उपहार, इम्तिहान के रूप में स्वीकार करता हूं। मैंने अपना जीवन पूरी तरह से जीने के लिए चुना है और मैं इसे खुद पर हावी होकर जीने नहीं दूंगा।'