अनाथों के नाथ बने प्रिंसिपल दंपती देवव्रत और संतना
इस भरी दुनिया में शराब पीते-पीते मां-बाप चल बसें, उनके बच्चे अनाथ हो जाएं, ऐसे में जो उन्हे अभावों से उबार ले, संरक्षण दे दे, ऐस परवरिश में वह किसी मसीहा से कम नहीं होता है। असम के शराब कांड में अनाथ हो चुके चार ऐसे ही बच्चों को पाल-पोष रहे हैं जोरहाट के प्रिंसिपल दंपति देवव्रत और संतना।
वक़्त उन्हे महान नहीं बनाता है, जो सिर्फ अपने लिए जीते हैं बल्कि शख्सियत में वे शुमार हो जाते हैं, जो दूसरों को बनाकर, दूसरों की मुश्किलों में काम आकर उऩकी जिंदगी आसान कर देते हैं। सामान्य जीवन से ऊपर उठकर पीड़ितों बांहों में भर लेने वाले असम के एक ऐसे ही प्रिंसिपल दंपति को आज लोग गर्व से सम्मानित शख्सियत मानने लगे हैं। गुवाहाटी (असम) में देवव्रत शर्मा जोरहाट कॉलेज के प्रिंसिपल हैं और उनकी पत्नी संतना शर्मा जोरहाट जाति विद्यालय की प्रधानाचार्य। जोरहाट जाति विद्यालय एक क्षेत्रीय भाषाई स्कूल है, जो सामुदायिक सहायता से चलता है। गौरतलब है कि इसी साल फरवरी में जोरहाट और गोलाघाट में जहरीली शराब पीने से डेढ़ सौ से अधिक लोग अपनी जान गंवा बैठे थे। ऐसा ही एक परिवार अपने पीछे चार छोटे बच्चों को छोड़कर चल बसा था। चारों बच्चे हलमीरा चाय बागान में अपने माता-पिता के साथ रहते थे। यह वही स्थान है, जहां उस दर्दनाक वाकये में सबसे ज्यादा मौतें हुई थीं। उन अनाथ चारो भाई-बहनों को शर्मा परिवार में ठिकाना मिला।
जहां तक हालमीरा चाय का बागान की बात है, उसके भीतर जाने के लिए भी इजाज़त लेनी पड़ती है। ज़हरीली शराब पीने से अकेले इस बागान के ही 46 लोगों की मौत हो गई थी। छठी क्लास की छात्रा दीपा तेलांगा उस घटना को सुबक सुबक कर याद करते हुए बताती है कि हम भाई-बहन खाना खा कर सो गए थे। उस शाम को काम से लौटने के बाद हमारे माता-पिता ने थोड़ी शराब पी थी। सुबह उठने पर पता चला कि पिता की तबीयत ख़राब हो गई थी और माँ उन्हें लेकर अस्पताल भागीं थीं लेकिन बाद में पता चला कि पहले माँ की ही मौत हो गई और इसके बाद पिता ने भी अगले दिन दम तोड़ दिया। मसला सिर्फ़ इतना नहीं था। उस शाम को दीपा के माता-पिता के अलावा उनकी दादी और चाचा ने भी वही शराब पी थी। अगले दो दिनों में उन्होंने भी दम तोड़ दिया यानी एक परिवार के चार लोगों की मौत 48 घंटों के भीतर हुई और एक झटके में कई लोग अनाथ हो गए।
उस वाकये से पहले असम के इस प्रिंसिपल दंपती देवव्रत और संतना ने अपनी जिंदगी का लंबा वक़्त निःसंतान एजुकेशन सेक्टर में बिता दिया। शादी रचाने के बाद ही उन्होंने तय कर लिया था कि वे किसी संतान को जन्म ही नहीं देंगे। सिर्फ समाज के लिए जिएंगे। लगभग ढाई दशक तक वे निःसंतान रहे। अगर उत्तरी असम की वह त्रासदी न होती तो शायद आज भी उनका एकांत निर्वचन रहा होता। उस घटना के बाद उन्होंने चारो अनाथ बच्चों की पूरी परवरिश का जिम्मा ओढ़ लिया। यहां तक कि उन्होंने उन बच्चों का अपने परिवार में नया नामकरण भी कर दिया। ग्यारह वर्षीय बालक का नाम रखा मरोम, नौ साल के बच्चे का नाम सेनेह, सात साल के बच्चे का नाम अडोर और तीन साल के बच्चे का नाम हेपाह रख दिया। इसके बाद अप्रैल में बाल कल्याण समिति की सहमति से प्रिंसिपल दंपति चारों बच्चों को घर ले आए। अब उनका एक अदद संकल्प, अपने भविष्य का लक्ष्य मरोम, सेनेह, अडोर और हेपाह की जिंदगी को नए-नए अर्थ देना रह गया है।
हमारे देश में आज भी लाखों की संख्या में ऐसे अनाथ बच्चे अभिभावक का साया सिर से उठ जाने के बाद अंधेरी सुरंगों में फंस कर रह जाते हैं। एक ऐसा ही दुखद वाकया मंडी (हिमाचल) के करसोग उपमंडल की पांगणा उपतहसील की सोरता पंचायत के खनेयोग गांव का है, जहां के तीन मासूम निर्मला (12), अर्चना (9) और नरेंद्र (5) अनाथ हो चुके हैं। अब उनकी ताया लोकपाल ही उनके गुजर-बसर का जिम्मा उठा रही है। सितंबर 2012 में इन बच्चों की मां लता की (नरेंद्र के) प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई थी। उसके बाद मार्च 2018 में पिता जीत सिंह भी बीमारी के कारण चल बसे थे। बच्चों की ताया लोकपाल बीपीएल परिवारों की सूची में आती है। खुद के चार बेटे हैं, पत्नी है और एक बुजुर्ग मां है, साथ में दिवंगत भाई के तीन बच्चों की जिम्मेवारी भी लोकपाल के कंधों पर है। लोकपाल को सरकार की बाल-बालिका सुरक्षा योजना के बारे में पता चला तो उन्होंने सीडीपीओ करसोग के पास इसके लिए आवेदन किया। इस योजना के तहत यदि कोई रिश्तेदार ऐसे बच्चों का पालन-पोषण करता है तो उसे हर महीने सरकारी मदद दी जाती है।
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